Category Archives: समाज

स्त्री विरोधी अपराधों पर चुप्पी तोड़ो! अपराधियों के पैदा होने की ज़मीन की शिनाख्त करो!

आज जिस रूप में पूँजीवाद यहाँ विकसित हुआ है उसने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी बस खरीदे-बेचे जा सकने वाले सामान में तब्दील कर दिया है। उसने अश्लीलता फैलाना भी मोटे पैसे कमाने का धन्धा बना दिया। अमीरजादों की “ऐयाशियों” की तो चर्चा ही क्या हो, 1990-91 से जारी ‘उदारीकरण और निजीकरण’ की नीतियों के लागू होने के बाद ज़मीन बेचकर और सब तरह के उल्टे-सीधे कामों से पैसा कमाकर मध्यवर्ग से भी नये अमीर तबके का उभार हुआ है। कुछ तो नये-नये पैसे का नशा और कुछ ‘कोढ़ में खाज’ पूँजीवाद की गलीज संस्कृति, कुल-मिलाकर इस तबके का आच्छा-खास्सा हिस्सा लम्पट हो गया। इसे लगता है कि पैसे के दम पर कुछ भी खरीदा जा सकता है, नोचा-खसोटा जा सकता है! इसके अलावा यह व्यवस्था ग़रीब आबादी में भी सांस्कृतिक पतनशीलता का ज़हर हर समय घोलती रहती है।

झारखण्ड में भूख से बच्ची की मौत – पूँजीवादी ढाँचे द्वारा की गयी एक और निर्मम हत्या

अक़सर यह बताया जाता है कि भुखमरी का कारण खाद्यान्न की कमी है, पर यह एक मिथक है। सच तो यह है कि विश्व में इतना भोजन का उत्पादन होता है कि सभी का पेट भरना सम्भव है। एक ओर सुपरमार्केट की अलमारियों में रंग’बिरंगे ि‍डब्बों में खान-पान की सामग्री स्टॉक करके रखी हुई है, वहीं दूसरी ओर विश्व-भर में रोज़ 1.6 करोड़ बच्चे और 3.3 करोड़ वयस्क भूखे सोते हैं। पूँजीवादी मुनाफ़े की होड़ के कारण भोजन की क़ीमतें मज़दूरों और मेहनतकशों की पहुँच से अधिक होती हैं और हमेशा बढ़ती जाती हैं। आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति के कारण दुनिया की काम करने वाली आबादी का एक छोटा हिस्सा भी अगर खेतों में काम करे तो दुनिया-भर की आबादी का पेट भरने में सक्षम है परन्तु आधुनिक खाद्य उत्पादन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मुनाफ़े के अधीन काम कर रहे हैं। इसका ही दूसरा पहलू यह है कि अरबों ग़रीब किसान पुराने तरीक़ों से काम करते हुए अपनी क्षमताओं को बर्बाद करते हैं।

चुप रहना छोड़ दो! जाति‍ की बेड़ि‍यों को तोड़ दो!

पि‍छले 10-12 सालों में हरियाणा के मिर्चपुर, गोहाणा, भगाणा से लेकर कैथल में दलित उत्पीड़न की कई घटनाएँ ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी के साथ ही हुई हैं। असल में सरकार चाहे किसी पार्टी की हो, दलित उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार जारी रही हैं। पि‍छले साढ़े तीन सालों में गुज़रात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे देश में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ जिस क़दर बढ़ी हैं, उससे भाजपा-संघ सरकार की ”सामाजिक समरसता” की नौटंकी का पर्दाफ़ाश हो गया है। सहारनपुर में सवर्णों की बर्बर दबंगई का विरोध करने वाले जुझारू दलित नेता चन्द्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ को फ़र्ज़ी मुक़दमों में जेल भेजा गया, जेल में उनको बुरी तरह टॉर्चर किया गया, इलाज तक नहीं कराया गया और जब अदालत ने पुलिस को फटकार लगाते हुए उन्हें ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया तो प्रदेश की योगी सरकार के आदेश पर उन पर रासुका लगाकर दुबारा जेल में डाल दिया गया।

70 साल की आज़ादी का हासिल : भूख और कुपोषण के क्षेत्र में महाशक्ति

भारत में दो वर्ष तक की उम्र के 10% से भी कम बच्चों को पर्याप्त मात्रा में पोषक भोजन उपलब्ध होता है। माँ का दूध पीते बच्चों को जब साथ में दूसरे भोजन देने की उम्र होती है, उस वक़्त सिर्फ़ 42% बच्चों को ही ठोस भोजन उपलब्ध हो पाता है। 5 साल से कम उम्र के 35% बच्चे सामान्य से कम वज़न और 38% बच्चे सामान्य से कम क़द के हैं। 21% बच्चे तो अपने क़द के हिसाब से भी कम वज़न वाले अर्थात पूरी तरह कुपोषित हैं। कुपोषित बच्चों की संख्या 2005-06 के मुक़ाबले अब 1% बढ़ गयी है। ये सब निष्कर्ष थे 2015-16 के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के। दुनिया में मात्र तीन ही और देश – दक्षिणी सूडान, जिबूती और श्रीलंका – ऐसे हैं, जहाँ 20% से अधिक बच्चे पूरी तरह कुपोषित हैं।

तटीय आन्ध्र में जाति‍ व्यवस्था के बर्बर रूप की बानगी

1990 के दशक में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद कम्मा, रेड्डी, राजू और कापु जैसी कुलक जातियों की आर्थिक शक्तिमत्ता में और इज़ाफ़ा हुआ क्योंकि इन जातियों से आने वाले धनी किसानों ने अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा मत्स्य पालन, नारियल के विशाल फ़ार्म, राइस मिल और तटीय आन्ध्र के शहरी इलाक़ों में होटल-रेस्तराँ व सिनेमा जैसे उद्योगों में लगाना शुरू किया। बाद में इस पूँजीपति वर्ग ने अपने अधि‍शेष को हैदराबाद में आईटी व फ़ार्मा कम्पनियों में तथा रियल एस्टेट, शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्रों में निवेश करना शुरू किया।

पंचकूला हिंसा और राम रहीम परिघटना : एक विश्लेषण

डेरा सच्चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था। फिर कांग्रेस के पराभव के साथ ही इस डेरे ने अपने अन्य राजनीतिक विकल्पों की तलाश और सौदेबाज़ी भी शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में डेरा सच्चा सौदा ने अकाली दल उम्मीदवार और सुखवीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरन कौर की जीत में अहम भूमिका निभायी थी। इन चुनावों के दौरान और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के दौरान डेरा सच्चा सौदा ने पर्दे के पीछे से अपना पूरा समर्थन भाजपा को दिया था।

‘भारत में आय असमानता, 1922-2014 : ब्रिटिश राज से खरबपति राज?’

पिछले दिनों ही भारत में सम्पत्ति के वितरण पर क्रेडिट सुइस की रिपोर्ट भी आयी थी। इसमें बताया गया था कि 2016 में देश की कुल सम्पदा के 81% का मालिक सिर्फ़ 10% तबक़ा है। इसमें से भी अगर शीर्ष के 1% को लें तो उनके पास ही देश की कुल सम्पदा का 58% है। वहीं नीचे की आधी अर्थात 50% जनसंख्या को लें तो उनके पास कुल सम्पदा का मात्र 2% ही है अर्थात कुछ नहीं। इनमें से भी अगर सबसे नीचे के 10% को लें तो ये लोग तो सम्पदा के मामले में नकारात्मक हैं अर्थात सम्पत्ति कुछ नहीं क़र्ज़ का बोझा सिर पर है। इसी तरह बीच के 40% लोगों को देखें तो उनके पास कुल सम्पदा का मात्र 17% है।

अस्पताल में मौत का तांडव : जि़म्मेदार कौन?

ऑक्सीजन की सप्लाई रुकी पड़ी थी और एक-एक कर बच्चों की मौत हो रही थी। अस्पताल के डॉक्टरों ने पुष्पा सेल्स के अधिकारियों को फ़ोन कर ऑक्सीजन भेजने की गुहार लगायी तो कम्पनी ने पैसे माँगे। तब कॉलेज प्रशासन भी नींद से जागा और 22 लाख रुपये बकाया के भुगतान की कवायद शुरू की। पैसे आने के बाद ही पुष्पा सेल्स ने लिक्विड ऑक्सीजन के टैंकर भेजने का फ़ैसला किया। लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी और 40 बच्चे भी मर चुके थे। यह ख़बर आने तक कहा जा रहा था कि यह टैंकर शनिवार की शाम या रविवार तक ही अस्पताल में पहुँच पायेगा। मौत के ऊपर लापरवाही और लालच का यह खेल भी नया नहीं है। पिछले साल अप्रैल में भी इस कम्पनी ने 50 लाख बकाया होने के बाद इसी तरह ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी थी।

देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई के बच्चों में बढ़ता कुपोषण

मुम्बई भी ऐसा ही एक ऊपरी तौर पर चमकदार शहर है जहाँ एक ओर अम्बानी, टाटा, बिड़ला, अडानी जैसे भारी दौलतमन्द लोग रहते हैं; वहीं यहाँ की अधिकांश मेहनतकश जनसंख्या भारी ग़रीबी और तंगहाली में गन्दगी से बजबजाती, दड़बों की तरह भरी झोपड़पट्टियों में रहने को मजबूर है। हालत यह है कि इस ‘मायानगरी’ के दो तिहाई निवासियों को इस शहर की सिर्फ़ 8% जगह ही रहने को मयस्सर है। शायद इनमें से भी बहुतों ने 2014 के चुनाव के पहले के भारी प्रचार से चकाचौंध होकर नरेन्द्र मोदी के ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘अच्छे दिनों’ के वादों में भरोसा किया था, देश के चहुमुँखी विकास से अपनी जि़न्दगी में बेहतरी आने का सपना देखा था। पर नतीजा क्या हुआ?

गटर साफ़ करने के दौरान सफ़ाईकर्मियों की मौतों का जि़म्मेदार कौन?

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 1,80,657 परिवार ऐसे हैं जो गटर की सफ़ाई या मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं और इसी गणना में यह भी पाया गया कि क़रीब 7,94,000 लोग इस काम में लगे हुए हैं। अब इन आँकड़ों को वास्तविकता से कितना कम करके आँका गया है, उसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि भारतीय रेलवे जो सफ़ाईकर्मियों का सबसे बड़ा नियोक्ता है, ख़ुद़ इस सेक्टर में लगे सफ़ाईकर्मियों की संख्या को क़ानूनी जामे में छिपा देता है। ग़ौरतलब बात यह है कि रेलवे इन सफ़ाईकर्मियों की नियुक्ति “मैला ढोने वाली श्रेणी में नहीं” बल्कि “क्लीनर” की श्रेणी के तहत करता है या फिर इस काम को ठेके पर दे देता है।