जब एक हारी हुई लड़ाई ने जगाई मजदूरों में उम्मीद और हौसले की लौ…
इस छोटे से संघर्ष ने ही यह दिखा दिया कि हमारे देश में लोकतन्त्र की असलियत क्या है! मजदूरों को उनके हक से वंचित करने के लिए मिल मालिक ने साम-दाम-दण्ड-भेद की हर चाल चली। पहले ही दिन जब 4 अक्टूबर की शाम को मजदूर आन्दोलन की नोटिस देने के लिए शाहाबाद डेयरी थाने में गये तो मालिक के इशारे पर वहाँ पहले से तैयार पुलिस वालों ने उन पर हमला किया और सभी मजदूरों तथा साथ गये ‘बिगुल मजदूर दस्ता’ के दो साथियों को बुरी तरह पीटा। लेकिन जब मजदूर अपनी बात पर अड़े रहे तो आखिरकार पुलिस को नोटिस स्वीकार करना पड़ा। इसके बाद भी लगभग हर दिन धरना स्थल पर पुलिस के लोग आकर मजदूरों को डराने-धमकाने की कोशिश करते थे, लेकिन मजदूरों की एकजुटता के आगे उनकी एक न चली। मजदूरों ने 5 अक्टूबर को धरने पर बैठने से पहले ही डी.एल.सी. कार्यालय में ज्ञापन देकर सारी स्थिति से उन्हें अवगत करा दिया था लेकिन श्रम विभाग के अधिकारी केवल काग़जी कार्रवाई ही करते रहे। 8 अक्टूबर को उपश्रमायुक्त (डीएलसी) के कार्यालय में मालिक के साथ वार्ता रखी गयी थी, लेकिन मालिक ने चिट्ठी भिजवा दी कि ये मजदूर उसके कर्मचारी ही नहीं हैं, जबकि ये मजदूर 3 से 6 साल तक से उस मालिक के लिए काम रहे हैं। इन मजदूरों की कमरतोड़ मेहनत के दम पर मालिक ने करोड़ों का मुनाफा बटोरा है, लेकिन मजदूरों को उनका थोड़ा-सा जायज हक देने से बचने के लिए उसने एक मिनट में उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया।