Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

दिल्ली के बवाना औद्योगिक क्षेत्र में फ़ैक्ट्री की अाग में मज़दूरों की मौत

कहने के लिए तो दिल्ली में पटाखा प्रतिबन्धित है, पर इस प्रकार के अवैध कारख़ाने पूरी दिल्ली में चल रहे हैं। बवाना की बात करें तो पूरे बवाना में ही 80% कारख़ाने बिना पंजीकरण के चल रहे हैं। सब अवैध काम दिल्ली सरकार व श्रम विभाग के अधिकारियों की नाक के नीचे होते हैं। इससे ही जुड़ी दूसरी बात है कि आज जहाँ मज़दूर काम करते हैं, वहाँ सुरक्षा के उपकरणों की क्या स्थिति है, इसकी जाँच-पड़ताल का काम श्रम विभाग का है पर श्रम विभाग के इंस्पेक्टर व अधिकारी फ़ैक्टरियों में आते ही नहीं, वहीं कभी-कभी आते भी हैं तो सीधा मालिक के मुनाफ़े का एक हिस्सा अपनी जेब में डालकर चले जाते हैं।

गवर्नमेण्ट प्रेस, इलाहाबाद के अप्रेण्टिस कर्मचारी आन्दोलन की राह पर

पिछले कई वर्षों से गवर्नमेण्ट प्रेस की फ़ैक्टरी में अप्रेण्टिस की ट्रेनिंग पूरी करके जॉइनिंग का इन्तज़ार कर रहे अभ्यर्थी आन्दोलनरत हैं। इनमें से कई ऐसे भी हैं जो पिछले 20 वर्षों से अप्रेण्टिस करके बैठे हुए हैं। दूसरी ओर गवर्नमेण्ट प्रेस की फ़ैक्टरी में लगभग 2200 पद रिक्त पड़े हुए हैं। हाईकोर्ट की ओर से इन रिक्त पदों को भरे जाने और अप्रेण्टिस पूरी कर चुके मज़दूरों को प्राथमिकता देने का आदेश होने के बावजूद प्रशासन पर कोई असर नहीं पड़ा है। इस वज़ह से एक बार फिर से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके अप्रेण्टिस भूख हड़ताल करने को मजबूर हो गये हैं।

धरना-प्रदर्शनों पर रोक व काले क़ानूनों के खि़लाफ़ लुधियाना के जनवादी जनसंगठन सड़कों पर उतरे

वक्ताओं ने कहा कि केन्द्र व राज्य सरकारें काले क़ानूनों के ज़रिये जनता के जनवादी अधिकारों, नागरिक अाज़ादियों को कुचलने की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं। देश के पूँजीवादी-साम्राज्यवादी हुक्मरानों द्वारा जनता के खि़लाफ़ तीखा आर्थिक हमला छेड़ा हुआ है। अमीरी-ग़रीबी की खाई बहुत बढ़ चुकी है। महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली, गुण्डागर्दी, स्त्रियों, दलित, अल्पसंख्यकों पर जुल्म बढ़ते जा रहे हैं। इसके चलते लोगों में तीखा रोष है। जनसंघर्षों से घबराये हुक्मरान काले क़ानूनों, दमन, अत्याचार के ज़रिये जनता की अधिकारपूर्ण आवाज़ दबाने का भ्रम पाल रहे हैं। लेकिन जनता इन काले क़ानूनों, तानाशाह फ़रमानों से घबराकर पीछे नहीं हटने वाली। ये तानाशाह फ़रमान, काले क़ानून हुक्मरानों की मज़बूती का नहीं कमज़ोरी का सूचक हैं। लोग न सिर्फ़ अपने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष जारी रखेंगे बल्कि इन दमनकारी फ़रमानों/काले क़ानूनों को भी वापिस करवाकर रहेंगे।

सभी साथी एकजुट होकर संघर्ष करें, संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता!

कम्पनी को काम करते 5 साल हो गये लेकिन किसी भी मज़दूर की सैलरी 8,600 रुपये से बढ़कर 12,000 रुपये नहीं हुई है, इक्के दुक्के किसी की तनख्वाह बढ़ी भी है तो थोड़ी बहुत जबकि हमारे साथ ही ज्वाइन किये मैनेजमेंट स्टाफ की सैलरी 15,000 से बढ़कर 1,50,000 तक हो गयी है। जब सैलरी बढ़ाने की बात आती है तो कम्पनी वाले कहते हैं कि कम्पनी घाटे में चल रही है।

आइसिन मज़दूरों का बहादुराना संघर्ष और ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों लिए कुछ ज़रूरी सबक़

ज्ञात हो कि हरियाणा की रोहतक आईएमटी में स्थित आइसिन ऑटोमोटिव हरियाणा प्राइवेट लिमिटेड जापानी मालिकाने वाली एक वेण्डर कम्पनी है। यह कम्पनी ख़ास तौर पर मारुती, टोयोटा, होण्डा इत्यादि के लिए ‘डोर लॉक’, ‘इनडोर-आउटडोर हैण्डल’ समेत कुछ अन्य उत्पादों की आपूर्ति करती है। 3 मई को धरना शुरू होने से पहले कम्पनी में क़रीब 270 स्थाई मज़दूर, क़रीब 250 ट्रेनी मज़दूर और लगभग 150 ठेका मज़दूर काम कर रहे थे। कहने के लिए यह एक वेण्डर कम्पनी है, किन्तु आइसिन ग्रुप दुनियाभर के 7 सबसे बड़े ग्रुपों में से एक है तथा दुनियाभर में इसकी 195 के क़रीब शाखाएँ हैं। इससे पता चलता है कि कितनी बड़ी पूँजी की ताक़त के साथ उक्त कम्पनी बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में खड़ी है। भारत में इसकी दो कम्पनियाँ हैं जिनमें एक रोहतक में तो दूसरी बैंगलोर में स्थित है।

दोस्तो, हम सभी को एक साथ मिलकर लड़ना चाहिए

मजबूरी के कारण मुझे कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़कर काम करने जाना पड़ा। मेरे पिताजी ऑटो चलाते थे, एक दिन उनकी गाड़ी पलट गयी, जिसके कारण नौ लोग घायल हो गये, इस वजह से 3-4 लाख ख़र्च हो गया था, और क़र्ज़ चढ़ गया था। पढ़ने की इच्छा थी फिर भी मुझे मजबूरी में आना पड़ा। अगली बार जब गाँव गया, तो मेरे दोस्त मुझे दुबारा बाहर जाकर कमाने से रोक रहे थे, मेरी भी वही इच्छा थी, लेकिन मुझे मजबूरी में आना पड़ा। जब मैं पहली बार गाँव से बाहर निकला तो दिल्ली गया। वहाँ मैंने समयपुर बदली में पौचिंग लाइन में काम किया। बहुत काम करने के बावजूद वहाँ पर काम चलने लायक़ भी पैसा नहीं मिलता था।

वीवो इण्डिया में मज़दूरों का शोषण और उत्पीड़न

मज़दूरों को बिना किसी छुट्टी के पूरे 30 दिन काम करना पड़ता है, जिसके एवज़ में उन्हें प्रति माह 9300 रुपये मिलते हैं। पीएफ़ और इएसआई काटने के बाद, प्रत्येक मज़दूर को तीस दिन के काम के लिए महज़ लगभग 7100 रुपये मिलते हैं। इसके अलावा, कम्पनी मज़दूरों को फै़क्टरी लाने और ले जाने के लिए बस की सुविधा और कैण्टीन से भोजन की सुविधा मुफ़्त मुहैया कराती है। मज़दूरों का कहना है कि कैण्टीन का खाना बहुत ही घटिया कि़स्म का होता है। कम्पनी की नीति के तहत काम से एक दिन ग़ैर-हाज़िर रहने पर वेतन से 2000 रुपये काट लिए जाते हैं और यदि उपस्थिति पूरी रही, तो वेतन में अतिरिक्त 2000 रुपये जोड़ दिये जाते हैं। यह पुरस्कार वास्तव में दिया नहीं जाता बल्कि महज़ एक दिन ग़ैर-हाज़िर रहने पर वेतन से इस पुरस्कार राशि से 20 प्रतिशत अधिक की कटौती हो जाती है।

फैक्ट्रियों के अनुभव और मज़दूर बिगुल से मिली समझ ने मुझे सही रास्ता दिखाया है

यह साफ़ था कि हमारे हाथ में कुछ नहीं था और हम लोग मानसिक रूप से परेशान रहने लगे। इस प्रकार अपना हुनर चमकाने और इसे निखारने का भूत जल्द ही मेरे सिर से उतर गया। मेरा वेतन 8,000 रुपये था किन्तु काट-पीटकर मात्र 6,800 रुपये मुझे थमा दिये जाते थे। मानेसर जैसे शहर में इतनी कम तनख़्वाह से घर पर पैसे भेजने की तो कोई सोच भी नहीं सकता, अपना ही गुज़ारा चल जायेे तो गनीमत समझिए, बल्कि कई बार तो उल्टा घर से पैसे मँगाने भी पड़ जाते थे।

यूनियन बनाने की कोशिश और माँगें उठाने पर ठेका श्रमिकों को कम्पनी ने निकाला, संघर्ष जारी

केन्द्र में भाजपा की फासीवादी मोदी सरकार तो खुल्ले तौर पर मज़दूरों की विरोधी है ही लेकिन दिल्ली का ये नटवरलाल जो कि छोटे बनिये-व्यापारी का प्रतिनिधित्व करता है किसी भी मायने में मोदी से कम नहीं है! जिन तथाकथित ‘लिबरल जन’ का भरोसा इस नटवरलाल पर है और जो इसे मोदी का विकल्प समझ रहे हैं, उन्हें भी अब अपनी आँखे खोल लेनी चाहिए।

ऑटोमैक्स में तालाबंदी के ख़ि‍लाफ़ आन्दोलन

इस चीज की चर्चा करना भी जरूरी है कि इस कम्पनी में  पिछले 20-25 सालों में 30-40 श्रमि‍कों के हाथ कटे हैं और किसी का हाथ, बाजू, अंगूठा और कुछ श्रमिकों का तो एक बार ज़्यादा कटा है और कई श्रमिकों के तो पैर कटे हैं। आज तक किसी को कोई उचित मुआवजा नहीं मिला।