Category Archives: अंधराष्‍ट्रवाद

मणिपुर में बर्बरता के लिए कौन है ज़िम्मेदार?

सबसे विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि जो मैतेयी जुझारू संगठन मणिपुर में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा किये जा रहे राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्षरत रहे हैं उनमें से भी कई कुकी आदिवासियों के ख़िलाफ़ की जा रही हिंसा में भी शामिल हैं और उसे जायज़ ठहरा रहे हैं। यह मणिपुरी क़ौम के राष्ट्रीय मुक्ति के आन्दोलन में प्रतिक्रियावाद और अन्धराष्ट्रवाद के असर को दिखा रहा है जोकि अच्छा संकेत नहीं है। सर्वहारा वर्ग उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रगतिशील व जनवादी पहलू का समर्थन करता है और इसलिए हम मैतेयी, कुकी व नगा सहित उत्तर-पूर्व के सभी उत्पीड़ित क़ौमों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हैं। परन्तु हम उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रतिक्रियावादी व अन्धराष्ट्रवादी पहलू की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करते हैं।

कर्नाटक चुनाव के नतीजे और मज़दूर-मेहनतकश वर्ग के लिए इसके मायने

भाजपा की चुनावी रैलियों से रोज़गार, शिक्षा, महँगाई, आवास और स्वास्थ्य नदारद थे और आते भी कैसे क्योंकि अभी सरकार में तो स्वयं भाजपा ही थी। भाजपा और संघ परिवार के लिए बिना कुछ किये वोट माँगने का सबसे सरल रास्ता होता है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा देना। इसकी तैयारी इस वर्ष के अरम्भ से ही भाजपा ने नंगे तौर पर शुरू कर दी थी। जनवरी में कॉलेज में हिजाब पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लोगों के बीच प्रतिरोध होने पर हिन्दुत्ववादी संगठनों को हिंसा की खुली छूट दे दी गयी।

मणिपुर में जारी हिंसा : भारतीय राज्यसत्ता के राष्ट्रीय दमन और हिन्दुत्व फ़ासीवाद के नफ़रती प्रयोग की परिणति

मणिपुर की हालिया हिंसा में एक नया कारक मणिपुर में संघ परिवार व भाजपा की बढ़ती मौजूदगी और उसके नफ़रती फ़ासिस्ट प्रयोग का रहा है। ग़ौरतलब है कि मणिपुर में 2017 से ही भाजपा की सरकार है जिसका इस समय दूसरा कार्यकाल चल रहा है। पिछले छह वर्षों में संघ परिवार ने सचेतन रूप से मणिपुर में मैतेयी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने और उसे हिन्दुत्ववादी भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ने के तमाम प्रयास किये हैं। हाल के वर्षों में ऐसी अनेक संस्थाएँ अस्तित्व में आयी हैं जो मैतेयी लोगों के हितों की नुमाइन्दगी करने के नाम पर खुले रूप में मणिपुर की अन्य जनजातियों, जैसे कुकी और नगा के प्रति घृणा का माहौल पैदा कर रही हैं।

2024 के आम चुनावों के पहले अन्धराष्ट्रवाद व साम्प्रदायिक उन्माद की लहर उठाने की कोशिशों से सावधान रहें!

जब भी भाजपा की कोई सरकार ख़तरे में होती है तो या तो पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ होती है, या फिर कोई आतंकी हमला हो जाता है या कहीं दंगा फैल जाता है! याद करें कि गोधरा की घटना और फिर गुजरात-2002 साम्प्रदायिक नरसंहार भी 2002 के गुजरात विधानसभा चुनावों के ठीक पहले ही हुआ था। ऐसा लगता है मानो जब-जब भाजपा हार रही होती है और उसके नेता दिलो-जान से चाहते हैं कि कोई ऐसी आकस्मिक घटना घट जाये, उसी समय ऐसी आकस्मिक घटना घट ही जाती है! लेकिन पुलवामा हमले के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे भाजपा नेता सत्यपाल मलिक के साक्षात्कार और डीएसपी देविन्दर सिंह को बाद में मिली जमानत से इस आकस्मिकता पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। ये घटनाएँ कितनी इत्तेफ़ाकन थीं, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। और बार-बार भाजपा और उसकी सरकारों के संकट में आने पर अचानक “देश संकट में” कैसे आ जाता है, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं।

भाजपा की शातिर अफ़वाह मशीनरी की नयी घटिया हरकत और उसका पर्दाफ़ाश

भाजपा के आईटी सेल ने हाल ही में पाँच ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल किये जिनमें तस्वीरों में जालसाज़ी करके यह दिखलाया गया था कि तमिलनाडु में उत्तर भारत के मज़दूरों को डराया-धमकाया जा रहा है, उनके साथ गाली-गलौच और मारपीट की जा रही है। इसे पुष्ट करने के लिए भाजपा के तमिलनाडु के अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने भी द्रमुक के एक नेता के पुराने बयान को आधार बनाकर ट्वीट कर दिया।

भारत-चीन सीमा पर मामूली झड़प और फ़ासीवादी प्रचारतंत्र को मिला अन्धराष्ट्रवादी उन्माद उभारने का मौक़ा

दिसम्बर 9 को तवांग के यांगसे क्षेत्र में भारतीय सेना और चीन की सेना के बीच मुठभेड़ हुई। यह मुठभेड़ बन्दूक़ों या हथियारों से नहीं बल्कि छड़ी, डण्डे और लाठी से हुई। दोनों तरफ़ की सेना के जवानों को मामूली चोटें आयीं लेकिन किसी की मौत नहीं हुई है। अख़बारों में या समाचार चैनलों में यह ख़बर 12 दिसम्बर के बाद आनी शुरू हुई। गोदी मीडिया के चैनलों ने जवानों की इस मुठभेड़ को इस तरह प्रचारित करना शुरू किया मानो सीमा पर कोई भयंकर युद्ध चल रहा है या युद्ध की तैयारी हो रही है! वह 4 से 5 मिनट का वीडियो आप लोगों में से भी कइयों ने देखा होगा और आपको भी लगा होगा कि यह तो बेहद मामूली झड़प है अगर हम इसकी तुलना सीमा पर होने वाली लड़ाइयों से करें।

तिरंगे झण्डे पर राजनीति करने वाले संघ-भाजपा के तिरंगा प्रेम का सच!

दूसरों से बात-बात पर देशप्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण माँगने वाले संघ ने ख़ुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया? इण्डिया गेट पर योग दिवस पर दिखावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तिरंगे से अपनी नाक और पसीना पोंछते दिखे, अगर यही काम किसी ग़ैर-संघी से हो जाता तो भाजपा और संघ उसे ‘देशद्रोही’ बताने में विलम्ब नहीं करते। दरअसल संघ के लिए हर भावना, हर विचार उसके अपना उल्लू सीधा करने का हथियार है।

कश्मीर में अल्पसंख्यकों और प्रवासी मज़दूरों की हत्या की बढ़ती घटनाएँ

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस प्रकार निर्दोषों की लक्षित हत्या की बदहवास कार्रवाइयों को किसी भी रूप में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है और अन्ततोगत्वा ये कार्रवाइयाँ कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की न्यायसंगत लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करती हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन हत्याओं के लिए सीधे तौर पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के नेतृत्व में लागू की जा रही भारतीय राज्य की तानाशाहाना नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि ये नीतियाँ ही वे हालात पैदा कर रही हैं जिसकी वजह से कुछ कश्मीरी युवा बन्दूक़ उठाकर निर्दोषों का क़त्ल करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। इसलिए कश्मीर में शान्ति क़ायम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य के कन्धों पर है जिसे पूरा करने में वह नाकाम साबित हुआ है।

सशस्त्र बलों के बीच प्रचार की लेनिनवादी अवस्थिति क्या है?

“जब भी इन सेनाओं और जत्थों की सामाजिक संरचना और भ्रष्ट आचरण के चलते ऐसा अवसर उत्पन्न हो जाये; तो (सेना में) विघटन की स्थिति उत्पन्न करने के लिए आन्दोलनात्मक प्रचार के हर अनुकूल क्षण का पूरा उपयोग किया जाना चाहिए। जहाँ पर भी इसका पूँजीवादी चरित्र एकदम उजागर हो, मिसाल के तौर पर अफ़सरों की कोर में, वहाँ पूरी जनता के सामने उसे बेनक़ाब करना चाहिए तथा उन्हें इतनी अधिक घृणा और सार्वजनिक तिरस्कार का पात्र बना देना चाहिए कि अपने ख़ुद के अलगाव के कारण वे भीतर से ही विघटन के शिकार हो जायें।”

सुप्रीम कोर्ट का गुजरात दंगों पर निर्णय : फ़ासीवादी हुकूमत के दौर में पूँजीवादी न्यायपालिका की नियति का एक उदाहरण

तमाम हत्याओं, साज़िशों और एनकाउण्टर के बाद भी गुजरात दंगों का भूत बार-बार किसी-न-किसी गवाह या मामले के रूप में सामने आ ही जाता था। फ़ासीवाद की पैठ राज्यसत्ता में पहले भी थी लेकिन इस पैठ को अभी और गहरा होना था। 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह काम फ़ासीवाद ने तेज़ी से किया है। लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर संघ के वफ़ादार लोगों को बैठाया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर क्लर्क की भर्ती से लेकर आला अफ़सरों तक की भर्ती सीधे संघ से जुड़े या संघ समर्थकों की होने लगी और हो रही है। मोदी-शाह को अब अपने राजनीतिक ख़तरों से निपटने के लिए पुराने तरीक़ों के मुक़ाबले अब नये तरीक़े ज़्यादा भा रहे हैं। अब सीधे राज्य मशीनरी का इस्तेमाल इनके हाथों में है। पिछले कुछ सालों में जितनी भी राजनीतिक गिरफ़्तारियाँ हुई हैं उनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत हासिल नहीं हुआ है लेकिन उनकी रिहाई भी नहीं हुई है।