Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

सत्यम कम्पनी के घोटाले में नया कुछ भी नहीं है…

वैसे तो पूँजीवाद ख़ुद ही एक बहुत बड़ी डाकेजनी के सिवा कुछ नहीं है लेकिन मुनाफ़ा कमाने की अन्धी हवस में तमाम पूँजीपति अपने ही बनाये क़ानूनों को तोड़ते रहते हैं। यूरोप से लेकर अमेरिका तक ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बिल्कुल साफ कर देते हैं कि पूँजीवाद में कोई पाक-साफ होड़ नहीं होती। शेयरधारकों को खरीदने-फँसाने, प्रतिस्पर्धी कम्पनियों की जासूसी कराने, रिश्वत खिलाने, हिसाब-किताब में गड़बड़ी करने जैसी चीजें साम्राज्यवाद के शुरुआती दिनों से ही चलती रहती हैं। सत्यम ने बहीखातों में फर्जीवाड़ा करके साल-दर-साल मुनाफ़ा ज्यादा दिखाने और शेयरधारकों को उल्लू बनाने की जो तिकड़म की है वह तो पूँजीवादी दुनिया में चलने वाला एक छोटा-सा फ्रॉड है। राजू पकड़ा गया तो वह चोर है – लेकिन ऐसा करने वाले दर्जनों दूसरे पूँजीपति आज भी कारपोरेट जगत के बादशाह और मीडिया की आँखों के तारे बने हुए हैं।

विश्वव्यापी खाद्य संकट की “खामोश सुनामी” जारी है…

आने वाले समय में ये तमाम स्थितियाँ बद से बदतर होती जायेंगी। पूँजीवाद जिस गम्भीर ढाँचागत संकट का शिकार है, उसके चलते खेती को संकट से उबारने के लिए निवेश कर पाने की सरकारों की क्षमता कम होती जायेगी। ग़रीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजनाओं में तो पहले से ही कटौती की जा रही थी, अब मन्दी के दौर में इन पर कौन ध्यान देगा? जो सरकारें ग़रीबों को सस्ती शिक्षा, इलाज, भोजन मुहैया कराने के लिए सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही थीं, वे ही अब बेशर्मी के साथ जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को घाटे से बचाने के लिए बहा रही हैं। मन्दी का रोना रोकर अरबों रुपये की सरकारी सहायता बटोर रहे धनपतियों की अय्याशियों, जगमगाती पार्टियों और फिजूलखर्चियों में कोई कमी नहीं आने वाली, लेकिन ग़रीब की थाली से रोटियाँ भी कम होती जायेंगी, सब्ज़ी और दाल तो अब कभी-कभी ही दिखती हैं।

पूँजीपतियों को राहत बाँट रही सरकार के पास मज़दूरों को देने के लिए कुछ भी नहीं

वैश्विक मन्दी शुरू होने के बाद से ही भारत सरकार बार-बार बयान बदलती रही है। पहले तो यही कहा जाता रहा कि मन्दी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुछ खास असर नहीं होने वाला है, लेकिन जल्दी ही मन्दी के झटकों ने उन्हें रुख बदलने के लिए मजबूर कर दिया। अब सरकार को यह खुले तौर पर स्वीकारना पड़ रहा है कि आने वाला समय अर्थव्यवस्था के लिए काफ़ी मुश्किल साबित होगा और हमें बुरे से बुरे के लिए तैयार रहना चाहिए। ज़ाहिर है, यह “बुरे से बुरा” वक़्त अमीरों के लिए कुछ ख़ास बुरा नहीं होगा, उनकी पार्टियों में अब भी जाम झलकते रहेंगे, उनके बँगलों के बाहर अब भी नयी-नयी गाड़ियाँ आती रहेंगी और फ़ैशन की चकाचौंध फीकी नहीं पड़ेगी। लेकिन देश के करोड़ों ग़रीब और मेहनतकश लोगों के लिए इसका मतलब होगा बेरोज़गारी, छँटनी, भुखमरी, बच्चों की पढ़ाई छूटना, दवा के बिना बच्चों का मरना, आत्महत्याएँ…

पूँजीवादी संकट और मज़दूर वर्ग

आर्थिक संकट की इस स्थिति में वर्तमान सरकार आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र साफ़-साफ़ यह कैसे कहे कि आर्थिक संकट और गहरा होगा। सरकार की तरफ से आने वाले बयानों में ज़बरदस्त विरोधाभास साफ़ नज़र आता है। 21 नवम्बर 2008 को वाणिज्य सचिव, भारत सरकार का कहना है कि आगामी 5 महीने में टैक्सटाइल इंजीनियरिंग उद्योग की 5 लाख नौकरियाँ चली जायेंगी। ख़ुद श्रममंत्री की दिसम्बर 2008 की ‘सी.एन.बी.सी. आवाज़’ टी.वी. चैनल पर चलने वाली ख़बर यह कहती है कि अगस्त से अक्तूबर 08 तक देश में 65,500 लोगों की नौकरियाँ खत्म हुईं हैं। वाणिज्य सचिव आर्थिक मन्दी के कारण नौकरियाँ खत्म होने की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत सरकार के केबिनेट सचिव के.एम. चन्द्रशेखर छँटनी से साफ इन्कार करते हुए कहते हैं कि आर्थिक संकट से निबटने के लिए भारतीय कम्पनियों का मनोबल विदेशी कम्पनियों से ऊँचा है – “घबराइये मत, भारत में छँटनी नहीं होगीः कैबिनेट सचिव” (अमर उजाला, 2 दिसम्बर 2008)।

नये साल के मौके पर मेहनतकश साथियों का आह्वान

नयी सदी का एक और साल इतिहास बन गया। यूँ देखा जाये तो मेहनकश अवाम के लिए यह साल हाल के कुछ वर्षों से ज्यादा अलग नहीं था। पूँजी की लुटेरी मशीन के चक्के इस वर्ष भी मेहनतकशों को पीसते रहे, उनकी रक्त-मज्जा की एक-एक बूँद निचोड़कर मुनाफ़ाख़ोरों की तिजोरियाँ भरती रहीं, जनसंघर्षों का दमन-उत्पीड़न कुछ और तेज हो गया, जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के मुद्दे उभाड़कर लोगों को आपस में लड़ाने के गन्दे खेल में कुछ नयी घिनौनी चालें जुड़ गयीं, संसद के सुअरबाड़े में जनता के करोड़ों रुपये खर्च कर थैलीशाहों की सेवा और जनता के दमन के लिए क़ानून बनाने और बकबक करने का काम बदस्तूर चलता रहा, लाल कलगी वाले नकली वामपन्थी मुर्गे मज़दूरों को बरगलाने-भरमाने के लिए समर्थन और विरोध की बुर्जुआ राजनीति के दाँवपेंचों की नयी बानगियाँ पेश करते रहे, पूँजीवादी राजनीति के कोढ़ से जन्मा आतंकवाद का नासूर सच्चे मुक्ति संघर्ष की राह को और कठिन बनाता रहा और क्रान्तिकारी शक्तियों की दिशाहीनता और बिखराव के कारण जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति ज्यों-की-त्यों बरकरार रही…

नयी दुनिया निठल्ले चिन्तन से नहीं, जन महासमर से बनेगी! – डब्ल्यूएसएफ का मुम्बई महातमाशा सम्पन्न

ये ‘बेहतरीन दिमाग’ भूमण्डलव्यापी अन्याय, असमानता और शोषण के अनेकानेक रूपों पर अलग–अलग चर्चा ही इसलिए करना और कराना चाहते हैं ताकि वर्गीय शोषण, अन्याय और असमानता, जिसकी बुनियाद पर अन्य सभी प्रकार की सामाजिक असमानताएं जनमती हैं, पर पर्दा डाला जा सके। डब्ल्यू एस एफ के उस्ताद दिमाग भूमण्डलव्यापी शोषण–उत्पीड़न, अन्याय–असमानता की सच्चाई को जानबूझकर लोगों को उस तरह दिखाना चाहते हैं जैसे किसी अंधे को हाथी दिखायी देता हैं। सूंड पकड़ में आये तो पाइप जैसा, पैर पकड़ में आये तो खम्भे जैसा और कान पकड़ में आये तो सूप जैसा।