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करावल नगर मज़दूर यूनियन ने दो दिवसीय मेडिकल कैम्प अयोजित किया।

करावल नगर मज़दूर यूनियन द्वारा आयोजित कैम्प का मक़सद झोला-छापा डॉक्टर व मुनाफ़े का धन्धा चलाने वाले डॉक्टरों के बरक्स जनता की पहलक़दमी पर जन-स्वास्थ्य सेवा को खड़ा करना है। यूनियन के नवीन ने बताया कि असल में स्वास्थ्य-शिक्षा-आवास-रोज़गार सरकार की बुनियादी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए, लेकिन मुनाफ़े और लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में ये भी एक बाज़ारू माल बना दिया जाता है और पूँजीपति इसे बेचकर मुनाफ़ा पीटता है। इसलिए मज़दूरों को अपनी लड़ाई सिर्फ़ वेतन-भत्ते तक नहीं लड़नी है, बल्कि स्वास्थ्य-शिक्षा-आवास जैसे मुद्दे को भी अपनी लड़ाई में शामिल करना होगा।

अमीरों के लिए अंगों के स्पेयर पार्ट की दुकानें नहीं हैं ग़रीब!

अगर आँकड़ों की बात की जाये तो पूरी दुनिया में इस अमानवीय धन्धे का बिजनेस 1.2 अरब डालर यानि 60 अरब रुपए प्रति वर्ष से ऊपर का है। मानवीय अंगों की तस्करी में सबसे ज़्यादा गुर्दों की तस्करी होती है क्योंकि हरेक आदमी में दो गुर्दे होते हैं और आदमी एक गुर्दे के साथ भी ज़िन्दा रह सकता है। इसके बाद जिगर का नम्बर आता है क्योंकि जिगर एक ऐसा अंग है जो अगर कुछ हिस्सा ख़राब हो जाये या काटकर किसी और को लगा दिया जाये तो यह अपने को फिर से पहले के आकार तक बड़ा कर लेता है। इसके अलावा आँख की पुतली, चमड़ी तथा दिल, तथा फेफड़े के क्रय-विक्रय का धन्धा भी चलता है। पूरी दुनिया में हर वर्ष 66,000 गुर्दा बदलने, 21,000 जिगर बदलने के और 6,000 दिल बदलने के आपरेशन होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबक इनमें से 10 प्रतिशत आपरेशन तो गैर-क़ानूनी होते ही हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार अंग-बदलने के आपरेशनों में इस्तेमाल हुए मानवीय अंगों में से लगभग 42 प्रतिशत मानवीय अंगों की तस्करी के कारोबार से हासिल किये होते हैं। वर्ष 2007 में, अकेले पाकिस्तान में 2500 व्यक्तियों ने अपने गुर्दे बेचे जिनमें से दो-तिहाई मामलों में ख़रीदार विदेशी नागरिक थे। वहीं भारत में भी प्रति वर्ष गुर्दा बेचने वालों की संख्या 2000 से ऊपर ही होने का अनुमान है। एक अध्ययन ने तो यहाँ तक कहा है कि हर साल 4,000 कैदियों को मार दिया जाता है ताकि 8000 गुर्दों तथा 3000 जिगर का इन्तज़ाम हो सके जिनके ज़्यादातर ग्राहक अमीर देशों के मरीज़ होते हैं।

शहरी ग़रीबों में बीमारियों और कुपोषण की स्थिति चिन्तनीय

शहरी ग़रीबों की भारी आबादी आज बीमारियों, कुपोषण तथा इलाज के अभाव की शिकार है। राजधानी दिल्ली के लाखों मज़दूर कमरतोड़ काम करने के बाद भी स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। स्त्रियों में ख़ून की कमी तथा बच्चों में कुपोषण से पैदा होने वाले रोगों की स्थिति चिन्तनीय है और पुरुषों में भी विभिन्न प्रकार के रोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है। स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच मुश्किल और महँगी होती जा रही है। ऊपर से सरकारी अस्पतालों में भारी भीड़, दवाओं के न मिलने तथा खाने-पीने की चीज़ों की भीषण महँगाई ने मेहनतकश आबादी के बीच स्वास्थ्य की समस्या को और भी गम्भीर बना दिया है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दिमागी बुखारः 35 वर्ष से जारी है मौत का ताण्डव

पूरे देश के लिए जहाँ मानसून अच्छी फसल की उम्मीद लेकर आती है, वहीं पूर्वी उत्तरप्रदेश के गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया तथा बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर, गया ज़िलों और उनके आसपास के इलाके के लिए मानसून मौत की काली परछाईं अपने पीछे लेकर आती है। दिमागी बुखार की बीमारी 1978 से लगातार हर साल मानसून के साथ मौत बनकर इन इलाकों में आती है और घरों में छोड़ जाती है बच्चों की लाशें और रोते-बिलखते माँ-बाप! हर साल इन इलाकों में यह बीमारी सैकड़ों लोगों को जिनमें 2-15 वर्ष की आयु के बच्चे ही ज़्यादा होते हैं, निगल जाती है और इससे कई गुना ज़्यादा को सारी उम्र के लिए अपंग बना देती है।

डेंगू — लोग बेहाल, “डॉक्टर” मालामाल और सरकार तमाशाई

हर साल की तरह इस वर्ष भी डेंगू देश के बहुत से शहरों, कस्बों में फैला हुआ है और आम लोगों में डेंगू की दहशत फैली हुई है। किसी को कोई बुखार हुआ नहीं कि डेंगू का ख़ौफ़ उसके मन में बैठ गया और खौफ़ज़दा आदमी से डॉक्टर क्या नहीं करवा सकता, डेंगू इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। धड़ाधड़ लेबोरेट्री टेस्ट हो रहे हैं, लोगों के “सैल” कम आ रहे हैं और जो जाल में फँसा (100 में से 95 फँस ही जाते हैं), उसको लिटाया, ग्लूकोज़ लगाया और दो-चार हज़ार रुपये मरीज़ की जेब से “डॉक्टर” की जेब में “ट्रांसफर” हो जाते हैं। अमीरों, मध्यवर्गीय इलाकों में प्राइवेट अस्पताल, क्लीनिक और मज़दूर-गरीब इलाकों में झोला-छाप डॉक्टर, सब का “सीज़न” चल निकला है, सब ख़ुश हैं। सरकारें ऐलान पर ऐलान कर रही हैं, मगर आम आदमी परेशान है, बेहाल है। महँगाई ने पहले से जीना मुश्किल कर रखा है, ऊपर से बीमारी का खर्चा और काम से भी छुट्टी। आखिर ये “सैल” कम होने का माजरा क्या है, क्या हर बुखार डेंगू होता है, और ये ग्लूकोज़, ये कौन सी “संजीवनी बूटी” है जो हर बुखार का इलाज है?

रैनबैक्सी मामला कम गुणवत्ता वाली और नकली दवाओं के कारोबार की एक छोटी-सी झलक है!

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल 2,00,000 मौतें नकली या घटिया दवाओं के कारण होती हैं। इस आँकड़े में केवल मलेरिया और टी.बी. रोगों से पीड़ित उन मरीजों की मौतें ही शामिल हैं जिनकी मौत का कारण नकली या घटिया दवाएँ माना जा सकता है। मगर एक अध्ययन ने दिखाया है कि यह आँकड़ा भी ऐसी मौतों को बहुत कम करके देखता है। इस अध्ययन के लेखकों ने दिखाया है कि अकेले मलेरिया और टी.बी. के मामले में ही नकली या घटिया दवाओं के कारण होने वाली मृत्यु की संख्या 7,00,000 है और भी दुःख की बात यह है कि दुनिया भर में मलेरिया के कारण हर साल कुल 10 लाख लोगों की मृत्यु होती है जिसमें से 4.5 लाख घटिया या कम गुणवत्ता वाली दवाओं के कारण होती है। इस आंकडे़ से ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि अगर सब रोगों के लिए मौत का आँकड़ा लिया जाये तो नकली या घटिया दवाओं के कारण मरने वालों की संख्या कितनी हो सकती है।

आखि़र कब बदलेगी सफ़ाईकर्मियों की ज़िन्दगी?

सफ़ाईकर्मियों को ना तो हादसों से सुरक्षा के इन्तज़ाम ही हासिल हैं और ना ही बीमारियों से बचाव के इन्तज़ाम। हर दिन देश में गटरों में गैस चढ़ने या काम के दौरान और दुर्घटनाओं से सफ़ाईकर्मियों की मौत होती है। सफ़ाईकर्मियों की यूनियन के अनुसार पिछले दो दशकों में हज़ार से भी ज़्यादा कर्मियों की मौत इन हादसों में हो चुकी है। हमेशा कार्बन मोनोआक्साइड, हाइड्रोजन सल्प़फ़ाइड और मीथेन जैसी ज़हरीली गैसों के सीधे सम्पर्क में रहने के कारण कई तरह की साँस की और दिमाग़ी बीमारियाँ होती हैं। इसके अलावा दस्त, टाइफ़ाइड और हेपेटाइटिस-ए जैसी बीमारियाँ आमतौर पर होती हैं। ई. कौली नामक बैक्टीरिया पेट सम्बन्धी बहुत गम्भीर रोगों का जन्मदाता है और क्लोस्ट्रीडम टैटली नामक बैक्टीरिया खुले ज़ख़्मों के सीधे सम्पर्क में आने के साथ ही टिटनेस का कारण बनता है। ये सारे बैक्टीरिया गन्दे पानी में आमतौर पर पाये जाते हैं और चमड़ी के रोग तो इतने होते हैं कि गिनती करना मुश्किल है।

हर साल लाखों माँओं और नवजात शिशुओं को मार डालती है यह व्यवस्था

किसी भी समाज की ख़ुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माँओं को देखकर लगाया जा सकता है। लेकिन जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे इस दुनिया में अपना एक दिन भी पूरा नहीं कर पाते और क़रीब सवा लाख स्त्रियाँ हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, वह कैसा समाज होगा, इसे कस्बे की ज़रूरत नहीं। आज़ादी के 66 साल बाद, जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं बल्कि एक घृणित अपराध है। और इसकी ज़िम्मेदार है यह पूँजीवादी व्यवस्था जिसके लिए ग़रीबों की ज़िन्दगी का मोल कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है।

मज़दूरों की सेहत से खिलवाड़ – आखिर कौन ज़िम्मेदार?

दूसरा, मज़दूर इलाकों में झोला-छाप डाक्टरों की भरमार है। ये झोला-छाप डाक्टर बीमारी और दवाओं की जानकारी न होने के बावजूद सरेआम अपना धन्धा चलाते हैं। इनका हर मरीज़ के लिए पक्का फार्मूला है – ग्लूकोज़ की बोतल लगाना, एक-दो इंजेक्शन लगाना, बहुत ही ख़तरनाक दवा (स्टीरॉयड) की कई डोज़ हर मरीज़ को खिलाना और साथ में दो-चार किस्म की गोली-कैप्सूल थमा देना। छोटी-मोटी बीमारी के लिए भी ये धन्धेबाज़ मज़दूरों की जेबों से न सिर्फ अच्छे-ख़ासे रुपये निकाल लेते हैं, बल्कि लोगों को बिना ज़रूरत के ख़तरनाक दवाएँ खिलाते हैं। दवाओं की दुकानों वाले कैमिस्ट डाक्टर बने बैठे हैं और अपना धन्धा चलाने के लिए आम लोगों को तरह-तरह की दवाएँ खिलाते-पिलाते हैं। मज़दूर के पास जो थोड़ी-बहुत बचत होती भी है, वो ये झोला-छाप डाक्टर हड़प जाते हैं और बाद में इलाज के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो मज़दूर के पास कुछ नहीं बचा होता। नतीजतन, या तो मज़दूर घर भागता है, या फिर बिना इलाज के काम जारी रखता है जिसके नतीजे भयंकर निकलते हैं। सरकार के सेहत विभाग के पास इसकी जानकारी न हो, ये असम्भव है। असल में ये सब सरकारी विभागों-अफसरों की मिली-भगत से चलता है!

इलाज के नाम पर लोगों की जान से खेल रही हैं दवा कम्पनियाँ

एक तरफ तो यह कम्पनियाँ भारत में ग़रीब जनता को धोखे में रख उनपर अपनी दवा का परीक्षण कर उनकी जान से खेल रही है वहीं दूसरी तरफ किसी ठोस क़ानून के अभाव में दवा परीक्षण के दौरान या उसके दुष्प्रभावों के कारण होने वाली मौतों से भी अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार सन 2008 से लेकर 2011 तक भारत में 2031 लोग दवा परीक्षणों के दौरान मरे थे। परन्तु दवा कम्पनियों का दावा है कि इनमें से कुछ प्रतिशत लोग ही सीधे तौर पर दवाओं के दुष्प्रभावों के कारण मारे गये थे जबकि एक समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार 2010 में दवा परीक्षणों में जान गँवाने वाले 668 लोगों में से 158 की मौत सैनोफी एवेन्तीस नामक दवा कम्पनी के परीक्षण के दौरान हुई थी जिसका मुख्यालय फ्रांस में है, और 139 लोग बेयर नाम की जर्मन कम्पनी की दवाओं के परीक्षण के दौरान मरे थे। इसके अलावा 2010 में ही कैंसर रोकने वाली वैक्सीन का ट्रायल सुर्खियों में रहा था जिसके दौरान आन्ध्र प्रदेश और गुजरात में एचपीवी गर्भाशय कैंसर की रोकथाम के नाम पर वहाँ की गरीब लड़कियों पर इस टीके की जाँच की गयी थी। इस टीके के दुष्प्रभावों के कारण छह आदिवासी लड़कियों की मौत हो गयी थी। बाद में सरकार ने सिर्फ़ इतना कहकर इस पूरे मामले को दबा दिया कि लड़कियों की मौत वैक्सीन की वजह से नहीं बल्कि किसी अन्य कारण से हुई है।