Category Archives: जातिगत उत्‍पीड़न

भाजपा के सत्ता में आने के बाद से अल्पसंख्यकों व दलितों के ख़ि‍लाफ़़ अपराधों की रफ़्तार हुई तेज़

भाजपा के आने से फासीवादी तत्वों और दलित के ख़िलाफ़़ अपराधियों को छूट मिली हुई है। आरएसएस की विचारधारा में दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के विरुद्ध नफ़रत फैलाना शामिल है। मोदी जो कि 2002 में ख़ुद फासीवादी हिंसा में मुसलमानों के क़त्लेआम में शामिल रहा था, से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? इसलिए, आज ज़रूरत है कि जितने भी उत्पीड़ित वर्ग चाहे वे अल्पसंख्यक,दलित या स्त्रियाँ हों उन्हें समूची जनता के अंग के तौर पर अपनी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए, भारत की समूची मेहनतकश जनता की पूँजीपतियों के ख़िलाफ़़ वर्गीय लड़ाई को मज़बूत बनाते हुए अपने उत्पीड़न का डटकर विरोध करना पड़ेगा।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से उपजे कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति-उन्मूलन के लिए ज़रूरी है!

रोहित के ही शब्दों में उसकी शख़्सियत, सोच और संघर्ष को उसकी तात्कालिक अस्मिता (पहचान) तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि रोहित इसके ख़िलाफ़ था, बल्कि इसलिए कि यह अन्ततः जाति उन्मूलन की लड़ाई को भयंकर नुकसान पहुँचाता है। हम आज रोहित के लिए इंसाफ़ की जो लड़ाई लड़ रहे हैं और रोहित और उसके साथी हैदराबाद विश्वविद्यालय में फासीवादी ब्राह्मणवादी ताक़तों के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ते रहे हैं वह एक राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष है। यह अस्मिताओं का संघर्ष न तो है और न ही इसे बनाया जाना चाहिए। अस्मिता की ज़मीन पर खड़े होकर यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। इसका फ़ायदा किस प्रकार मौजूदा मोदी सरकार उठा रही है इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब भाजपा व संघ गिरोह हैदराबाद विश्वविद्यालय के संघी छात्र संगठन के उस छात्र की जातिगत पहचान को लेकर गोलबन्दी कर रहे हैं, जिसकी झूठी शिकायत पर रोहित और उसके साथियों को निशाना बनाया गया। स्मृति ईरानी ने यह बयान दिया है कि उस बेचारे (!) छात्रा को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह ओबीसी है! वास्तव में, ओबीसी तो अम्बेडकरवादी राजनीति के अनुसार दलित जातियों की मित्र जातियाँ हैं और इन दोनों को मिलाकर ही ‘बहुजन समाज’ का निर्माण होता है। मगर देश में जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं पर करीबी नज़र रखने वाला कोई व्यक्ति आपको बता सकता है कि पिछले कई दशकों से हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्र से लेकर तमिलनाडु तक ग़रीब और मेहनतकश दलित जातियों की प्रमुख उत्पीड़क जातियाँ ओबीसी में गिनी जाने वाली तमाम धनिक किसान जातियाँ हैं। शूद्र जातियों और दलित जातियों की पहचान के आधार पर एकता करने की बात आज किस रूप में लागू होती है? क्या आज देश के किसी भी हिस्से में – उत्तर प्रदेश में, हरियाणा में, बिहार में, महाराष्ट्र में, आन्ध्र में, तेलंगाना में, कर्नाटक या तमिलनाडु में – जातिगत अस्मितावादी आधार पर तथाकथित ‘बहुजन समाज’ की एकता की बात करने का कोई अर्थ बनता है? यह सोचने का सवाल है।

राष्ट्रीय अनुसूचित-जाति आयोग का भी दलित-विरोधी चेहरा उजागर हुआ

दलि‍त-उत्पीड़न इस घटना का संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय अनुसूचि‍त आयोग के सदस्य ईश्वर सिंह ने गांव के दौरे के दौरान दोषि‍यों को सजा दि‍लवाने का आश्वासन दि‍या था। लेकि‍न पि‍छले डेढ़ माह की कार्रवाई के बाद एससी/एसटी आयोग का भी दलि‍त वि‍रोधी चेहरा उजागर हो गया है। पहले तो आयोग द्वारा पहली सुनवाई की तारीख को परि‍वार को देर से सूचि‍त कि‍या गया ताकि ‍पुलि‍स-प्रशासन मामले को समझौते में नि‍पटा दे जैसा कि‍प्राय: हरि‍याणा में दलि‍त उत्पीड़न की घटना में होता है। इस कारण हरि‍याण पुलि‍स बार-बार परि‍वार के बयान लेने के बहाने चक्‍कर लगवाती रही ताकि ‍परि‍वार-जन थककर मुआवजा लेकर शांत बैठ जायें। लेकि‍न परि‍वार-जन और अखि‍ल भारतीय जाति‍वि‍रोधी मंच ने ऋषि‍पाल के न्याय के संघर्ष के सख्त कदम उठाने की ठान रखी थी, इसलि‍ए पुलि‍स-प्रशासन का प्रयास असफल रहा। इसके बाद एससी/एसटी आयोग ने दूसरी सुनवाई पर परि‍वार-जन, मामले की जाँच कर रहे पुलि‍स अधि‍कारि‍यों को तलब कि‍या। परि‍वार-जन को उम्मीद थी कि देश की राजधानी के एससी/एसटी आयोग में न्याय मि‍लेगा। लेकि‍न एससी/एसटी आयोग हरि‍याणा के ईश्वर सिंह ने एकतरफा सुनवाई में परि‍वार को दोषी पुलि‍सकर्मियों पर से केस वापस लेने के लि‍ए डराया-धमकाया और मुआवज़ा वापस लेने की धौंस जमाई। आयोग के सदस्य ईश्वर सिंह की बदनीयत का इस से भी पता चलता है कि ‍उन्होंने सुनवाई में दलि‍त परि‍वार की क़ानूनी मदद के लि‍ए आये वकील को भी बाहर कर दि‍या। वैसे हरि‍याणा में वि‍पक्ष पार्टी होने के कारण कांग्रेस से जुड़े नेता ईश्वर सिंह भाणा गाँव के दौरे में लम्बी-चौडी़ बातें कर रहे थे लेकि‍न आयोग के बन्द कमरे में नेता जी ने बता दि‍या कि वह भी पुलि‍स-प्रशासन और दबंगों के साथ हैं।

हरियाणा पुलिस का दलित विरोधी चेहरा एक बार फिर बेनकाब

दलित उत्पीड़न के मामलों का समाज के सभी जातियों के इंसाफ़पसन्द लोगों को एकजुट होकर संगठित विरोध करना चाहिए। अन्य जातियों की ग़रीब आबादी को यह बात समझनी होगी की ग़रीब मेहनतकश दलितों, ग़रीब किसानों, खेतिहर मज़दूरों और समाज के तमाम ग़रीब तबके की एकजुटता और उसके अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के बूते ही हम दलित विरोधी उत्पीड़न का मुकाबला कर सकते हैं। उन्होंने कहा – सवर्ण और मँझोली जातियों की ग़रीब-मेहनतकश आबादी को इस बात को समझना होगा कि यदि हम समाज के एक तबके को दबाकर रखेंगे, उसका उत्पीड़न करेंगे तो हम खुद भी व्यवस्था द्वारा दबाये जाने और उत्पीड़न के विरुद्ध अकेले लड़ नहीं पायेंगे। और दलित जातियों की ग़रीब-मेहनतकश आबादी को भी यह बात समझनी होगी कि तमाम तरह की पहचान की राजनीति, दलितवादी राजनीति से हम दलित उत्पीड़न का मुकाबला नहीं कर सकते। दलितों का वोट की राजनीति में एक मोहरे के सामान इस्तेमाल करने वाले लोग केवल रस्मी तौर पर ही मुद्दों को उछालते हैं और उन मुद्दों का वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं। इनके लिए कार्टून महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाता है किन्तु दलित उत्पीड़न के भयंकर मामलों के समय ये बस बयान देकर अपने-अपने बिलों में दुबक जाते हैं।

दलित मुक्ति की महान परियोजना अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद करके ही आगे बढ़ सकती है

अगर पिछले 40-50 वर्षों में हुई दलित-विरोधी उत्पीड़न की घटनाओं को देखा जाये तो यह साफ़ हो जाता है कि दलितों पर अत्याचार की 10 में से 9 घटनाओं में उत्पीड़न का शिकार आम मेहनतकश दलित आबादी यानी कि ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा और शहरी ग़रीब मज़दूर दलित आबादी होती है। यह समझना आज बेहद ज़रूरी है कि जातिगत उत्पीड़न का एक वर्ग पहलू है और यह पहलू आज सबसे ज़्यादा अहम है। 90 फ़ीसदी से भी ज़्यादा दलित आबादी आज भयंकर ग़रीबी और पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण का शिकार है। गाँवों में धनी किसानों के खेतों में दलितों का ग्रामीण सर्वहारा के रूप में भयंकर शोषण किया जाता है। शहरों में ग़रीब दलित आबादी को फ़ैक्टरी मालिकों, ठेकेदारों दलालों की लूट का शिकार होना पड़ता है जो कि मेहनतकश आबादी के शरीर से ख़ून की आख़िरी बूँद तक निचोड़कर अपनी जेबें गरम करते हैं। आज मेहनतकश दलित आबादी पूँजीवादी व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के “पवित्र गठबन्धन” के हाथों शोषण का शिकार है।

भगाना काण्ड: हरियाणा के दलित उत्पीड़न के इतिहास की अगली कड़ी

रोज़-रोज़ प्रचारित किया जाने वाला हरियाणा के मुख्यमन्त्री का ‘नम्बर वन हरियाणा’ का दावा कई मायनों में सच भी है। चाहे मज़दूरों के विभिन्न मामलों को कुचलना, दबाना हो, चाहे राज्य में महिलाओं के साथ आये दिन होने वाली बलात्कार जैसी घटनाओं का मामला हो या फिर दलित उत्पीड़न का मामला हो, इन सभी में हरियाणा सरकार अपने नम्बर वन के दावे पर खरी उतरती है। उत्पीड़न के सभी मामलों में सरकारी अमला जिस काहिली और अकर्मण्यता का परिचय देता है, वह भी अद्वितीय है।

भगाणा काण्ड, मीडिया, मध्यवर्ग, सत्ता की राजनीति और न्याय-संघर्ष की चुनौतियाँ

भगाणा की दलित बच्चियों के साथ बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और ज़्यादातर अख़बारों की बेशर्म चुप्पी ज़रा भी आश्चर्यजनक नहीं है। ये अख़बार पूँजीपतियों के हैं। यूँ तो पूँजी की कोई जाति नहीं होती, लेकिन भारतीय पूँजीवाद का जाति व्यवस्था और साम्प्रदायिकता से गहरा रिश्ता है। भारतीय पूँजीवादी तन्त्र ने जाति की मध्ययुगीन बर्बरता को अपने हितों के अनुरूप बनाकर अपना लिया है। भारत के पूँजीवादी समाज में जाति संरचना और वर्गीय संरचना आज भी एक-दूसरे को अंशतः अतिच्छादित करते हैं। गाँवों और शहरों के दलितों की 85 प्रतिशत आबादी सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा है। मध्य जातियों का बड़ा हिस्सा कुलक और फ़ार्मर हैं। शहरी मध्यवर्ग का मुखर तबका (नौकरशाह, प्राध्यापक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर आदि) ज़्यादातर सवर्ण है। गाँवों में सवर्ण भूस्वामियों की पकड़ आज भी मज़बूत है, फ़र्क सिर्फ़ यह है कि ये सामन्ती भूस्वामी की जगह पूँजीवादी भूस्वामी बन गये हैं। अपने इन सामाजिक अवलम्बों के विरुद्ध पूँजीपति वर्ग क़तई नहीं जा सकता।

भगाणा काण्ड: हरियाणा में बढ़ते दलित और स्त्री उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल

हरियाणा में पिछले एक दशक में दलित और स्त्री उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। गोहाना, मिर्चपुर, झज्जर की घटनाओं के बाद पिछले 25 मार्च को हिसार जिले के भगाणा गाँव की चार दलित लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की दिल दहला देने वाली घटना घटी। इस घृणित कुकृत्य में गाँव के सरपंच के रिश्तेदार और दबंग जाट समुदाय के लोग शामिल हैं। यह घटना उन दलित परिवारों के साथ घटी है जिन्होंने इन दबंग जाटों द्वारा सामाजिक बहिष्कार की घोषणा किये जाने के बावजूद गाँव नहीं छोड़ा था, जबकि वहीं के अन्य दलित परिवार इस बहिष्कार की वजह से पिछले दो साल से गाँव के बाहर रहने पर मजबूर हैं।

चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड के आरोपियों के बेदाग बरी होने से हरे हुए जख्‍़म और कुछ चुभते-जलते बुनियादी सवाल

एक बार फिर पुरानी कहानी दुहरायी गयी। चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड के सभी आरोपी उच्‍च न्‍यायालय से सुबूतों के अभाव में बेदाग़ बरी हो गये। भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था उत्‍पी‍ड़ि‍तों के साथ जो अन्‍याय करती आयी है, उनमें एक और मामला जुड़ गया। जहाँ पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्‍यवस्‍था शोषित-उत्‍पीड़ि‍त मेहनतकशों, भूमिहीनों, दलितों (पूरे देश में दलित आबादी का बहुलांश शहरी-देहाती मज़दूर या ग़रीब किसान है) और स्त्रियों को बेरहमी से कुचल रही हो, वहाँ न्‍यायपालिका से समाज के दबंग, शक्तिशाली लोगों के खिलाफ इंसाफ की उम्‍मीद पालना व्‍यर्थ है। दबे-कुचले लोगों को इंसाफ कचहरियों से नहीं मिलता, बल्कि लड़कर लेना होता है। उत्‍पीड़न के आतंक के सहारे समाज में अपनी हैसियत बनाये रखने वाले लोगों के दिलों में जबतक संगठित जन शक्ति का आतंक नहीं पैदा किया जाता, तबतक किसी भी प्रकार की सामाजिक बर्बरता पर लगाम नहीं लगाया जा सकता।

दलित मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंक़लाब से होकर जाता है, पहचान की खोखली राजनीति से नहीं!

दलित मुक्ति की पूरी ऐतिहासिक परियोजना वास्तव में मज़दूर वर्ग की मुक्ति और फिर पूरी मानवता की मुक्ति की कम्युनिस्ट परियोजना के साथ ही मुकाम तक पहुँच सकती है। जिस समाज में आर्थिक समानता मौजूद नहीं होगी, उसमें सामाजिक और राजनीतिक समानता की सारी बातें अन्त में व्यर्थ ही सिद्ध होंगी। एक आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्यायसंगत व्यवस्था ही सामाजिक न्याय के प्रश्न को हल कर सकती है। हमें अगड़ों-पिछड़ों की, दलित-सवर्ण की और ऊँचे-नीचे की समानता या समान अवसर की बात नहीं करनी होगी; हमें इन बँटवारों को ही हमेशा के लिए ख़त्म करने के लक्ष्य पर काम करना होगा। यह लक्ष्य सिर्फ़ एक रास्ते से ही हासिल किया जा सकता है मज़दूर इंकलाब के ज़रिये समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता की स्थापना के रास्ते। जिस दलित आबादी का 97 फ़ीसदी आज भी खेतिहर, शहरी औद्योगिक मज़दूर है वह मज़दूर क्रान्ति से ही मुक्त हो सकता है। इसे सरल और सहज तर्क से समझा जा सकता है, किसी गूढ़, जटिल दार्शनिक या राजनीतिक शब्दजाल की ज़रूरत नहीं है। आज पूरी दलित अस्मितावादी राजनीति पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा करती है। ग़ैर-मुद्दों, प्रतीकवाद और रस्मवाद पर केन्द्रित अम्बेडकरवादी राजनीति आज कोई वास्तविक हक़ दिला ही नहीं सकती है क्योंकि यह वास्तविक ठोस मुद्दे उठाती ही नहीं है। उल्टे यह मज़दूर आबादी की एकता स्थापित करने की प्रक्रिया को कमज़ोर करती है और इस रूप में श्रम की ताक़त को कमज़ोर बनाती है और पूँजी की ताक़त को मज़बूत। इस राजनीति को हर क़दम पर बेनकाब करने की ज़रूरत है और दलित मुक्ति की एक ठोस, वैज्ञानिक, वास्तविक और वैज्ञानिक परियोजना पेश करने की ज़रूरत है।