ग़द्दार भितरघातियों के विरुद्ध गोरखपुर के मज़दूरों का क़ामयाब संघर्ष
मज़दूर आन्दोलन में इस क़िस्म का भितरघात कोई नयी बात नहीं है। यह पहले भी होता रहा है और आगे भी इसकी सम्भावनाएँ बनी रहेंगी। दरअसल आम मज़दूरों का दब्बूपन और संकीर्ण स्वार्थों में डूबे रहना ऐसे ग़द्दारों के लिए अनुकूल हालात पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। कई मज़दूरों में यह मनोवृत्ति काम करती है कि संगठन और आन्दोलन का काम नेताओं की ज़िम्मेदारी है। कभी-कभी वे नेताओं को ऐसे मोहरों की तरह देखने लगते है जिन्हें लड़ाकर मालिकों से ज़्यादा से ज़्यादा सुविधाएँ हासिल की जा सकें। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अर्थव्यवस्था, राजनीति, इतिहास और मज़दूर आन्दोलन के अनुभवों की जानकारी न होने के कारण मज़दूरों को उन सम्बन्धों को समझने में कठिनाई होती होती है जो कि कारख़ानेदार, स्थानीय प्रशासन, नेताशाही तथा सरकारों के बीच परदे के पीछे काम कर रहे होते हैं। उन्हें लगता है कि यूनियन बना लेने मात्र से ही उनके सारे कष्ट मिट जायेंगे। लेकिन हक़ीकत इसके ठीक उलट है। जैसे ही मज़दूर ट्रेड यूनियन में क्रान्तिकारी ढंग से संगठित होने का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करने लगते हैं वैसे ही कारख़ानेदार तथा सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें सबसे पहले उन्हें पतित तथा भ्रष्ट करने का काम करने में जुट जाती हैं। असफल हो जाने पर वे अन्य तरीकों से उनके संगठन को तोड़ने की योजनाएँ बनाने लगते हैं। आज बरगदवा के मज़दूरों के साथ भी यही हो रहा है। भविष्य इस पर निर्भर है कि व्यापक मज़दूर आबादी अपनी मुक्ति की विचारधारा को किस हद तक समझ पाती है।