Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

पंजाब में क्रान्तिकारी जन संगठनों द्वारा साम्प्रदायिकता विरोधी जन सम्मेलन का आयोजन

वक्ताओं ने कहा कि सभी धर्मों के साथ जुड़ी साम्प्रदायिकता जनता की दुश्मन है और इसके खिलाफ़ सभी धर्मनिरपेक्ष और जनवादी ताकतों को आगे आना होगा। मज़दूरों, किसानों और अन्य मेहनतक़शों, नौजवानों, विद्यार्थियों, औरतों के आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों के लिए किया गया जुझारू आन्दोलन ही हर तरह की साम्प्रदायिकता का मुक़ाबला कर सकता है। धर्म जनता का निजी और दूसरे दर्जे का मसला है। जनता को वर्गीय आधार पर न कि धर्म के आधार पर एक होना चाहिए और लुटेरे वर्गों के खिलाफ़ वर्ग संघर्ष करना चाहिए।

केजरीवाल सरकार न्यूनतम वेतनमान लागू कराने की ज़िम्मेदारी से मुकरी

न्यूनतम वेतन देने के लिए फैक्ट्री मालिकों पर दबाव बनाने की जगह आम आदमी पार्टी की सरकार कहती है कि मज़दूर ऐसी जगह काम तलाशें जहाँ न्यूनतम वेतन मिलता हो। परन्तु दिल्ली में 70 लाख आबादी ठेके पर काम करती है, उसे न तो न्यूनतम वेतन मिलता है और न ही अन्य श्रम क़ानूनों के तहत मिलने वाली सुविधाएँ, वे कौन सी फैक्ट्री में काम तलाशें?

काम के ज़्यादा दबाव की वजह से दिमागी संतुलन खोता म़जदूर

पिछले साल की गर्मी में काम का इतना अधिक बोझ था कि सोने का कोई ठिकाना नहीं था, न ही खाने-पीने का कोई ढंग का बंदोबस्त और कंपनी के अंदर एक दम घोंटू माहौल था। जिसके चलते मेरी तबियत बहुत बिगड़ गयी थी। इसी दबाव के चलते मेरा दिमागी संतुलन भी बिगड़ गया। मैंने ई.एस.आई. अस्पताल में दवाई करवाई। मगर ई.एस.आई. में सही इलाज नहीं हुआ जिसके चलते मुझे कोई आराम नहीं पहुँचा।

सलूजा धागा मिल में मशीन से कटकर एक मज़दूर की मौत

इस कारखाने में काम करने वाले मज़दूरों से धक्के से ओवरटाइम काम करवाया जाता है और उन्हें साप्ताहिक छुट्टी भी नहीं दी जाती। मज़दूर थकावट और नींद वाली हालत में काम करने पर मजबूर होते हैं। अधिकतर मशीनों में सेफ्टी सेंसर भी काम नहीं करते। उत्पादन बढ़ाने के लिए मशीनों की स्पीड बढ़ा दी जाती है।

मज़दूरों की समस्या का समाधान नग वाली अँगूठी से नहीं बल्कि संघर्ष से होगा

आज विज्ञान से साबित कर दिया कि ग्रह क्यों और कैसे लगते हैं। धरती सूरज की परिक्रमा लगाते हैं। धरती की परिक्रमा चाँद करता है। उसी परिक्रमा के बीच में कोई ग्रह सूरज की रोशनी रोक देता है तो पण्डित, पुरोहित, ओझा, सोखा लोगों को गुमराह बनाने लगते हैं। कहते हैं कि ग्रह शनि नाराज हो गया इसके लिए हवन कराओ और सत्रह प्रकार के सामान लाकर दो!

ऐसे तैयार की जा रही है मज़दूर बस्तियों में साम्प्रदायिक तनाव की ज़मीन!

उत्तर-पश्चिमी दिल्ली  की मज़दूर बस्तियों में संघ परिवार बड़े ही सुनियोजित ढंग से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और तनाव को गहरा बनाने के लिए काम कर रहा है। हाल के एक वर्ष के दौरान मज़दूर इलाक़ों के लगभग सभी पार्कों में संघ की शाखाएँ लगने लगी हैं और झुग्गी  बस्तियों के मुस्लिम परिवारों को निशाना बनाकर साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने का काम लगातार जारी है। इन हिन्दुतत्ववादियों के गिरोहों में छोटे ठेकेदारों, दलालों, दुकानदारों, मकान मालिकों के परिवारों के युवाओं के अतिरिक्त मज़दूर बस्तियों के लम्पट और अपराधी तत्व भी शामिल होते हैं।

साम्प्रदायिक फासीवाद के विरोध में कई राज्यों में जुझारू जनएकजुटता अभियान

देश में साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार के ख़िलाफ़ दिल्ली, लखनऊ, हरियाणा और मुम्बई सहित देश के कई इलाक़ों में नौजवान भारत सभा, स्त्री मुक्ति लीग, दिशा छात्र संगठन, बिगुल मज़दूर दस्ता, जागरूक नागरिक मंच तथा अन्य सहयोगी संस्थाओं की ओर से साम्प्रदायिक फासीवाद विरोधी जनएकजुटता अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान के तहत व्यापक पैमाने पर पर्चा वितरण, नुक्कड़ सभाएँ, पोस्टरिंग और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये गये। कार्यकर्ताओं ने विभिन्न सभाओं में कहा कि देश में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद गाँव-शहरों में साम्प्रदायिक ज़हर फैलाया जा रहा है। जैसे-जैसे मोदी सरकार की चुनावी वायदों की पोल खुलती जा रही है, जनता को धर्म के नाम पर बाँटने की कोशिशें की जा रही हैं। एक तरफ़ महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है और दूसरी ओर जनता इस पर सवाल नहीं उठा सके इसलिए भगवा गिरोहों द्वारा लव जिहाद, ‘घर वापसी’ और ‘हिन्दू राष्ट्र’ जैसे नारे उछाले जा रहे हैं। ऐसे में आज ज़रूरी है जनता की वर्गीय एकजुटता कायम कर सभी धार्मिक कट्टरपन्थियों के ख़िलाफ़ संघर्ष चलाया जाये। एक बार फिर शहीदे-आज़म भगतसिंह का सन्देश गाँव-गाँव, घर-घर तक ले जाना होगा कि हमें जाति-धर्म की दीवारें तोड़कर शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा जैसे बुनियादी मुद्दों के लिए जनता की फौलादी एकजुटता कायम करनी होगी।

26 जनवरी को बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र, गोरखपुर में सभा

सुई से लेकर जहाज़ तक सब इस देश के मज़दूर-किसान पैदा करते हैं। फ़ैक्ट्रियों से लेकर खेतों-खदानों में दो जून की रोटी के लिए पूरी ज़िन्दगी खपाते हैं, फिर भी उन्हें जीने लायक बेहतर चीज़ें नहीं मिल पाती हैं। सरकारें भी इस चीज़ को मानती हैं कि देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपये पर या उससे कम पर गुज़र बसर करते हैं। 18 करोड़ लोग फुटपाथों पर और 18 करोड़ 2015-01-26-GKP-Azadi-17लोग झुग्गियों में रहते हैं। 34 करोड़ लोग प्रायः भूखे सोते हैं। दूसरी ओर मुकेश अम्बानी जैसे लोग 1 मिनट में 40 लाख रुपये कमाते हैं। देश की 80 प्रतिशत सम्पदा पर मुट्ठी भर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा है। संविधान के तहत होने वाला चुनाव बस इसलिए होता है कि जनता तय करे उन्हें पाच सालों तक किससे लुटना है। 2014-2015 के बजट में पूँजीपतियों को 5.32 लाख करोड़ रुपये की छूट दी गयी। बीमा से लेकर रक्षा क्षेत्र में 49 से लेकर 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने की तैयारी है। आज ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग यह जाने कि राजकाज समाज का पूरा ढाँचा काम कैसे करता है और किस प्रकार इस लुटेरे तन्त्र का ध्वंस होगा और मेहनतकशों का राज कैसे बनेगा। भगतसिंह और उनके जैसे हज़ारों नौजवानों की कुर्बानियाँ हमें ललकार रही हैं कि हम उनके सपनों को पूरा करने में जुट जाये।

दिल्ली में ‘चुनाव भण्डाफोड़ अभियान’ चुनाव में जीते कोई भी हारेगी जनता ही!

कई दशक से जारी इस अश्लील नाटक के पूरे रंगमंच को ही उखाड़ फेंकने का वक़्त आ गया है। इस देश के मेहनतकशों और नौजवानों के पास वह क्रान्तिकारी शक्ति है जो इस काम को अंजाम दे सकती है। बेशक यह राह कुछ लम्बी होगी, लेकिन पूँजीवादी नक़ली जनतन्त्र की जगह मेहनतकश जनता को अपना क्रान्तिकारी विकल्प पेश करना होगा। उन्हें पूँजीवादी जनतन्त्र का विकल्प खड़ा करने के एक लम्बे इंक़लाबी सफ़र पर चलना होगा। यह सफ़र लम्बा तो ज़रूर होगा लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि एक हज़ार मील लम्बे सफ़र की शुरुआत भी एक छोटे से क़दम से ही तो होती है!

कब तक यूँ ही गुलामों की तरह सिर झुकाये जीते रहोगे

समीचन्द के साथ हुई यह मारपीट अपने आपमें कोई अकेली घटना नहीं है। यह पूरे इलाक़े में मज़दूरों पर हो रहे अत्याचार की झलक मात्र है। गुड़गाँव-मानेसर- धारुहेड़ा-बावल से लेकर भिवाड़ी और ख़ुशखेड़ा तक लाखों मज़दूर आधुनिक गुलामों की तरह खट रहे हैं। इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में ऑटोमोबाइल, दवा आदि फ़ैक्टरियों के साथ-साथ कपड़े उद्योग से जुड़े अनेक कारख़ाने मौजूद हैं। इन फ़ैक्टरियों में लाखों मज़दूर रात-दिन अपना हाड़-मांस गला कर पूरी दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए सस्ती मज़दूरी में माल का उत्पादन करने के लिए लगातार खटते हैं। जहाँ एक तरफ़ ये कम्पनियाँ हमारे ही हाथों से बने उत्पादों को देश-विदेश में बेचकर अरबों का मुनाफ़ा कमा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इनमें काम करने वाले हम मज़दूर बेहद कम मज़दूरी पर 12 से 16 घंटों तक काम करने के बावजूद अपने परिवार के लिए ज़रूरी सुविधाएँ भी जुटा पाने में असमर्थ हैं। लगभग हर कारख़ाने में अमानवीय वर्कलोड, जबरन ओवरटाइम, वेतन में कटौती, ठेकेदारी, यूनियन बनाने का अधिकार छीने जाने जैसे साझा मुद्दे हैं। लेकिन हमारा संघर्ष कभी-कभी के गुस्से के विस्फोट तक और अलग अलग कारख़ानों में अलग-अलग लड़ाइयों तक ही सीमित रह जाता है।