Category Archives: बोलते आँकड़े, चीख़ती सच्चाइयाँ

रिकॉर्ड अनाज उत्पादन के बावजूद देश का हर चौथा आदमी भूखा क्यों है?

बड़ी अजीब स्थिति है कि एक तरफ देश में खाद्यान्न का उत्पादन रिकॉर्ड स्तरों को छू रहा है वहीं दूसरी तरफ देश की एक चौथाई आबादी को पेट भर भोजन नहीं मिल पा रहा है और लगभग आधी आबादी कुपोषण का शिकार है, हर तीसरी औरत में ख़ून की कमी है और हर दूसरे बच्चे का वज़न सामान्य से कम है। पर इससे भी अधिक हैरत की बात यह है कि बिल्कुल उसी दौरान (1990 से 2012 तक) जबकि देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ता गया है, देश के नागरिकों को खाद्यान्न की उपलब्धता घटती गयी है। कहने को आज हर शहर के गली-चौराहे में पिज्ज़ा-बर्गर-मोमो की दूकानें खुल गयी हैं लेकिन 20 साल पहले की तुलना में आज देश के एक औसत नागरिक की थाली छोटी हो गयी है। 1990 में जहाँ देश के एक औसत नागरिक को 480.3 ग्राम भोजन मिलता था वहीं 2010 में उसे सिर्फ़ 440.4 ग्राम भोजन नसीब हो पा रहा है।

100 करोड़ ग़रीबों के प्रतिनिधि सारे करोड़पति?

क्या ये करोड़पति और अपराधी आम जनता की कोई चिन्ता करेंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिए जरिए सत्ता हासिल करने वाले लोग पूँजीवाद की ही सेवा करते हैं और बदले में अपने लिए मेवा पाते हैं। जनता की ज़िन्दगी में बेहतरी लाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। वास्तव में पूँजीवादी जनवाद में सरकार की असली परिभाषा कुछ इस तरह होती है — अमीरों की, अमीरों के लिए, अमीरों के द्वारा। इसमें आम जनता का ज़िक़्र तो बस ज़ुबानी जमाख़र्च के लिए होता है। आम जनता की तक़लीफ़ों को तो सिर्फ़ मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी सरकार ही दूर कर सकती है।

आज़ादी के फलों से कोसों दूर भारत की मेहनतकश जनता

अन्तरिक्ष में नियमित उपग्रह भेजने की क्षमता रखने वाले भारत की एक बहुत बड़ी आबादी को आज भी पीने का पानी तक ठीक ढंग से नहीं मिल पाता। देश के 53 प्रतिशत घर ऐसे हैं जहाँ नल, कुएँ आदि पानी का स्रोत नहीं है यानि उन्हें पानी घर के बाहर से लाना पड़ता है। 18 प्रतिशत घरों को पेयजल गाँवों में 500 मीटर और शहरों में 100 मीटर से अधिक दूरी से लाना पड़ता है। शहरों में 70 प्रतिशत और गाँवों के सिर्फ़ 30 प्रतिशत घरों तक नल का पानी पहुँच पाता है। देश के 68 प्रतिशत घरों तक फ़िल्ट्रेशन प्लाण्ट द्वारा साफ़ किया गया पीने का पानी नहीं पहुँचता।

ये दरिद्रता के आँकड़े नहीं बल्कि आँकड़ों की दरिद्रता है

इनकी अक्ल ठिकाने लगाने का एक आसान तरीक़ा तो यह है कि इनके एअरकंडीशंड दफ्तरों और गद्देदार कुर्सियों से घसीटकर इन्हें किसी भी मज़दूर बस्ती में ले आया जाये और कहा जाये कि दो दिन भी 28 रुपये रोज़ पर जीकर दिखाओ। मगर ये अकेले नहीं हैं। अमीरों से लेकर खाये-पिये मध्यवर्गीय लोगों तक एक बहुत बड़ी जमात है जो कमोबेश ऐसा ही सोचते हैं। इनकी निगाह में मज़दूर मानो इन्सान ही नहीं हैं। वे ढोर-डाँगर या बोलने वाली मशीनें भर हैं जिनका एक ही काम है दिन-रात खटना और इनके लिए सुख के सारे साधन पैदा करना। ग़रीबों को शिक्षा, दवा-इलाज़, मनोरंजन, बच्चों की ख़ुशी, बुजुर्गों की सेवा, किसी भी चीज़ का हक़ नहीं है। ये लोग मज़दूरों को सभ्यता-संस्कृति और मनुष्यता की हर उस उपलब्धि से वंचित कर देना चाहते हैं जिसे इन्सानियत ने बड़ी मेहनत और हुनर से हासिल किया है।

आज की दुनिया में स्त्रियों की हालत को बयान करते आँकड़े

  • विश्व में किए जाने वाले कुल श्रम (घण्टों में) का 67 प्रतिशत हिस्सा स्त्रियों के हिस्से आता है, जबकि आमदनी में उनका हिस्सा सिर्फ़ 10 प्रतिशत है और विश्व की सम्पत्ति में उनका हिस्सा सिर्फ़ 1 प्रतिशत है।
  • विश्वभर में स्त्रियाँ को पुरुषों से औसतन 30-40 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है।
  • विकासशील देशों में 60-80 प्रतिशत भोजन स्त्रियों द्वारा तैयार किया जाता है।
  • प्रबन्धन और प्रशासनिक नौकरियों में स्त्रियों का हिस्सा सिर्फ़ 10-20 प्रतिशत है।
  • विश्वभर में स्कूल न जाने वाले 6-11 वर्ष की उम्र के 13 करोड़ बच्चों में से 60 प्रतिशत लड़कियाँ हैं।
  • विश्व के 80 करोड़ 75 लाख अनपढ़ बालिगों में अन्दाज़न 67 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं।

देश की एक-तिहाई आबादी स्थायी रूप से अकालग्रस्त!

राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (एन.एन.एम.बी.) के अनुसार भारत की वयस्क आबादी के एक तिहाई से भी अधिक का बी.एम.आई. (बॉडी मास इंडेक्स) 18.5 से कम है और वे दीर्घकालिक कुपोषण से ग्रस्त हैं। इनमें भी अनुसूचित जनजातियों के 50 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के 60 प्रतिशत लोगों का बी.एम.आई. 18.5 से कम है। उड़ीसा में 40 प्रतिशत आबादी का बी.एम.आई. 18.5 से कम है। विकसित राज्य माने जाने वाले महाराष्ट्र में 33 प्रतिशत आबादी का बी.एम.आई. 18.5 से कम है। कई गाँवों में तो 70 प्रतिशत लोगों का बी.एम.आई. 18.5 से कम पाया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि अगर किसी समुदाय के 40 प्रतिशत से अधिक सदस्यों का बी.एम.आई. 18.5 से कम हो तो उसे अकालग्रस्त माना जाना चाहिए। इस मानक से भारत में अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और पूरे उड़ीसा को स्थायी रूप से अकालग्रस्तता की स्थिति में माना जाना चाहिए।

त्रिपुर (तमिलनाडु) के मजदूर आत्महत्या पर मजबूर

तमिलनाडु के त्रिपुर जिले में जुलाई 2009 से लेकर सितम्बर 2010 के भीतर 879 मजदूरों द्वारा आत्महत्या की घटनाएँ सामने आयी हैं। 2010 में सितम्बर तक388 मजदूरों ने आत्महत्या की जिनमें 149 स्त्री मजदूर थीं। सिर्फ जुलाई-अगस्त 2010 में 25 स्त्रियों सहित 75 मजदूरों ने अपनी जान दे दी। दिल दहला देने वाले ये आँकड़े भी अधूरे हैं। ये आँकड़े आत्महत्या करने वाले मजदूरों की महज वह संख्या बताते हैं जो काग़जों पर दर्ज हुई है। इससे भी अधिक दिल दहला देने वाली बात यह है कि इस जिले में हर रोज आत्महत्याओं की औसतन बीस कोशिशें होती हैं। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि इस जिले में तमिलनाडु के दूसरे जिलों के मुकाबले पिछले तीन वर्षों में कहीं अधिक आत्महत्याओं की घटनाएँ हो रही हैं।

यह व्यवस्था अनाज सड़ा सकती है लेकिन भुख से मरते लोगों तक नहीं पहुँचा सकती है!

प्रधानमन्त्री ने कहा कि सरकार के लिए सड़ रहे अनाज को ग़रीबों में वितरित कर पाना मुमकिन नहीं है। यानी कि अनाज सड़ जाये तो सड़ जाये, वह भूख से मरते लोगों के बीच नहीं पहुँचना चाहिए। लेकिन क्यों? सामान्य बुद्धि से यह सवाल पैदा होता है कि जिस समाज में लाखों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हों वहाँ आख़िर क्यों हर साल लाखों टन अनाज सड़ जाता है, उसे चूहे खा जाते हैं या फिर न्यायालय ही उसे जला देने का आदेश दे देता है? हाल में ही एक अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी की रिपोर्ट आयी जिसमें यह बताया गया कि भुखमरी के मामले में भारत 88 देशों की तालिका में 67वें स्थान पर है। श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और अफ्रीका के कई बेहद ग़रीब देश भी भुखमरी से ग्रस्त लोगों की संख्या में भारत से पीछे हैं। पूरी दुनिया के 42 प्रतिशत कुपोषित बच्चे और 30 प्रतिशत बाधित विकास वाले बच्चे भारत में पाये जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस देश में लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है। आख़िर क्यों? ऐसा कौन-सा कारण है?

प्रधानमन्त्री महोदय! आँकड़ों की बाज़ीगरी से ग़रीबी नहीं घटती!

जाहिर है कि शासक वर्गों के राजनीतिज्ञों का यह काम होता है कि वे पूँजीवाद के अपराधों पर पर्दा डालें या फिर आँकड़ों और तथ्यों की हेराफेरी से उन्हें कम करके दिखायें। हम मनमोहन सिंह जैसे लोगों से और कोई उम्मीद रख भी नहीं सकते। यही मनमोहन सिंह हैं जिनके वित्त मन्त्री बनने के बाद नयी आर्थिक नीतियों का श्रीगणेश 1991 में हुआ था। इसके बाद बनने वाली हर सरकार के कार्यकाल में उदारीकरण और निजीकरण की नयी आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से जारी रखा गया। स्वदेशी का ढोल बजाने वाली और राष्ट्रवाद की पिपहरी बजाने वाली भाजपा नीत राजग सरकार के कार्यकाल में तो जनता की सम्पत्ति को पूँजीवादी लुटेरों को बेच डालने के लिए एक अलग मन्त्रालय ही बना दिया गया था। उससे पहले संयुक्त मोर्चा सरकार ने भी, जिसमें देश के कुछ संसदीय वामपंथी शामिल थे और कुछ बाहर से समर्थन दे रहे थे, अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश को तेजी से बढ़ावा दिया था। इसके बाद, 2004 में तो मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री के रूप में वापस लौटे। उम्मीद की ही जा सकती थी कि इन नीतियों के सूत्रधार मनमोहन सिंह और अधिक परिष्कृत रूप में उन्हें जारी रखेंगे।

बोलते आंकड़े चीखती सच्‍चाइयां

  • भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं!
  • दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है।
  • देश में हर तीन सेकंड में एक बच्चे की मौत हो जाती है।
  • देश में प्रतिदिन लगभग 10,000 बच्चों की मौत होती है, इसमें लगभग 3000 मौतें कुपोषण के कारण होती हैं।
  • सिर्फ अतिसार के कारण ही प्रतिदिन 1000 बच्चें की मौत हो जाती है।