Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

आइसिन ऑटोमोटिव के मज़दूर कम्पनी प्रबन्धन के शोषण के ख़िलाफ़ संघर्ष की राह पर

कम्पनी में लम्बे समय से काम कर रहे और संघर्ष की अगुवाई कर रहे जसबीर हुड्डा, अनिल शर्मा, उमेश, सोनू प्रजापति तथा अन्य मज़दूरों ने बताया कि कम्पनी में मज़दूरों के साथ लगातार बुरा व्यवहार किया जाता है। भाड़े के गुण्डों जिन्हें सभ्य भाषा में बाउंसर कह दिया जाता है और प्रबन्धन के लोगों द्वारा गाली-गलौज करना और गधे तक जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना आम बात है। काम कर रही स्त्री मज़दूरों के साथ भी ज़्यादतियाँ और छेड़छाड़ तक के मामले सामने आये, किन्तु संज्ञान में लाये जाने पर प्रबन्धन के उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें आम घटना बताकर भूल जाने की बात कही गयी। मज़दूरों ने अपनी मेहनत के बूते कम्पनी को आगे तो बढ़ाया किन्तु इसका ख़ामियाज़ा मज़दूरों को ही भुगतना पड़ा। शुरुआत में जहाँ एक ‘प्रोडक्शन लाइन’ पर 25 मज़दूर काम करते थे, वहीं अब उनकी संख्या घटकर 18 रह गयी। पहले जहाँ एक घण्टे में 120 पीस तैयार होते थे, वहीं अब उनकी संख्या 300 तक पहुँच गयी, किन्तु मज़दूरों के वेतन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। कई मज़दूर साथियों के वेतन में तो सालाना 1 रुपये तक की भी बढ़ोत्तरी हुई है। ‘बोनस’ के नाम पर मज़दूरों को एक माह के वेतन के बराबर राशि देने की बजाय छाता और चद्दरें थमा दी जाती हैं। कम्पनी के कुछ बड़े अधिकारी तो सीधे जापानी हैं तथा अन्य यहीं के देसी लोग हैं, किन्तु मज़दूरों को लूटने में कोई किसी से पीछे नहीं है।

भारतीय रेल : वर्ग-समाज का चलता-फिरता आर्इना

ये जनरल डिब्बों में भेड़-बकरियों की तरह चलने वाले 92 प्रतिशत लोग कौन हैं? असल में भारत में लगभग 93 प्रतिशत लोगों के यहाँ उनके परिवार के कुल सदस्यों के द्वारा कमाई जाने वाली राशि 10000 रुपये से भी कम है, जबकि हर परिवार में औसतन 5 लोग रहते हैं। ये 93 प्रतिशत लोग छोटे-मँझोले किसान, खेतिहर मज़दूर, रिक्शेवाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले शहरी मज़दूर इत्यादि हैं जिनके दम पर आज भारत तथाकथित विकास की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, जिनके दम पर ट्रेनों के वातानुकूलित डिब्बों के शीशों को चमकाया जा रहा है, मगर जो ख़ुद शौचालय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की निहायत ही घटिया हालतों वाले डिब्बों में चलने के लिए मजबूर हैं। यहाँ तक कि लम्बी दूरी वाली ट्रेनों में तो शौचालय में ही 5 से 7 लोग भरे होते हैं, इस पूरे समाज का अपने ख़ून-पसीने से निर्माण करने वाली मेहनतकश अवाम के आत्मसम्मान पर भला इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है?

धुएँ में उड़ता बचपन

जिप्सम की पर्याप्त उपलब्धता देखते हुए शहरों व महानगरों में बैठे धनासेठों ने गाँव के आस-पास ही चूना-फ़ैक्टरियाँ स्थापित करना शुरू कर दिया। यह प्रक्रिया इतनी तीव्र गति से हुई कि गाँव के दोनों तरफ़ हाइवे के किनारे-किनारे इन फ़ैक्टरियों का अम्बार लग गया। जिनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ ही रही है। बरमसर गाँव पूँजीपतियों का आकर्षण-केन्द्र बन गया। ऐसी स्थिति में गाँव के मज़दूर वर्ग के रोज़गार का एकमात्र विकल्प ये फ़ैक्टरियाँ ही रह गयीं, फलत: समूचा मज़दूर वर्ग इन चूना-फ़ैक्टरियों में भर्ती हो गया।

कोई फ़ैक्टरी, कारख़ाना या कोई छोटी-बड़ी कम्पनी हो, जीवन बदहाली और नर्क जैसा ही है

मेरा नाम संदीप है और मैं डोमिनोस पिज़्ज़ा रेस्टोरेण्ट में काम करता था। मैं वहाँ पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय का काम करता था। इण्टरव्यू के वक़्त हमें यह बताया गया था कि हम सब एक फै़मिली (परिवार) की तरह हैं। पर यह ऐसा परिवार है जिसमें सबसे ऊपर के सदस्य (मैनेजर) हैं और वे नीचे के सदस्यों से गाली बककर बात करते थे। इस बात पर अगर कोई सवाल उठाता या मना करता तो कहते कि परिवार में बड़ों से जुबान नहीं लड़ाते हैं। मैनेजर हमसे अपने निजी काम कराते थे। मना करने पर कहते कि सैलरी तो हम से ही लोगे। नौकरी चले जाने के डर से हम लोगों को उनकी बात माननी ही पड़ती थी।

कानपुर में निर्माणाधीन इमारत गिरने से कम से कम 10 मजदूरों की मौत

आये दिन निर्माण कार्य में होने वाली दुर्धटनाओं में मजदूरों की मौतें होती रहती हैं। कभी कांट्रैक्टर की लापरवाही के कारण तो कभी मालिक द्वारा हड़बड़ी में और अवैध तरीके से काम करवाए जाने के कारण। लेकिन मज़दूरों को मुआवजे के नाम पर मिलती है केवल प्रशासन और राजनेताओं के झूठे वादे और दर-दर की ठोकरें। ज़रा सोचिये, अगर कोई हवाई जहाज दुर्घटना हुई होती तो यह मामला कई दिनों तक राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहता और सभी मरने वालों और घायलों के लिए लाखों रुपयों के मुआवजे का ऐलान हो चुका होता। लेकिन इस व्यवस्था में ग़रीबों और मज़दूरों की जान सबसे सस्ती है।

भोरगढ़ (दिल्ली) के मज़दूरों का नारकीय जीवन और उससे सीखे कुछ सबक

भोरगढ़ में अधिकतर प्लास्टिक लाइन की कम्पनियां है। इसके अलावा बर्तन, गत्ता, रबर, केबल आदि की फैक्ट्री है। सभी कम्पनियों में औसतन मात्र 8-10 लड़के काम करते हैं अधिकतर कम्पनियों में माल ठेके पर बनता है। छोटी कम्पनियों में मज़दूर हमेशा मालिक की नजरों के सामने होता है मज़दूर एक काम खतम भी नहीं कर पाता है कि मालिक दूसरा काम बता देता है कि अब ये कर लेना।

अधिक से अधिक मुनाफ़़ेे के लालच में मज़दूरों की ज़िन्दगियों के साथ खिलवाड़ करते कारख़ाना मालिक

पिछले दिनों कुछ औद्योगिक मज़दूरों के साथ मुलाक़ात हुई जिनके काम करते समय हाथों की उँगलियाँ कट गयीं या पूरे-पूरे हाथ ही कट गये। लुधियाना के औद्योगिक इलाक़े में अक्सर ही मज़दूरों के साथ हादसे होते रहते हैं। शरीर के अंग कटने से लेकर मौत तक होना आम बात बन चुकी है। मज़दूर के साथ हादसा होने पर कारख़ाना मालिकों का व्यवहार मामले को रफ़ा-दफ़ा करने वाला ही होता है। बहुत सारे मसलों में तो मालिक मज़दूरों का इलाज तक नहीं करवाते, मुआवज़ा देना तो दूर की बात है।

मज़दूरों को स्वर्ग का झाँसा देकर नर्ककुंड में डाला जाता है

ये भोले-भाले मज़दूर इन सब बातों से अपने लिए स्वर्ग की कल्‍पना करने लगते हैं पर इ‍न्हें यह कहां पता होता है कि जिस स्वर्ग की तलाश में वे जा रहे हैं वह स्वर्ग नहीं नर्ककुंड है। ठेकेदार उनको वहां से लाने के लिए अपना किराया भी लगा देते हैं। पर ‍यहां आने के साथ ही उनके स्वर्ग की कल्पना टूटने लगती है और नर्ककुंड की असलियत नजर आने लगती है। यहां उन्हें रहने के लिए जो कमरा मिलता है उसमें 15 से 20 मजदूरों को रहना पडता है। फैक्ट्री में काम पर जाते ही उन्हें पता चलता है कि वे छोटे-छोटे पुर्जे 50 किलो से लकर 450 किलो तक के हैं। यहां जियाई का काम होता है। लोहे को तेजाब के टैंक में डालने पर जो बदबूदार तीखी दुर्गंध निकलती है वह दम घोंटने वाली होती है। इससे सुरक्षा का कोई सामान नहीं दिया जाता।

ऑटोमोबाइल सेक्टर में शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों की कड़ी में हीरो के मज़दूरों का नाम भी हुआ शामिल!

ऑटोमोबाइल सेक्टर में इस तरह सालों साल ठेके पर काम करवाने और स्थायी करने का समय आते ही नौकरी से निकाल देने की प्रथा बहुत पुरानी और आम बात है। यह नीति किसी एक फ़ैक्टरी या कम्पनी तक सीमित नहीं है बल्कि पूरे सेक्टर के पोर-पोर में फैली हुई है। इसीलिए इस कुप्रथा से लड़ने के लिए आज पूरे सेक्टर के ठेका मज़दूरों को न सिर्फ़ हीरो के संघर्ष में उनका समर्थन करने के लिए आगे आना चाहिए बल्कि ख़ुद को एक स्वतन्त्र क्राि‍न्तकारी सेक्टरगत यूनियन के तले गोलबन्द होने की ज़रूरत है।

कारख़ाने में हादसे में मारे गये मज़दूर को मुआवज़ा दिलाने के लिए टेक्सटाईल-हौज़री कामगार यूनियन के नेतृत्व में संघर्ष

कई कारखानों के मज़दूर हड़ताल करके धरने-प्रदर्शन में शामिल हुए। लुधियाना में किसी कारखाने में हादसा होने पर मज़दूर के मारे जाने पर आम तौर पर मालिक पुलिस व श्रम विभाग के अफसरों से मिलीभगत से, दलालों की मदद से पीड़ित परिवारों को 20-25 हज़ार देकर मामला रफा दफा करने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन जब मज़दूर एकजुट होकर लड़ते हैं तो उन्हें अधिक मुआवजा देना पड़ता है। इस मामले में भी मालिक ने यही कोशिश की। लेकिन टेक्सटाईल हौज़री कामगार यूनियन के नेतृत्व में एकजुट हुए मज़दूरों ने पुलिस और मालिक को एक हद तक झुकने के लिए मज़बूर कर दिया। पुलिस को मालिक को हिरासत में लेने पर मज़बूर होना पड़ा। मालिक को पीड़ित परिवार को दो लाख रुपये मुआवजा देना पड़ा।