आज़ादी के 67 सालों के बाद हम कहाँ पहुँचे हैं, इस पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा। आज़ादी के बाद से आज तक भारतीय समाज अधिकाधिक दो खेमों में बँटता चला गया है। 1990 के बाद यह खाई और भी तेज़ी से बढ़ने लगी है। एक ओर मुट्ठी भर लोग हैं जिन्होंने पूँजी, ज़मीनों, मशीनों, ख़दानों आदि पर अपना मालिकाना क़ायम कर लिया है तो दूसरी ओर बहुसंख्य मज़दूर, ग़रीब-मध्यम किसान और निम्न-मध्य वर्ग के लोग हैं जिनका वर्तमान और भविष्य इन मुट्ठी भर पूँजीपतियों के रहमोकरम पर आश्रित हो गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का 10वाँ सबसे धनी देश है, लेकिन प्रति-व्यक्ति आय के हिसाब से देखें तो दुनिया में भारत का स्थान 149 वाँ बैठता है। 2013 में देश में 55 अरबपति थे जिनकी दौलत दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्ऱतार से बढ़ती जा रही है। वहीं दूसरी ओर दुनिया का हर तीसरा ग़रीब भारतीय है और देश के सबसे धनी राज्य गुज़रात में सबसे अधिक कुपोषित बच्चे हैं। आज हमारे देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें अगर अच्छी मज़दूरियों पर कारखानों में काम मिले तो वे अपना वर्तमान पेशा छोड़ने के लिए तैयार हैं। इनमें ज़्यादातर लोग फेरी लगाने, फूल बेचने, खोमचा लगाने, जूतों-कपड़ों की मरम्मत करने आदि जैसे कामों में लगे हुए हैं। नये कारखाने लगने और उत्पादन में बढ़ोत्तरी के बावजूद नये रोज़गार लगभग नहीं के बराबर पैदा हो रहे हैं। कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरियाँ लगातार घट रही हैं। 1984 में जहाँ कुल उत्पादन लागत का 45 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी के रूप में मज़दूरों को दिया जाता था, वह 2010 तक आते-आते केवल 25 प्रतिशत रह गया। इसका सीधा मतलब हैः ज़्यादा मेहनत और अधिक उत्पादन करने के बावजूद मज़दूरियाँ लगातार घटी हैं जबकि मालिकों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ता गया है।