Category Archives: सम्‍पादकीय

नेता, अफसर, जज, मीडियाकर्मी – लूटपाट, कमीशनख़ोरी में कोई पीछे नहीं

मौजूदा नवउदारवादी दौर में तमाम बुर्जुआ जनवादी मूल्यों-आदर्शों के छिलके पूँजीवाद के शरीर से स्वत: उतर गये हैं। सरकार खुले तौर पर पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में कार्यरत दीख रही है। कमीशनख़ोरी, दलाली, लेनदेन – सबकुछ पूँजी के ‘खुला खेल फर्रुख़ाबादी’ का हिस्सा मान जाने लगा है। 2010 में घपलों-घोटालों का जो घटाटोप सामने आया है, वह पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत आर्थिक संकट और उसके गर्भ से उपजे राजनीतिक-सांस्कृतिक-नैतिक संकट की एक अभिव्यक्ति है, परिणाम है और लक्षण है।

हम अब और तमाशबीन नहीं बने रह सकते! एक ही रास्ता-मज़दूर इंक़लाब! मज़दूर सत्ता!

क्या हम इस बर्बर ग़ुलामी को स्वीकार कर लेंगे? क्या पूरी तरह नग्न हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था को हम अपने आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करने देंगे? क्या हम अपनी ही बर्बादी के तमाशबीन बने रहेंगे? या फिर हम उठ खड़े होंगे और मुनाफे की अन्धी हवस पर टिकी इस मानवद्रोही,आदमख़ोर व्यवस्था को तबाहो-बर्बाद कर देंगे? या फिर हम संगठित होकर इस अन्याय और असमानता का ख़ात्मा करने और न्याय और समानता पर आधारित एक नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने की तैयारियाँ करने में जुट जायेंगे?या फिर हम एक मज़दूर इन्कलाब के लिए एक इन्कलाबी पार्टी के निर्माण में लग जायेंगे?

भोपाल हत्याकाण्ड : कटघरे में है पूरी पूँजीवादी व्यवस्था

भोपाल की घटना बार-बार यह याद दिलाती है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की अन्धी हवस में पागल पूँजीपतियों के लिए इंसान की जिन्दगी का कोई मोल नहीं होता। पूँजीवाद युद्ध के दिनों में हिरोशिमा और नागासाकी को जन्म देता है और शान्ति के दिनों में भोपाल जैसी त्रासदियों को। यह पर्यावरण को तबाह करके पूरी पृथ्वी को विनाश की ओर धकेल रहा है। इस नरभक्षी व्यवस्था का एक-एक दिन मनुष्यता पर भारी है। इसे जल्द से जल्द मिट्टी में मिलाकर ही धरती और इंसानियत को बचाया जा सकता है। और यह जिम्मेदारी इतिहास ने मजदूर वर्ग के कन्‍धों पर सौंपी है।

मई दिवस का सन्देश – स्मृति से प्रेरणा लो! संकल्प को फौलाद बनाओ! संघर्ष को सही दिशा दो!

जब तक लोग कुछ सपनों और आदर्शों को लेकर लड़ते रहते हैं, किसी ठोस, न्यायपूर्ण मकसद को लेकर लड़ते रहते हैं, तब तक अपनी शहादत की चमक से राह रोशन करने वाले पूर्वजों को याद करना उनके लिए रस्म या रुटीन नहीं होता। यह एक जरूरी आपसी, साझा, याददिहानी का दिन होता है, इतिहास के पन्नों पर लिखी कुछ धुँधली इबारतों को पढ़कर उनमें से जरूरी बातों की नये पन्नों पर फिर से चटख रोशनाई से इन्दराजी का दिन होता है, अपने संकल्पों से फिर नया फौलाद ढालने का दिन होता है।

बजट 2010-11 : इजारेदार पूँजी के संकट और मुनाफे का बोझ आम गरीब मेहनतकश जनता के सिर पर

सरकार ने पूँजीपतियों और कारपोरेटों और धनी किसानों, फार्मरों और कुलकों पर खर्च को बढ़ाया है और इसके लिए पैसा 80 फीसदी आम मेहनतकश जनता पर बढ़े हुए कर थोप कर जुटाया है। सरकार अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी के पीछे जिस बजट घाटे को पूरा करने का जो बहाना दे रही है उस घाटे के कारण और स्रोत क्या हैं? 82,000 करोड़ रुपये कारपोरेटों को दिये जाने वाली छूट का खर्च; 19,000 करोड़ कस्टम डयूटी में छूट का खर्च; 30,000 करोड़ उत्पादन शुल्क में छूट का खर्च; 46,000 करोड़ रुपये के कर छूट का खर्च! ऐसे में बजट घाटा नहीं होगा तो और क्या होगा? और इस पूरे घाटे की कीमत आम जनता को अपना पेट काट-काटकर चुकानी होगी। यही है इस पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई। जब तक यह कायम रहेगी, हम अपना और अपने बच्चों का पेट काट-काट कर परजीवी धनाढय मकड़ों की तोदें भरते रहेंगे और उनके ऐशो-आराम के सामान खड़े करते रहेंगे।

प्रधानमन्त्री महोदय! आँकड़ों की बाज़ीगरी से ग़रीबी नहीं घटती!

जाहिर है कि शासक वर्गों के राजनीतिज्ञों का यह काम होता है कि वे पूँजीवाद के अपराधों पर पर्दा डालें या फिर आँकड़ों और तथ्यों की हेराफेरी से उन्हें कम करके दिखायें। हम मनमोहन सिंह जैसे लोगों से और कोई उम्मीद रख भी नहीं सकते। यही मनमोहन सिंह हैं जिनके वित्त मन्त्री बनने के बाद नयी आर्थिक नीतियों का श्रीगणेश 1991 में हुआ था। इसके बाद बनने वाली हर सरकार के कार्यकाल में उदारीकरण और निजीकरण की नयी आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से जारी रखा गया। स्वदेशी का ढोल बजाने वाली और राष्ट्रवाद की पिपहरी बजाने वाली भाजपा नीत राजग सरकार के कार्यकाल में तो जनता की सम्पत्ति को पूँजीवादी लुटेरों को बेच डालने के लिए एक अलग मन्त्रालय ही बना दिया गया था। उससे पहले संयुक्त मोर्चा सरकार ने भी, जिसमें देश के कुछ संसदीय वामपंथी शामिल थे और कुछ बाहर से समर्थन दे रहे थे, अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश को तेजी से बढ़ावा दिया था। इसके बाद, 2004 में तो मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री के रूप में वापस लौटे। उम्मीद की ही जा सकती थी कि इन नीतियों के सूत्रधार मनमोहन सिंह और अधिक परिष्कृत रूप में उन्हें जारी रखेंगे।

यह महँगाई ग़रीबों के जीने के अधिकार पर हमला है!

ग़रीबों तक सस्ता अनाज पहुँचाने के लिए बनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के बावजूद थोड़ा बहुत अनाज आदि नीचे तक पहुँच जाता था, पर उदारीकरण के दौर में उसे धीरे-धीरे धवस्त किया जा चुका है। पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार ग़रीबों को भुखमरी से बचाने के लिए दी जाने वाली खाद्य सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही है। इस महँगाई ने यह भी साफ कर दिया है कि जनता की खाद्य सुरक्षा की गारण्टी करना सरकार अब अपनी ज़िम्मेदारी मानती ही नहीं है। लोगों को बाज़ार की अन्‍धी शक्तियों के आगे छोड़ दिया गया है। यानी, अगर आप अपनी मेहनत, अपना हुनर, अपना शरीर या अपनी आत्मा बेचकर बाज़ार से भोजन ख़रीदने लायक पैसे कमा सकते हों, तो खाइये, वरना भूख से मर जाइये!

एक युद्ध जनता के विरुद्ध : पूरे देश में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून लागू करने की तैयारी

नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ व्यापक मजदूर आबादी को उनके रहे-सहे अधिकारों से भी वंचित करके जिस तरह निचोड़ रही हैं, महँगाई और बेरोज़गारी जिस तरह से आम लोगों का जीना दूभर कर रही है, धनी-ग़रीब की खाई जितने विकराल एवं कुरूप शक्ल में बढ़ रही है और लोकतान्त्रिक दायरे में प्रतिरोध का स्पेस जिस तरह सिकुड़ता जा रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पूरा भारतीय समाज एक ज्वालामुखी के दहाने की ओर सरकता जा रहा है। शासक वर्ग इस स्थिति से चिन्तित और भयभीत है। उसके सामने अन्तत: एक ही विकल्प बचेगा – नग्न-निरंकुश दमनतन्त्र का विकल्प। और वह इस तैयारी में भी लगा है। उसकी समस्या यह है कि देश के एक छोटे-से हिस्से में तो जनता के विरुद्ध ख़ूनी युद्ध चलाया जा सकता है, लेकिन पूरे देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी जब सड़कों पर होगी तो उसके विरुद्ध सेना उतारना आसान विकल्प नहीं होगा। यह भविष्य दूर हो सकता है, लेकिन उसकी कल्पना से भी शासक वर्ग काँप उठता है।

सबसे बड़ा आतंकवाद है राजकीय आतंकवाद और वही है हर किस्म के आतंकवाद का मूल कारण

हर प्रकार की आतंकवादी राजनीति शासक वर्गों की ही राजनीति और अर्थनीति के प्रतिक्रियास्वरूप पैदा होती है और फिर शासक वर्गों की सत्ता उसे हथियार के बल से खत्म करना चाहती है, जो कभी भी सम्भव नहीं हो पाता। आतंकवाद या तो अपने ख़ुद के अन्तरविरोधों और कमजोरियों का शिकार होकर समाप्त होता है या उसे जन्म देने वाली परिस्थितियों के बदल जाने पर समाप्त हो जाता है। शासक वर्ग जब भी भाड़े की सेना-पुलिस और हथियारों के बूते आतंकवाद को दबाने की कोशिश करता है, तो वस्तुत: पूरे प्रभावित इलाके की जनता के खिलाफ ही बर्बर अत्याचारी अभियान के रूप में एक युद्ध छेड़ देता है। तीसरी बात, आतंकवादी राजनीति कभी सफल नहीं हो सकती और जाहिर है कि उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन आतंकवाद – चाहे प्रतिक्रियावादी (तालिबान, अल-कायदा और लश्करे तैय्यब जैसा) हो या क्रान्तिवादी (जैसे कि ”वामपन्थी” उग्रवाद), अपने दोनों ही रूपों में वह साम्राज्यवादी-पूँजीवादी राज्यसत्ताओं की अन्यायपूर्ण एवं दमनकारी नीतियों का नतीजा होता है, अथवा राजकीय आतंकवाद के प्रतिक्रियास्वरूप पैदा होता है। जब जनक्रान्ति की ताकतें कमजोर होती हैं और ठहराव और प्रतिक्रिया का माहौल होता है जो ऐसे में दिशाहीन विद्रोह और निराशा की एक अभिव्यक्ति आतंकवाद के रूप में सामने आती है।

ग़रीबों पर मन्दी का कहर अभी जारी रहेगा

पूँजीवाद के तमाम हकीम-वैद्यों के हर तरह के टोनों-टोटकों के बावजूद पूँजीवाद का संकट दूर होता नज़र नहीं आ रहा है। तमाम पूँजीवादी आर्थिक संस्थाओं के आकलन बताते हैं कि अभी अगले दो-तीन वर्ष के भीतर मन्दी दूर होने के आसार नहीं हैं। और अगर उसके बाद धीरे-धीरे मन्दी का असर दूर हो भी गया तो वह उछाल अस्थायी ही होगी। भूलना नहीं चाहिए कि यह मन्दी पहले से चली आ रही दीर्घकालिक मन्दी के भीतर की मन्दी है और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इससे उबरेगी तो कुछ ही वर्षों में इससे भी भीषण मन्दी में फँस जायेगी। इस बूढ़ी, जर्जर, आदमखोर व्यवस्था को क़ब्र में धकेलकर ही इसकी अन्तहीन तकलीफ़ों का अन्त किया जा सकता है – और इन्सानियत को भी इसके पंजों से मुक्त किया सकता है।