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कोरोना महामारी ने खोली पूँजीवादी चिकित्सा-व्यवस्था की पोल

आज जब पूरे विश्‍व में पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था कोरोना महामारी के सामने लाचार नज़र आ रही है तो माओकालीन चीन की क्रान्तिकारी समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था एक बार फिर से प्रासंगिक हो उठती है। यह अफ़सोस की बात है कि आज चीन अपनी उस क्रान्तिकारी विरासत से कोसों दूर जा चुका है, जिसके तमाम विनाशकारी दुष्परिणामों में एक यह भी है कि आज का चीन कोविड-19 की सही समय पर शिनाख्‍़त करके उसे क़ाबू में नहीं कर सका और उसे एक विश्‍वव्‍यापी महामारी में तब्दील होने से रोक नहीं सका।

कोरोना संकट : ज़िम्मेदार कौन है? क़ीमत कौन चुका रहा है?

दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है। ये शब्‍द लिखे जाने तक 2,33,000 से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं, जिनमें से करीब 1200 मौतें भारत में हुई हैं। दुनिया में अब तक कुल 32.6 लाख लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से 10.01 लाख ठीक हो गये हैं। भारत में कुल संक्रमित लोगों की संख्‍या अब तक 35 हज़ार पार कर चुकी है, जिनमें से 8,889 लोग ठीक हुए हैं। कोरोना संक्रमण के महामारी में तब्‍दील होने के कारण दुनिया के अधिकांश देशों में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन घोषित किया गया है। आर्थिक गतिविधियाँ काफी हद तक रुक गयी हैं।

देशव्यापी लॉक डाउन में दिल्ली पुलिस का राजकीय दमन

दंगे भड़काने में जिन लोगों की स्पष्ट भूमिका थी, जिनके भड़काऊ़ बयानों के दर्जनों वीडियो हैं, अख़बारों में छपी ख़बरें हैं, ख़ुद पुलिस के अफ़सरों सहित सैकड़ों चश्मदीद गवाह हैं, उनकी गिरफ़्तारी तो दूर, उनको पूछताछ के लिए बुलाने का नोटिस भी नहीं दिया गया है। कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा, रागिनी तिवारी जैसे लोगों की ओर पुलिस की नज़र भी नहीं गयी है। जिनकी छत से हथियार लहराते लोगों के वीडियो हैं उनसे पुलिस पूछने भी नहीं गयी है। जो लोग अनेक वीडियो में हिंसा करते नज़र आ रहे हैं उनकी पहचान करके पूछताछ करना पुलिस के “स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोटोकॉल” में नहीं आता है जिसकी दुहाई दिल्ली पुलिस के आला अफ़सर दे रहे हें।

सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी जनान्दोलन को हिन्दुत्व फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन की शक्ल दो!

दिल्ली चुनावों के बाद भाजपा सरकार के फ़ासीवादी हमले और भी तेज़ हो गये हैं। ऐसी ही उम्मीद भी थी। 8 फ़रवरी के बाद कुछ ही दिनों के भीतर दिल्ली में सरकारी मशीनरी की पूरी मिलीभगत के साथ मुसलमानों पर किये गये फ़ासीवादी हमले और दंगे के ज़रिये देश भर में नये सिरे से धार्मिक ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया गया है।

कोरोना वायरस और भारत की बीमार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ

आज नोवल कोरोना वायरस (SARS CoV 2) ने पूरे विश्व में कहर बरपा रखा है। चीन के वुहान शहर में पहली बार सामने आया यह वायरस “कोरोना वायरस बीमारी 19” (COVID 19) नाम की बीमारी करता है। चीन से दक्षिण कोरिया, इटली समेत पूरे यूरोप और अमेरिका होता हुआ यह वायरस अब भारत में भी आ धमका है। पिछले साल 17 नवम्बर को इसका पहला केस सामने आया था। उसके बाद से अब तक पूरी दुनिया में 1 लाख 45 हज़ार से ज़्यादा केस सामने आ चुके हैं, जिनमें से 5000 से ज़्यादा लोगों की मृत्यु हो चुकी है। मरने वालों में ज़्यादातर लोग चीन के हैं और ज़्यादातर वे हैं जो या तो 60 साल से ज़्यादा आयु के थे या फिर जिनको कोई गम्भीर बीमारी जैसे डायबिटीज़, टीबी, हृदय रोग या श्वास रोग पहले से थे।

असम में आप्रवासन : मज़दूर वर्गीय दृष्टिकोण

नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के ख़िलाफ़ देशभर में सबसे उग्र विरोध असम में हो रहा है। लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि असम में यह विरोध सीएए के साम्प्रदायिक व ग़ैरजनवादी स्वरूप की वजह से नहीं हो रहा है। यह विरोध इस आधार पर नहीं हो रहा है कि सीएए में मुस्लिमों को नहीं शामिल किया गया है, बल्कि इस आधार पर हो रहा है कि सीएए असम समझौते के ख़िलाफ़ जाता है जिसमें असम में 1971 के बाद आये सभी आप्रवासियों को खदेड़ने की बात कही गयी थी। इसलिए असम में चल रहे इन विरोध-प्रदर्शनों का अनालोचनात्मक महिमामण्डन करने की बजाय इसके पीछे की राजनीति और विचार को समझने की ज़रूरत है और उसके लिए हमें असम में आप्रवासन के इतिहास को समझना होगा।

हमारे आन्‍दोलन को संविधान-रक्षा के नारे और स्‍वत:स्‍फूर्ततावाद से आगे, बहुत आगे, जाने की ज़रूरत क्‍यों है?

1970 के दशक के बाद के प्रचण्‍ड जनान्‍दोलन के बाद नागरिकता संशोधन कानून, राष्‍ट्रीय नागरिकता रजिस्‍टर, व राष्‍ट्रीय जनसंख्‍या रजिस्‍टर के खिलाफ देश भर में खड़ा हुआ आन्‍दोलन सम्‍भवत: सबसे बड़ा आन्‍दोलन है। अगर अभी इस पहलू को छोड़ दें कि इन दोनों ही आन्‍दोलनों में क्रान्तिकारी नेतृत्‍व की समस्‍या का समाधान नहीं हो सका था, तो भी यह स्‍पष्‍ट है कि क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्‍व के उभरने की सूरत में इन आन्‍दोलन में ज़बर्दस्‍त क्रान्तिकारी जनवादी और प्रगतिशील सम्‍भावनासम्‍पन्‍नता होगी। 1970 के दशक के आन्‍दोलन में एक सशक्‍त क्रान्तिकारी धारा के मौजूद होने के बावजूद, क्रान्तिकारी शक्तियां ग़लत कार्यक्रम, रणनीति और आम रणकौशल के कारण आन्‍दोलन के नेतृत्‍व को अपने हाथों में नहीं ले सकीं थीं और नेतृत्‍व और पहलकदमी जयप्रकाश नारायण के हाथों में चली गयी, जिसने इस जनउभार में अभिव्‍यक्‍त हो रहे क्रान्तिकारी गुस्‍से और जनअसन्‍तोष को मौजूदा व्‍यवस्‍था के दायरे के भीतर ही सीमित कर दिया, हालांकि काफी आमूलगामी जुमलों का शोर पैदा करते हुए। यानी वही काम जो प्रेशर कुकर में सेफ्टी वॉल्‍व करता है।

बच्चों को ज़हरीले प्रचार के नशे में पागल हत्यारे बनाने का संघी प्रोजेक्ट

फ़ासिस्ट प्रचार की ज़हरीली ख़ुराक पर लम्बे समय तक पलकर तैयार हुए दो पगलाये हुए नौजवानों ने दिल्‍ली में शान्ति से प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियाँ चलायीं। जगह-जगह ऐसे ही नफ़रत से पागल नौजवानों की भीड़ इकट्ठा करके “गोली मारो सालों को” के नारे लगवाये जा रहे हैं। पुलिस चुपचाप तमाशा देख रही है और फिर उन हमलावरों को बेशर्मी के साथ बचाने में जुट जा रही है।

संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ने के साथ-साथ संविधान के बारे में कुछ अहम सवाल

आज फ़ासिस्ट इस देश के संविधान को भी व्यवहारतः ताक पर रखकर हमारे अतिसीमित, रहे-सहे जनवादी अधिकारों पर भी डाका डाल रहे हैं और देश में लाखों-लाख लोग इन संवैधानिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए सड़कों पर उतर कर लड़ रहे हैं। ऐसे में तय ही है कि हम उन अधिकारों के लिए अवाम के साथ मिलकर लड़ेंगे और फ़ासिस्टों को बेनक़ाब करने के लिए संविधान का हवाला भी देंगे, लेकिन इस प्रक्रिया में संविधान को जनवाद की “पवित्र पुस्तक” या “होली बाइबिल” कत्तई नहीं बनाया जाना चाहिए, इसका आदर्शीकरण या महिमामण्डन करना एक भयंकर अनैतिहासिक और आत्मघाती ग़लती होगी।

सरकार की धोखेबाज़ी से सावधान! एनपीआर ही एनआरसी है!

पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी), राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के विरोध में चल रहे तूफ़ानी आन्दोलन के कारण, मोदी-शाह की जोड़ी और सरकार में खलबली मची हुई है। सत्ताधारी लोग गिरगिट की तरह रंग बदल रहे हैं। गृहमन्त्राी अमित शाह ने बार-बार कहा, ‘आप क्रोनोलॉजी समझिये, पहले सीएए आयेगा, फि‍र एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जायेगा!’ इसके जवाब में शाहीन बाग, दिल्ली की बहादुर औरतों ने एक ऐसा आन्दोलन खड़ा किया जो देश भर में संघर्ष की मिसाल बन गया। थोड़े समय में ही देश में 50 से भी ज़्यादा जगहों पर शाहीन बाग जैसे ही दिनो-रात चलने वाले धरने शुरू हो गये। छोटे क़स्बों से लेकर बड़े महानगरों तक पिछले डेढ़ महीने से लाखों लोग लगातार सड़कों पर हैं।