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फ़रीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र की एक आरम्भिक रिपोर्ट

आज़ादी के बाद 1949 से फ़रीदाबाद को एक औद्योगिक शहर की तरह विकसित करने का काम किया गया। भारत-पाकिस्तान बँटवारे के समय शरणाथिर्यों को यहाँ बसाया गया था। उस दौर से ही यहाँ छोटे उद्योग-धन्धे विकसित हो रहे थे। जल्द ही यहाँ बड़े उद्योगों की भी स्थापना हुई और 1950 के दशक से इसका औद्योगीकरण और तीव्र विकास आरम्भ हुआ। मुग़ल सल्तनत के काल से ही फ़रीदाबाद दिल्ली व आगरा के बीच एक छोटा शहर हुआ करता था। आज की बात की जाये तो फ़रीदाबाद देश के बड़े औद्योगिक शहरों में नौवें स्थान पर है। फ़रीदाबाद में 8000 के क़रीब छोटी-बड़ी पंजीकृत कम्पनियाँ हैं।

कोयले की कमी और बिजली संकट : साज़िश नहीं बल्कि पूँजीवाद में निहित अराजकता का नतीजा है

अक्टूबर के दूसरे हफ़्ते से मीडिया में कोयले की कमी की वजह से बिजली के संकट की ख़बरें आना शुरू हो गयी थीं। उसके बाद दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बिजली के सम्भावित संकट पर सार्वजनिक बयान दिया। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को इस संकट से निपटने के लिए विशेष बैठकें बुलानी पड़ीं। उसके बाद कोल इण्डिया को निर्देश दिया गया कि अन्य क्षेत्रों को कोयले की आपूर्ति रोककर पूरे कोयले को बिजली उत्पादन में लगाया जाये। कोयला और बिजली के क्षेत्र से जुड़े तमाम विशेषज्ञ पहले से ही इस संकट के बारे में सरकार को आगाह कर रहे थे और इसके कारणों की चर्चा कर रहे थे।

अम्बेडकरनगर की जर्जर चिकित्सा व्यवस्था हर साल बनती है सैकड़ों मौतों की वजह

आज़ादी के सात दशक से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। इन वर्षों में तमाम चुनावबाज़ पार्टियाँ सत्ता में आ चुकी हैं और सभी ने अपनी और अपने आक़ाओं – बड़े-बड़े अमीरज़ादों की तिजोरियाँ भरने का काम किया है। हर बार नये-नये नारों और वायदों के बीच हमारी असली समस्याओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार, मज़दूरी आदि को ग़ायब कर दिया जाता है और जाति-धर्म का खेल खेला जाता है। केन्द्र और राज्य की सत्ता में बैठी फ़ासीवादी भाजपा कभी राष्ट्रवाद का जुमला उछालकर तो कभी रामराज्य के नाम पर वोट वैंक की राजनीति करती है।

वज़ीरपुर के मज़दूर आन्‍दोलन को पुन: संगठित करने की चुनौतियाँ

22 अगस्त को सी-60/3 फ़ैक्टरी में पॉलिश के कारख़ाने में छत गिरने से एक मज़दूर की मौत हो गयी। सोनू नाम का यह मज़दूर वज़ीरपुर की झुग्गियों में रहता था। मलबे के नीचे दबने के कारण सोनू की तत्काल मौत हो गयी, हादसा होने के बाद फ़ैक्टरी पर पुलिस पहुँची और पोस्टमार्टम के लिए मज़दूर के मृत शरीर को बाबू जगजीवन राम अस्पताल में ले गयी। मुनाफ़े की हवस में पगलाये मालिक की फ़ैक्टरी को जर्जर भवन में चलाने के कारण एक बार फिर एक और मज़दूर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

भारत में ट्रेड यूनियन अधिकार सम्बन्धी क़ानून: एक मज़दूर वर्गीय समीक्षा

हमारे देश में कहने के लिए तो मज़दूरों के लिए दर्जनों केन्द्रीय और सैकड़ों राज्य श्रम क़ानून काग़ज़ों पर मौजूद हैं पर तमाम कारख़ानों-खेतों खलिहानों में काम करने वाले करोड़ों श्रमिक अपनी जीवन स्थितियों से जानते और समझते हैं कि इन क़ानूनों की वास्तविकता क्या है और हक़ीक़त में ये कितना लागू होते हैं। देश के असंगठित-अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत मज़दूर आबादी तो वैसे भी इन तमाम क़ानूनों के दायरे में बिरले ही आती है। वहीं औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठित कामगारों-कर्मचारियों के तबक़े को भी इस क़ानूनी संरक्षण के दायरे से बाहर करने की क़वायदें तेज़ हो रही हैं। बावजूद इसके इन श्रम क़ानूनों के वास्तविक चरित्र की चर्चा कम ही होती है।

नहीं रहे कॉमरेड रामनाथ! अलविदा कॉमरेड! लाल सलाम!!

कॉमरेड रामनाथ नहीं रहे। 31 अगस्त को तड़के ही सोते समय दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
कॉमरेड रामनाथ की आयु लगभग 83 वर्ष की थी। अस्वस्थ तो वे विगत कई वर्षों से थे लेकिन पिछले कुछ समय से उनका स्वास्थ्य बहुत ख़राब हो गया था। भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास का. रामनाथ की भूमिका और अवदानों की चर्चा के बग़ैर लिखा ही नहीं जा सकता। निस्सन्देह उनकी भूमिका ऐतिहासिक थी और ‘पाथब्रेकिंग’ थी।

असम-मिज़ोरम विवाद के मूल कारण क्या हैं?

हाल में भारत के दो उत्तर-पूर्वी राज्य असम-मिज़ोरम के बीच सीमा-विवाद से जुड़ा हुआ घटनाक्रम काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा। उत्तर-पूर्व का नाम सुनकर हममें से कुछ को लग सकता है कि इतनी दूर-दराज़ की घटना से हम मज़दूरों-मेहनतकशों का सरोकार भला क्यों होना चाहिए! इसलिए होना चाहिए क्योंकि यह भी मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति को समझने और जानने के लिए आवश्यक है। किसी भी रूप में दबायी जा रही या उत्पीड़‍ित हो रही जनता और उसकी समस्याओं और संघर्षों से सरोकार रखे बिना मज़दूर वर्ग व्यापक मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी एकता क़ायम नहीं कर सकता है।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीस वर्ष

देश में एक ओर बढ़ता धार्मिक उन्माद, नफ़रत और ख़ौफ़ का माहौल और दूसरी ओर आसमान छूती महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बदहाली, ऐसा लगता है जैसे पूरे देश को क्षय रोग ने अपने शिकंजे में कस लिया है। सारी ऊर्जा, ताज़गी और रचनात्मकता पोर-पोर से निचोड़कर इसे पस्त और बेहाल कर दिया है। यह सच है कि भयंकर आर्थिक संकट के काल में जनता के आक्रोश को साम्प्रदायिकता की दिशा में मोड़ने और पूँजीपतियों का हित साधने के लिए फ़ासीवाद का उभार होता है लेकिन ऐसा नहीं है कि फ़ासीवादियों के सत्ता में आने से पहले सब कुछ भला-चंगा था।

टोक्यो ओलम्पिक में भारत का प्रदर्शन: एक समीक्षा

अगस्त महीने में टोक्यो ओलम्पिक खेलों का समापन हुआ और भारत को इस बार एक स्वर्ण, दो रजत और चार काँस्य पदक मिले हैं। इस प्रकार कुल पदकों की संख्या सात रही है। हर छोटी से छोटी उपलब्धि की तरह मोदी जी इस बार भी मौक़े पर चौका मारने के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। गोदी मीडिया, आईटी सेल और अन्य सभी प्रचार तंत्रों का इस्तेमाल कर मोदी जी देशवासियों के सामने ऐसा स्वांग रच रहे हैं कि देखने वाले को लगता है जैसे मोदी जी ख़ुद ही सातों पदक जीत कर आये हैं! ख़ैर इन लफ़्फ़ाज़ियों और ढोंग को एक किनारे कर ओलम्पिक खेलों में भारत के प्रदर्शन की एक वस्तुपरक समीक्षा करने की ज़रूरत है।

उत्तर प्रदेश जनसंख्या विधेयक, 2021 – जनता के जनवादी अधिकारों पर फ़ासीवादी हमला

उत्तर प्रदेश कोरोना महामारी की रोकथाम और इलाज में देश में सबसे फिसड्डी राज्यों में साबित हुआ है। लोग दवा-अस्पताल और आक्सीजन के अभाव में दम तोड़ते रहे, लाशें नदियों में बहती रहीं और बालू में दबायी जाती रहीं और सरकार सिर्फ़ झूठे दावों और जुमलेबाज़ी में लगी रही। लाखों ज़िन्दगियों को तबाह कर देने के बावजूद आज तक कोई ठोस तैयारी नहीं की गयी है जबकि महामारी की तीसरी लहर सिर पर है। प्रदेश में बेरोज़गारी के हालात भयानक हो चुके हैं।