Category Archives: सम्‍पादकीय

ग़रीबों को राहत योजनाओं के हवाई गुब्बारे थमाकर पूँजीपतियों की लूट के मुकम्मल इन्तजाम!!

सत्ता में आने के साथ ही कांग्रेस ने बता दिया था कि पूँजीवादी आर्थिक विकास की दीर्घकालिक नीतियों को वह अब ज्यादा सधे कदमों से लागू करेगी। बजट में आधारभूत ढाँचे को मजबूत करने के लिए जो घोषणाएँ की गयी हैं उनका मकसद पूँजीपतियों के लिए लूट के साधनों को और मुकम्मल करना है। साथ ही मन्दी की मार से जूझ रही अर्थव्यवस्था में कुछ जान फूँकने की कोशिश में सरकारी खजाने से खर्च को बढ़ाने की योजनाएँ पेश की गयी हैं। इनसे दोहरा फायदा होगा। पूँजीपतियों की दूरगामी जरूरतों को पूरा करने का काम भी होगा और ग़रीबों को कुछ राहत देकर उनके असन्तोष को कुछ देर टाला भी सकेगा। ऊपर से तुर्रा यह कि इन तमाम योजनाओं के लिए खर्च होने वाली भारी धनराशि भी जनता से ही उगाही जायेगी। लेकिन पूँजीवादी नीतियों के अपने ही तर्क से यह सिलसिला ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकेगा।

यूपीए सरकार का नया एजेण्डा : अब बेरोकटोक लागू होंगी पूँजीवादी विकास की नीतियाँ

इस सरकार का असली एजेण्डा है देशी-विदेशी पूँजीपतियों को जनता को लूटने की खुली छूट देना। राष्ट्रपति के इसी अभिभाषण में सरकारी कम्पनियों के विनिवेश से लेकर वित्तीय क्षेत्र के सुधरों के नाम पर उसे विदेशी बड़ी पूँजी के लिए खोलने से लेकर कई घोषणाएँ की गयी हैं। जुलाई में पेश किये जाने वाले बजट में पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने वाले आर्थिक ”सुधारों” की ठोस योजनाएँ पेश करने की तैयारी चल रही है। सुधारों की कड़वी घुट्टी जनता के गले के नीचे उतारने के लिए भी ज़रूरी है कि उसे ढेरों लोकलुभावन योजनाओं की चाशनी में लपेटकर पेश किया जाये।

मई दिवस अनुष्ठान नहीं, संकल्पों को फौलादी बनाने का दिन है!

भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुपों-संगठनों के कमज़ोर विचारधारात्मक आधार, ग़लत सांगठनिक कार्यशैली और ग़लत कार्यक्रम पर अमल की आधी-अधूरी कोशिशों के लम्बे सिलसिले ने आज उन्हें इस मुकाम पर ला खड़ा किया है कि उनके सामने पार्टी के पुनर्गठन का नहीं, बल्कि नये सिरे से निर्माण का प्रश्न केन्द्रीय हो गया है। चीजें कभी अपनी जगह रुकी नहीं रहतीं। वे अपने विपरीत में बदल जाती हैं आज अव्वल तो विचारधारा और कार्यक्रम के विभिन्न प्रश्नों पर बहस-मुबाहसे से एकता कायम होने की स्थिति ही नहीं दिखती और यदि यह हो भी जाये तो एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी नहीं बन सकती क्योंकि कुल मिलाकर, घटक संगठनों-ग्रुपों के बोल्शेविक चरित्र पर ही सवाल उठ खड़ा हुआ है। आज भी क्रान्तिकारी कतारों का सबसे बड़ा हिस्सा मा-ले ग्रुपों-संगठनों के तहत ही संगठित है। यानी कतारों का कम्पोज़ीशन (संघटन) क्रान्तिकारी है, लेकिन नीतियों का कम्पोज़ीशन (संघटन) शुरू से ही ग़लत रहा है और अब उसमें विचारधारात्मक भटकाव गम्भीर हो चुका है। इन्हीं नीतियों के वाहक नेतृत्व का कम्पोज़ीशन ज़्यादातर संगठनों में आज अवसरवादी हो चुका है। इस नेतृत्व से ‘पालिमिक्स’ के ज़रिये एकता के रास्ते पार्टी-पुनर्गठन की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

न कोई नारा, न कोई मुद्दा – चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम जोड़-तोड़, तीन-तिकड़म और सिनेमाई ग्लैमर की चमक-दमक के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘इंडिया शाइनिंग़ की ही तर्ज़ पर ‘जय हो’ का राग अलापने में लगी हुई है, तो भाजपा उसकी पैरोडी करते हुए यह भूल जा रही है कि पाँच वर्ष पहले वह भी देश को चमकाने के ऐसे ही दावे कर रही थी। विधानसभा चुनावों में आतंकवाद के मुद्दा न बन पाने के कारण भाजपा न तो उसे ज़ोरशोर से उठा पा रही है और न ही छोड़ पा रही है। वरुण गाँधी के ज़हरीले भाषण का पहले तो उसने विरोध किया और फिर वोटों के ध्रुवीकरण के लालच में उसे भुनाने में जुट गयी।

आधी आबादी को शामिल किये बिना मानव मुक्ति की लड़ाई सफल नहीं हो सकती!!

पूँजी और पितृसत्ता की सत्ताएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। पुरुष वर्चस्ववाद के सामन्ती मूल्यों को पूँजीवाद ने अपना लिया है। स्त्रियों की असमान स्थिति और पितृसत्ता का वह अपने लिए इस्तेमाल करता है। आधी आबादी को परिवर्तन के संघर्ष से अलग रखने के लिए भी ज़रूरी है कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच समानता के मूल्यों और उसूलों को बढ़ावा न दिया जाये। पितृसत्ता के खिलाफ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती। दूसरी ओर यह भी सही है कि आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग भी अपनी मुक्ति की लड़ाई नहीं जीत सकता।

जंगल की आग की तरह फैलती विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी करोड़ों मेहनतकशों के रोज़गार निगल चुकी है

हर पूँजीवादी संकट का सबसे सीधा असर छँटनी और बेरोजगारी बढ़ने के रूप में सामने आता है। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा ही बेरोजगारों की एक स्थायी ‘‘रिजर्व आर्मी’’ बनाये रखी जाती है ताकि पूँजीपति अपनी मर्जी से मजदूरी की दर तय कर सकें। लेकिन आर्थिक संकटों के दौर में यह सिलसिला और तेज हो जाता है। अपना मुनाफा बचाने के लिए पूँजीपति बेमुरौव्वती से मजदूरों की छँटनी कर देते हैं और बचे हुए मजदूरों को बुरी तरह निचोड़ते हैं। ऐसी स्थिति में जो आबादी बेरोजगारी से बची रह जायेगी उसे भी पहले से ज्यादा लूटा-खसोटा जायेगा, मजदूरों के रहे-सहे अधिकार भी छीन लिये जायेंगे। भारत और चीन जैसे देशों में तो पहले से ही तीन चौथाई से अधिक कामगार अस्थायी, ठेके या दिहाड़ी पर काम करते हैं जिन्हें किसी तरह की रोजगार सुरक्षा या बीमा, स्वास्थ्य सहायता जैसी न्यूनतम सुविधाएँ जो दूर, सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। बढ़ती मन्दी के दौर में इस भारी मेहनतकश की ही पीठ पर सबसे अधिक कोड़े बरसाये जायेंगे। निम्न मध्यवर्ग की भारी आबादी पर भी मन्दी का भारी असर होगा। पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ग के एक हिस्से को सेवा क्षेत्र में, सेल्स आदि में, निजी कम्पनियों के दफ़्तरों में जो छोटी-मोटी नौकरियां मिल जा रही थीं, उनमें तेजी से कमी आयेगी।

नये साल के मौके पर मेहनतकश साथियों का आह्वान

नयी सदी का एक और साल इतिहास बन गया। यूँ देखा जाये तो मेहनकश अवाम के लिए यह साल हाल के कुछ वर्षों से ज्यादा अलग नहीं था। पूँजी की लुटेरी मशीन के चक्के इस वर्ष भी मेहनतकशों को पीसते रहे, उनकी रक्त-मज्जा की एक-एक बूँद निचोड़कर मुनाफ़ाख़ोरों की तिजोरियाँ भरती रहीं, जनसंघर्षों का दमन-उत्पीड़न कुछ और तेज हो गया, जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के मुद्दे उभाड़कर लोगों को आपस में लड़ाने के गन्दे खेल में कुछ नयी घिनौनी चालें जुड़ गयीं, संसद के सुअरबाड़े में जनता के करोड़ों रुपये खर्च कर थैलीशाहों की सेवा और जनता के दमन के लिए क़ानून बनाने और बकबक करने का काम बदस्तूर चलता रहा, लाल कलगी वाले नकली वामपन्थी मुर्गे मज़दूरों को बरगलाने-भरमाने के लिए समर्थन और विरोध की बुर्जुआ राजनीति के दाँवपेंचों की नयी बानगियाँ पेश करते रहे, पूँजीवादी राजनीति के कोढ़ से जन्मा आतंकवाद का नासूर सच्चे मुक्ति संघर्ष की राह को और कठिन बनाता रहा और क्रान्तिकारी शक्तियों की दिशाहीनता और बिखराव के कारण जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति ज्यों-की-त्यों बरकरार रही…

निठारी के बच्चों की नरबलि हमारे विवेक और संवेदना के दरवाजों पर दस्तक देती रहेगी!

मुनाफ़े की हवस को शान्त करने के लिए इंसान के श्रम को निचोड़ने के बाद बचे–खुचे समय में आज पूँजीपति वर्ग और उसकी लग्गू–भग्गू जमातें अपनी विलासिता और भोग की पाशविक लालसा को शान्त करने के लिये मनुष्यता को, समस्त मानवीय मूल्यों को निचोड़ डाल रही हैं ।इस नव–धनिक जमात को किसी चीज़ का डर नहीं है । न पुलिस–प्रशासन का, न कानून– अदालत का । इन्हें कोई सामाजिक भय भी नहीं है । क्योंकि उससे बचने के लिये उन्होंने कानूनी–गैर कानूनी संगठित हथियारबन्द दल बना रखे हैं और मुद्रारूपी सर्वशक्तिमान सत्ता के ये स्वामी हैं । इसी शक्ति के मद में चूर थे मानव भेस धरे वहशी भेड़िये बेखौफ हो इंसानियत को रौंदते–कुचलते हुए राजमार्गों पर फर्राटा भरते हैं, शिकारों की तलाश में गली–कूचों में मँडराते हैं । मोहिन्दर जैसे लोग इसी जमात से आते हैं जो इंसानी खून और हड्डियों के बीच लोट लगाते हैं और पाशविक यौनाचार के लिये अपनी बीवियों–बच्चों को भी नहीं बख्शते । ये आधुनिक पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति की चरम पतनशीलता के वाहक प्रतीक चेहरे हैं ।

गुज़रे दिनों की नाउम्मीदियों और आने वाले दिनों की उम्मीदों के बारे में कुछ बातें

गतिरोध के इस दौर की सच्चाइयों को समझने का यह मतलब नहीं कि हम इतमीनान और आराम के साथ काम करें । हमें अनवरत उद्विग्न आत्मा के साथ काम करना होगा, जान लड़ाकर काम करना होगा । केवल वस्तुगत परिस्थितियों से प्रभावित होना इंकलाबियों की फितरत नहीं । वे मनोगत उपादानों से वस्तुगत सीमाओं को सिकोड़ने–तोड़ने के उद्यम को कभी नहीं छोड़ते । अपनी कम ताकत को हमेशा कम करके ही नहीं आँका जाना चाहिए । अतीत की क्रान्तियाँ बताती हैं कि एक बार यदि सही राजनीतिक लाइन के निष्‍कर्ष तक पहुँच जाया जाये और सही सांगठनिक लाइन के आधार पर सांगठनिक काम करके उस राजनीतिक लाइन को अमल में लाने वाली क्रान्तिकारी कतारों की शक्ति को लाभबंद कर दिया जाये तो बहुत कम समय में हालात को उलट–पुलटकर विस्मयकारी परिणाम हासिल किये जा सकते हैं । हमें धारा के एकदम विरुद्ध तैरना है । इसलिए, हमें विचारधारा पर अडिग रहना होगा, नये प्रयोगों के वैज्ञानिक साहस में रत्ती भर कमी नहीं आने देनी होगी, जी–जान से जुटकर पार्टी–निर्माण के काम को अंजाम देना होगा और वर्षों के काम को चन्द दिनों में पूरा करने का जज़्बा, हर हाल में कठिन से कठिन स्थितियों में भी बनाये रखना होगा ।

अभी भी जीवित है ज्वाला! फिर भड़केगी जंगल की आग!

दुनिया के इतिहास में पहली बार मार्क्सवाद की किताबों में लिखे सिद्धान्त ठोस सच्चाई बनकर ज़मीन पर उतरे। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का ख़ात्मा कर दिया गया। पर विभिन्न रूपों में असमानताएँ अभी भी मौजूद थीं। जैसा कि लेनिन ने इंगित किया था, छोटे पैमाने के निजी उत्पादन से और निम्न पूँजीवादी परिवेश में लगातार पैदा होने वाले नये पूँजीवादी तत्त्वों से, समाज में अब भी मौजूद बुर्जुआ अधिकारों से, अपने खोये हुए स्वर्ग की प्राप्ति के लिए पूरा ज़ोर लगा रहे सत्ताच्युत शोषकों से और साम्राज्यवादी घेरेबन्दी और घुसपैठ के कारण पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा बना हुआ था। इन समस्याओं से जूझते हुए पहली सर्वहारा सत्ता को समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि से गुज़रते हुए कम्युनिज़्म की ओर यात्रा करनी थी। नवोदित समाजवादी सत्ता को फ़ासीवाद के ख़तरे का मुक़ाबला करते हुए समाजवादी संक्रमण के इन गहन गम्भीर प्रश्नों से जूझना था। निश्चय ही इसमें कुछ त्रुटियाँ हुईं जिनमें मूल और मुख्य त्रुटि यह थी कि समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की प्रकृति और उसके संचालन के तौर-तरीकों को समझ पाने में कुछ समय तक सोवियत संघ का नेतृत्व विफल रहा। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में फ़ासीवाद को परास्त करने के बाद स्तालिन ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण क़दम उठाये। समाजवादी समाज में किस प्रकार अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन और विनिमय विभिन्न रूपों में जारी रहता है और माल उत्पादन की अर्थव्यवस्था मौजूद रहती है इसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया था और इन समस्याओं पर चिन्तन की शुरुआत कर चुके थे। लेकिन यह प्रक्रिया आगे बढ़ती इसके पहले ही स्तालिन की मृत्यु हो गयी।