Category Archives: साम्राज्‍यवाद

ताइवान को लेकर अमेरिका व चीन के बीच तेज़ होती अन्तर-साम्राज्यवादी होड़

विश्व पूँजीवाद के अन्तरविरोध दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तीखे रूप में प्रकट हो रहे हैं। अन्तर-साम्राज्यवादी होड़ के नतीजे के रूप में यूक्रेन में शुरू हुआ युद्ध अभी तक जारी है। इसी बीच 3 अगस्त 2022 को अमेरिकी संसद के हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने अपनी दक्षिण पूर्व एशिया की यात्रा के दौरान ताइवान की राजधानी ताइपेई का भी दौरा किया जिसके बाद से वैश्विक राजनीति में उथल-पुथल मच गयी। दरअसल चीन ताइवान को एतिहासिक तौर पर अपना हिस्सा मानता है और उसका देर-सबेर चीन के साथ विलय होना निश्चित मानता है।

अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाकर सामूहिक हत्याएँ : अमेरिकी समाज की गम्भीर मनोरुग्णता का एक लक्षण

अमेरिकी बुर्जुआ समाज, बीमार, सचमुच बेहद बीमार है। बुर्जुआ सभ्यता और भौतिक प्रगति का यह बहुप्रचारित, लकदक चमक-दमक वाला मॉडल अन्दर से सड़ चुका है। अमेरिकी बुर्जुआ सभ्यता मानवीय सारतत्व से रिक्त और खोखली हो चुकी है। अमेरिकी बुर्जुआ समाज समृद्धि के शिखर पर बैठा हुआ भविष्यहीनता के अवसाद और आतंक में डूबा हुआ है। अमेरिकी “श्रेष्ठता” की खोखली उल्लास व उन्माद-भरी चीख़ों के पीछे दुनियाभर के युद्धों, रक्तपातों, नरसंहारों का अपराधबोध सामूहिक मानस में पार्श्व-संगीत की तरह लगातार बज रहा है।

यूक्रेन में जारी साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध करो!

दो साम्राज्यवादी ख़ेमों की आपसी प्रतिस्पर्धा की क़ीमत विश्व की आम जनता एक बार फिर चुका रही है। एक ओर साम्राज्यवादी रूस और दूसरी ओर साम्राज्यवादी अमेरिका के नेतृत्व में नाटो (उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन)। इन दोनों साम्राज्यवादी ख़ेमों की आपसी प्रतिस्पर्धा में यूक्रेन की जनता युद्ध की भयंकर आग में झुलस रही है। 24 फ़रवरी को साम्राज्यवादी रूस ने यूक्रेन पर युद्ध की घोषणा कर दी। इस घोषणा ने रूस और अमेरिका के नेतृत्व में नाटो के बीच महीनों से चल रहे वाकयुद्ध को वास्तविक युद्ध में बदल दिया है, हालाँकि नाटो इस युद्ध से किनारे हो गया है और यूक्रेन की जनता पर रूसी साम्राज्यवाद को क़हर बरपा करने के लिए खुला हाथ दे दिया है।

महामारी के दौर में भी यूक्रेन और ताइवान में बजाये जा रहे युद्ध के नगाड़े

हाल के महीनो में कोरोना वायरस की नयी क़िस्म ओमिक्रॉन के दुनियाभर में फैलने की ख़बर सुर्ख़ियों में रही। ऐसे में किसी मानवीय व्यवस्था में यह उम्मीद की जाती कि दुनिया के तमाम देश एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए इस वैश्विक महामारी से निपटने में अपनी ऊर्जा ख़र्च करते। लेकिन हम एक साम्राज्यवादी दुनिया में रह रहे हैं। इसलिए इसमें बिल्कुल भी हैरत की बात नहीं है कि वैश्विक महामारी के बीच, एक ओर यूक्रेन में, तो दूसरी ओर ताईवान में युद्ध के नगाड़ों का कानफाड़ू शोरगुल लगातार बढ़ता जा रहा है।

क्यूबा में साम्राज्यवादी दख़ल का विरोध करो!

जुलाई से ही क्यूबा में विपक्ष के नेताओं के आह्वान पर हज़ारों लोगों के सड़कों पर उतरने की ख़बरें आ रही हैं। बिजली कटौती, खाद्य सामग्री का महँगा होना व कोरोना के नये संस्करण के चलते बीमारी का फैलना प्रमुख कारण थे जिनके ख़िलाफ़ आम जनता में रोष है। परन्तु जब इसके साथ ही अमेरिका के सारे मीडिया चैनल और अख़बार ‘क्यूबा की मदद करो’ और इन आन्दोलनों को ‘जनवाद की बहाली’ बताने का आन्दोलन बताने लगते हैं तो समझ में आता है कि दाल में कुछ काला है!

तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के बदतर हालात

बीते 15 अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर क़ब्‍ज़ा करने के बाद से अफ़ग़ानिस्‍तान में अफ़रा-तफ़री का आलम है। अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्‍तान से अपनी सेना वापस बुलाने के फ़ैसले के बाद यह तो तय था कि वहाँ की सत्ता पर देर-सबेर तालिबान का क़ब्‍ज़ा हो जायेगा, लेकिन यह इतना जल्दी हो जायेगा, इसका अनुमान किसी को भी नहीं था। यही वजह है कि तालिबान के क़ब्‍ज़े की ख़बर सुनते ही हज़ारों की संख्या में काबुलवासी बदहवासी में देश छोड़ने के लिए काबुल के एयरपोर्ट पर जमा होने लगे। काबुल एयरपोर्ट पर क़रीब 15 दिनों तक अफ़रा-तफ़री का माहौल रहा।

बीस साल से जारी युद्ध में तबाही के बाद अफ़ग़ानिस्तान गृहयुद्ध की ओर

अमेरिका की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी बीस साल से जारी युद्ध में तबाही के बाद अफ़ग़ानिस्तान गृहयुद्ध की ओर – आनन्‍द सिंह ‘आतंक के ख़ि‍लाफ़ युद्ध’ के नाम पर दो दशक…

भारत-अमेरिका रक्षा समझौता देश की सम्प्रभुता और सामरिक आत्मनिर्णय से समझौता है!

निशाना लगाते समय हमें अमेरिकी उपग्रह और उसके सैन्य संचालकों का सहारा लेना होगा और उन्हीं के माध्यम से भारत को एन्क्रिप्टेड डेटा प्राप्त होगा। यानी अगर भारत को किसी पर निशाना लगाना है तो उसके लिए भी अमेरिका की सहमति आवश्यक होगी। कुल मिलाकर भारतीय सैन्य तंत्र का ढाँचा और युद्ध सामग्री अमेरिका की निगरानी में चली जायेगी। और ये बिल्कुल सम्भव है कि अमेरिका भारत के किसी सैन्य निर्णय को आसानी से प्रभावित कर सके। यह किसी भी सूरत में एक सम्प्रभु राष्ट्र के लिए और उसके सामरिक आत्मनिर्णय के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है।

प्रधानमंत्री अमेरिका जाकर घोषणा कर रहे हैं कि ‘भारत में सब चंगा सी!’ पर आम मेहनतकश जनता पर मन्दी की मार तेज़ होती जा रही है

मोदी सरकार और पूरा बिका हुआ पूँजीवादी मीडिया फ़र्ज़ी आँकड़ों और झूठे दावों का चाहे जितना धुआँ छोड़ ले, लगातार गहराते आर्थिक संकट को ढाँक-तोप कर रखना अब उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। एक तरफ़ रोज़ होते खुलासे उनके झूठ के ग़ुब्बारे को पंचर कर दे रहे हैं और दूसरी तरफ़ आम लोगों के जीवन पर बेरोज़गारी, महँगाई, क़दम-क़दम पर सरकारी और निजी कम्पनियों की बढ़ती लूट और डूबते पैसों की जो मार पड़ रही है वह उन्हें असलियत का अहसास करा रही है। इसी कड़वी सच्चाई से ध्यान भटकाने के लिए फ़र्ज़ी देशभक्ति के नगाड़े ख़ूब पीटे जा रहे हैं। हक़ीक़त यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था पूरे विश्व में चरमरा रही है और वैश्विक आर्थिक मन्दी के मौजूदा दौर ने दुनिया के लगभग सभी देशों को चपेट में ले लिया है। भारत में फ़ासिस्ट मोदी सरकार की कारगुज़ारियों ने इस संकट को और भी गम्भीर बना दिया है। ‘मज़दूर बिगुल’ में हम लगातार इस आर्थिक संकट के अलग-अलग पहलुओं और इसके कारणों पर लिखते रहे हैं। इस लेख में गहराते आर्थिक संकट की तीन बड़ी अभिव्यक्तियों की पड़ताल की गयी है।

कश्मीर के मुद्दे पर सोचने के लिए कुछ बेहद ज़रूरी सवाल – क्‍या किसी क़ौम को ग़ुुलाम बनाने की हिमायत करके हम आज़ाद रह सकते हैं?

सच्चे मज़दूर क्रान्तिकारियों को हर कीमत पर हर प्रकार के राष्ट्रीय दमन का विरोध करना चाहिए और दमित राष्ट्रों के संघर्षों का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए। यदि मज़दूर वर्ग की ताक़तें ऐसा करने में असफल होती हैं और जाने या अनजाने अपने देश के पूँजीपति वर्ग के मुखर या मौन समर्थन की राष्ट्रीय व सामाजिक कट्टरपंथी अवस्थिति अपनाती हैं, तो वह अपने देश के पूँजीपति वर्ग को स्वयं अपना दमन करने का भी लाईसेंस और वैधीकरण प्रदान करती हैं। ऐसी कुछ ताक़तें भारत में भी हैं जिन्होंने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के रद्द होने के बाद ज़ुबान पर ताला लगा लिया है और कश्मीर के मसले पर कुछ भी बोलने से घबरा गयी हैं। ऐसे ग्रुपों व संगठनों को कल इतिहास के कठघरे में खड़ा होकर एक असम्भव सफाई देने का प्रयास करना पड़ेगा। आज हमें धारा के विरुद्ध तैरते हुए कश्मीरी जनता के राष्ट्रीय दमन का विरोध करना होगा और उनके जनवादी हक़ों के संघर्ष का समर्थन करना होगा। केवल तभी हम फासीवादी मोदी सरकार और पूँजीवादी राज्यसत्ता को अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की आँधी चलाकर हर प्रकार के प्रतिरोध व आन्दोलन को कुचलने को सही ठहराने से रोक सकते हैं, उसके सामने एक क्रान्तिकारी चुनौती पेश कर सकते हैं।