Category Archives: विरासत

तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के 75 साल उपलब्धियाँ और सबक़ (दूसरी व अन्तिम क़िस्त)

पिछली क़िस्त में हमने देखा कि किस प्रकार 1940 के दशक की शुरुआत में हैदराबाद के निज़ाम की सामन्ती रियासत में आने वाले तेलंगाना के जागीरदारों और भूस्वामियों द्वारा किसानों के ज़बर्दस्त शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध शुरू हुआ आन्दोलन 1946 की गर्मियों तक आते-आते सामन्तों के ख़िलाफ़ एक सशस्त्र विद्रोह में तब्दील हो गया। निज़ाम की सेना और रज़ाकारों द्वारा इस विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचलने की सारी कोशिशें विफल साबित हुईंं।

तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष के 75 साल उपलब्धियाँ और सबक़ (पहली क़िस्त)

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चले तेलंगाना किसान सशस्त्र संघर्ष (तेलुगु में ‘तेलंगाना रैतुंगा सायुध पोराटम’) की शानदार विरासत को भारत के हुक्मरानों द्वारा साज़िशाना ढंग से छिपा देने की वजह से देश के अन्य हिस्सों में आमजन तेलंगाना के किसानों और मेहनतकशों की इस बहादुराना बग़ावत से अनजान हैं, हालाँकि तेलंगाना में यह शौर्यगाथा लोकसंस्कृति के तमाम रूपों में जनमानस के बीच आज भी ज़िन्दा है।

मई दिवस की कहानी

मज़दूरों का त्योहार मई दिवस आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों के शानदार आन्दोलन से पैदा हुआ। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर 16-18 घण्टे तक खटते थे। कई देशों में काम के घण्टों का कोई नियम ही नहीं था। “सूरज उगने से लेकर रात होने तक” मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे। दुनियाभर में इस माँग को लेकर अलग-अलग आन्दोलन होते रहे थे। भारत में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस माँग पर कामबन्दी की थी। लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई।

अपने-अपने मार्क्स

हर साल की तरह इस साल भी कार्ल मार्क्स के 203वें जन्मदिवस के अवसर पर बहुत सारे बुर्जुआ लिबरल्स, सोशल डेमोक्रेट्स और संसदीय जड़वामन वामपन्थियों ने भी उन्हें बहुत याद किया और भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दीं। इन सबके अपने-अपने मार्क्स हैं जो वास्तविक मार्क्स से एकदम अलग हैं।

नाज़ी-विरोधी योद्धा सोफ़ी शोल की 100वीं जन्मतिथि के अवसर पर

हिटलर और उसके नाज़ी शासन ने लाखों यहूदियों को तो मौत के घाट उतारा ही था, उसके बर्बर शासन के विरुद्ध लड़ने वाले, किसी भी रूप में उसका विरोध करने वाले 77 हज़ार अन्य जर्मन नागरिकों की भी हत्या की थी। इन नाज़ी-विरोधी योद्धाओं को फ़ौजी अदालतों और तथाकथित ‘जन न्यायालयों’ में मुक़दमे के नाटक के बाद गोली से उड़ा दिया गया या मध्ययुगीन बर्बर गिलोतीन से गर्दन काटकर मौत की सज़ा दी गयी। इन्हीं में से एक नाम था सोफ़ी शोल का जिसे 22 साल की उम्र में गिलोतीन से मार दिया दिया। उसके साथ उसके भाई हान्स शोल और साथी क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट को भी गिलोतीन पर चढ़ा दिया गया।

क्रेमलिन में एक मुलाक़ात

लेनिन अपने पतलून की जेबों में हाथ खोंसे खड़े थे। दो खिड़कियों और ऊँची, मेहराबी छत वाला यह कमरा बहुत ठण्डा और नम था। जाड़े के अन्तिम सप्ताहों में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। व्लादीमिर इल्यीच गोलों से छलनी बने शस्त्रागार, क्रेमलिन दीवार के एक हिस्से और बैरक़ों को देख सकते थे। त्रोइत्स्काया मीनार जिसके शिखर पर एक विशाल उकाब धुँधले आकाश की पृष्ठभूमि पर साफ़ नज़र आता था, यहाँ से उतनी बड़ी नहीं लगती थी, जितनी कि मानेज की ओर से। चौक में, जिसमें छोटी और गोल बटियों के जहाँ-तहाँ धँस जाने से गड्ढे बन गये थे, खूँटी की तरह मुड़े हुए तिनकों जैसी बत्तियों की पंक्ति शस्त्रागार से निकोल्स्काया मीनार तक फैली हुई थी।

मज़दूर वर्ग की मुक्ति का दर्शन देने वाले महान क्रान्तिकारी चिन्तक कार्ल मार्क्स के स्मृति दिवस (14 मार्च) के अवसर पर

बुर्जुआ वर्ग ने ऐसे हथियारों को ही नहीं गढ़ा है जो उसका अन्त कर देंगे, बल्कि उसने ऐसे लोगों को भी पैदा किया है जो इन हथियारों का इस्तेमाल करेंगे – आधुनिक मज़दूर वर्ग – सर्वहारा वर्ग।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के 90वें शहादत दिवस (23 मार्च) के अवसर पर

‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ क्रान्तिकारियों के लिए महज़ एक भावनात्मक रणघोष नहीं था बल्कि एक उदात्त आदर्श था जिसकी व्याख्या हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) ने इस रूप में की:
“क्रान्ति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। …उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा।”

प्रथम स्त्री शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस पर जातितोड़क भोजों का आयोजन

जाति व्यवस्था को इतिहास में हर शासक वर्ग ने अपने तरीक से इस्तेमाल करने का काम किया है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ने भी जाति प्रथा को अपने ढाँचे के साथ सहयोजित कर लिया है। पूँजीवादी चुनावी राजनीति भी जाति व्यवस्था के पूरे ढाँचे को बना कर रखने का काम करती रही है और यह मौजूदा पूँजीवादी जाति व्यवस्था मेहनतकश वर्ग की क्रान्तिकारी लामबन्दी को कमजोर करने का काम करती है। आज निरन्तर ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन की ज़रूरत है जो जाति व्यवस्था को तोड़कर मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी लामबन्दी कायम कर सकें। इसी के तहत नौजवान भारत सभा द्वारा सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस पर जगह-जगह जाति तोड़क भोज, चर्चा और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।

हमारा आन्दोलन दबाया नहीं जा सकता

…मण्डली की बैठक नेवा पार के इलाक़े में मैकेनिकल फ़ैक्टरी के फ़िटर इवान बाबुश्किन के घर में हो रही थी। नेवा के पार बहुत-से कारख़ाने और फ़ैक्टरियाँ थीं। सुबह अभी झुटपुटा ही होता था कि उनके भोंप गूँजने लगते। मज़दूर मुँह अँधेरे ही काम के लिए चल पड़ते और रात होने पर घर लौटते। सूरज कभी देखने को न मिलता। कितना अन्धकारपूर्ण जीवन था! पर हमेशा तो ऐसे नहीं रहा जा सकता था!
मज़दूर पुलिस से छिपकर फ़िटर बाबुश्किन के घर में इकट्ठा होते और अपनी स्थिति पर विचार करते।