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कानपुर में निर्माणाधीन इमारत गिरने से कम से कम 10 मजदूरों की मौत

आये दिन निर्माण कार्य में होने वाली दुर्धटनाओं में मजदूरों की मौतें होती रहती हैं। कभी कांट्रैक्टर की लापरवाही के कारण तो कभी मालिक द्वारा हड़बड़ी में और अवैध तरीके से काम करवाए जाने के कारण। लेकिन मज़दूरों को मुआवजे के नाम पर मिलती है केवल प्रशासन और राजनेताओं के झूठे वादे और दर-दर की ठोकरें। ज़रा सोचिये, अगर कोई हवाई जहाज दुर्घटना हुई होती तो यह मामला कई दिनों तक राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहता और सभी मरने वालों और घायलों के लिए लाखों रुपयों के मुआवजे का ऐलान हो चुका होता। लेकिन इस व्यवस्था में ग़रीबों और मज़दूरों की जान सबसे सस्ती है।

भोरगढ़ (दिल्ली) के मज़दूरों का नारकीय जीवन और उससे सीखे कुछ सबक

भोरगढ़ में अधिकतर प्लास्टिक लाइन की कम्पनियां है। इसके अलावा बर्तन, गत्ता, रबर, केबल आदि की फैक्ट्री है। सभी कम्पनियों में औसतन मात्र 8-10 लड़के काम करते हैं अधिकतर कम्पनियों में माल ठेके पर बनता है। छोटी कम्पनियों में मज़दूर हमेशा मालिक की नजरों के सामने होता है मज़दूर एक काम खतम भी नहीं कर पाता है कि मालिक दूसरा काम बता देता है कि अब ये कर लेना।

अधिक से अधिक मुनाफ़़ेे के लालच में मज़दूरों की ज़िन्दगियों के साथ खिलवाड़ करते कारख़ाना मालिक

पिछले दिनों कुछ औद्योगिक मज़दूरों के साथ मुलाक़ात हुई जिनके काम करते समय हाथों की उँगलियाँ कट गयीं या पूरे-पूरे हाथ ही कट गये। लुधियाना के औद्योगिक इलाक़े में अक्सर ही मज़दूरों के साथ हादसे होते रहते हैं। शरीर के अंग कटने से लेकर मौत तक होना आम बात बन चुकी है। मज़दूर के साथ हादसा होने पर कारख़ाना मालिकों का व्यवहार मामले को रफ़ा-दफ़ा करने वाला ही होता है। बहुत सारे मसलों में तो मालिक मज़दूरों का इलाज तक नहीं करवाते, मुआवज़ा देना तो दूर की बात है।

मज़दूरों को स्वर्ग का झाँसा देकर नर्ककुंड में डाला जाता है

ये भोले-भाले मज़दूर इन सब बातों से अपने लिए स्वर्ग की कल्‍पना करने लगते हैं पर इ‍न्हें यह कहां पता होता है कि जिस स्वर्ग की तलाश में वे जा रहे हैं वह स्वर्ग नहीं नर्ककुंड है। ठेकेदार उनको वहां से लाने के लिए अपना किराया भी लगा देते हैं। पर ‍यहां आने के साथ ही उनके स्वर्ग की कल्पना टूटने लगती है और नर्ककुंड की असलियत नजर आने लगती है। यहां उन्हें रहने के लिए जो कमरा मिलता है उसमें 15 से 20 मजदूरों को रहना पडता है। फैक्ट्री में काम पर जाते ही उन्हें पता चलता है कि वे छोटे-छोटे पुर्जे 50 किलो से लकर 450 किलो तक के हैं। यहां जियाई का काम होता है। लोहे को तेजाब के टैंक में डालने पर जो बदबूदार तीखी दुर्गंध निकलती है वह दम घोंटने वाली होती है। इससे सुरक्षा का कोई सामान नहीं दिया जाता।

ऑटोमोबाइल सेक्टर में शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों की कड़ी में हीरो के मज़दूरों का नाम भी हुआ शामिल!

ऑटोमोबाइल सेक्टर में इस तरह सालों साल ठेके पर काम करवाने और स्थायी करने का समय आते ही नौकरी से निकाल देने की प्रथा बहुत पुरानी और आम बात है। यह नीति किसी एक फ़ैक्टरी या कम्पनी तक सीमित नहीं है बल्कि पूरे सेक्टर के पोर-पोर में फैली हुई है। इसीलिए इस कुप्रथा से लड़ने के लिए आज पूरे सेक्टर के ठेका मज़दूरों को न सिर्फ़ हीरो के संघर्ष में उनका समर्थन करने के लिए आगे आना चाहिए बल्कि ख़ुद को एक स्वतन्त्र क्राि‍न्तकारी सेक्टरगत यूनियन के तले गोलबन्द होने की ज़रूरत है।

कारख़ाने में हादसे में मारे गये मज़दूर को मुआवज़ा दिलाने के लिए टेक्सटाईल-हौज़री कामगार यूनियन के नेतृत्व में संघर्ष

कई कारखानों के मज़दूर हड़ताल करके धरने-प्रदर्शन में शामिल हुए। लुधियाना में किसी कारखाने में हादसा होने पर मज़दूर के मारे जाने पर आम तौर पर मालिक पुलिस व श्रम विभाग के अफसरों से मिलीभगत से, दलालों की मदद से पीड़ित परिवारों को 20-25 हज़ार देकर मामला रफा दफा करने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन जब मज़दूर एकजुट होकर लड़ते हैं तो उन्हें अधिक मुआवजा देना पड़ता है। इस मामले में भी मालिक ने यही कोशिश की। लेकिन टेक्सटाईल हौज़री कामगार यूनियन के नेतृत्व में एकजुट हुए मज़दूरों ने पुलिस और मालिक को एक हद तक झुकने के लिए मज़बूर कर दिया। पुलिस को मालिक को हिरासत में लेने पर मज़बूर होना पड़ा। मालिक को पीड़ित परिवार को दो लाख रुपये मुआवजा देना पड़ा।

श्रम-विभाग, पुलिस-प्रशासन और ठेकेदारों की लालच ने ली 15 मज़दूरों की जान

इस इलाके में जैकेट बनाने वाले करीब 150-200 वर्कशाप हैं। इसके साथ ही यहाँ बड़े पैमाने पर जूते भी बनाए जाते है ओर कुछ जगह जीन्स रंगाई का भी काम होता है। यह सभी वर्कशाप अवैध हैं और पुलिस तथा श्रम‍-विभाग की मिलीभगत के बिना नहीं चल सकते। इन वर्कशापों में तैयार किया गया माल दिल्ली के स्थानीय बाज़ारों और फुटपाथों पर लगने वाली दुकानों में सप्लाई किया जाता है। मज़दूरों ने बताया कि एक जैकेट बनाने के पीछे एक मज़दूर को करीब 30-40 रुपये तक पीसरेट मिलता है। यदि मज़दूर को प्रतिदिन 400-500 रुपये की दिहाड़ी बनानी हो तो उसे 14-16 घंटे काम करना पड़ता है। मज़दूरों ने बताया कि इन वर्कशापों में कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होता और पुलिस वाले इन अवैध कारखानों को चलते रहने की एवज़ में हर महीने अपना हिस्‍सा लेकर चले जाते है। इन वर्कशापों के मालिक छोटी पूँजी के मालिक हैं जिन्हें मज़दूर ठेकेदार कहते हैं। यह ठेकेदार 10 से 50 मशीनें डालकर इलाके में जगह-जगह अपने वर्कशाप चला रहे हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों से मज़दूरों को बुलाकर अपने यहाँ काम करवाते हैं। यह मज़दूर अपने गाँव, जि़ला या इलाका के आधार पर छोटे-छोटे गुटों में बंटे हुए हैं और इनके बीच वर्ग एकता का अभाव है।

हमारी लाशों पर मालिकों के आलीशान बंगले और गाड़ियां खड़ी हैं!

अगर एक फैक्ट्री के मज़दूर चाहें भी तो मिलकर मालिक-पुलिस-दलाल-लेबरकोर्ट-सरकार की शक्ति से नहीं लड़ सकते हैं। वज़ीरपुर की एक फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या औसतन 30 होती है और मालिक किसी भी बात पर पूरी फैक्ट्री के मज़दूरों की जगह दूसरे मज़दूरों को ला सकता है लेकिन अगर स्टील का पूरा सेक्टर जाम हो जाये या पूरे इलाके में हड़ताल हो जाये तो मालिक हमारी बात सुनाने को मजबूर होगा।

वज़ीरपुर के मौत और मायूसी के कारखानों में लगातार बढ़ते मज़दूरों की मौत के मामले!

इन मौतों को बड़ी आसानी से दुर्घटनाओं का नाम दे दिया जाता है और न तो मालिकों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई की जाती है और न ही सुरक्षा के इंतज़ामों को पुख़्ता किया जाता है जिससे दोबारा कोई मज़दूर ऐसी मौत का शिकार न हो। यह सब पुलिस प्रशासन, श्रम विभाग और मालिकों की मिलीभगत से चलने वाला माफिया है।

कारखानों में श्रम कानून लागू करवाने के लिए लुधियाना में ज़ोरदार रोष प्रदर्शन

पहले तीखी धूप और फिर घण्टों तक भारी बारिश के बावजूद मज़दूर कारखानों में हड़ताल करके डी.सी. कार्यालय पहुँचे। डी.सी. कार्यालय के गेट तक पहुँचने पर लगाए गए अवरोध मज़दूरों के आक्रोश के सामने टिक नहीं पाए। मज़दूरों ने गगनभेदी नारों के साथ भरत नगर चौक से डी.सी. कार्यालय तक पैदल मार्च किया। डी.सी. कार्यालय के गेट पर भारी बारिश के बीच मज़दूर धरने पर डटे रहे, ज़ोरदार नारे बुलन्द करते रहे, मज़दूर नेताओं का भाषण ध्यान से सुनते रहे। उन्होंने माँग की कि कारखानों में हादसों से मज़दूरों की सुरक्षा के पुख्‍़ता इंतज़ाम किए जाएँ, हादसा होने पर पीड़ितों को जायज़ मुआवज़ा मिले, दोषी मालिकों को सख़्त सज़ाएँ हों, मज़दूरों की उज़रतों में 25 प्रतिशत बढ़ोतरी की जाए, न्यूनतम वेतन 15000 हो, ई.एस.आई., ई.पी.एफ., बोनस, पहचान पत्र, हाजिरी कार्ड, लागू हो, मज़दूरों से कारखानों में बदसलूकी बन्द हो, स्त्री मज़दूरों के साथ छेड़छाड़, व भेदभाव बन्द हो, उन्हें समान काम का पुरुषों के समान वेतन दिया जाए।