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माँगपत्रक शिक्षणमाला -7 स्त्री मज़दूर सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हैं (पहली किश्त)

उद्योगीकरण के अलग-अलग दौरों और पूँजी-संचय की प्रक्रिया के अलग-अलग चरणों में विभिन्न तरीक़ों से स्त्रियों को उन निकृष्टतम कोटि की उजरती मज़दूरों की कतारों में शामिल किया गया जो सबसे सस्ती दरों और सबसे आसान शर्तों पर अपनी श्रम शक्ति बेच सकती हों, सबसे कठिन हालात में काम कर सकती हों और घरेलू श्रम की ज़िम्मेदारियों के चलते संगठित होकर पूँजीपतियों पर सामूहिक सौदेबाज़ी का दबाव बना पाने की क्षमता जिनमें कम हो।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 6 प्रवासी मज़दूरों की दुरवस्था और उनकी माँगें मज़दूर आन्दोलन के एजेण्डा पर अहम स्थान रखती हैं

काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक ‘बेरोज़गारों की आरक्षित सेना’ में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।

पिछले इक्कीस वर्षों से जारी उदारीकरण-निजीकरण का दौर लगातार मज़दूरी के बढ़ते औपचारिकीकरण, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, ‘कैजुअलीकरण’ और ‘पीसरेटीकरण’ का दौर रहा है। नियमित/औपचारिक/स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की तादाद घटती चली गयी है, यूनियनों का रहा-सहा आधार भी सिकुड़ गया है। औद्योगिक ग्रामीण मज़दूरों की कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित/अनौपचारिक है, यूनियनों के दायरे के बाहर है (या एक हद तक है भी तो महज़ औपचारिक तौर पर) और उसकी सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त नगण्य हो गयी है। ऐसे मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में लगातर यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसका स्थायी निवास या तो है ही नहीं या है भी, तो वह वहाँ से दूर कहीं भी काम करने को बाध्य है। तात्पर्य यह कि नवउदारवाद ने मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर करके प्रवासी मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला-5 कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा हर मज़दूर का बुनियादी हक़ है!

आज देश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में जाकर पूछा जाये तो पता चलेगा कि मज़दूर हर जगह जान पर खेलकर काम कर कर रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। मुनाफ़ा बटोरने के लिए कारख़ाना मालिक सुरक्षा के सभी इन्तज़ामों, नियमों और सावधानियों को ताक पर रखकर अन्धाधुन्ध काम कराते हैं। ऊपर से लगातार काम तेज़ करने का दबाव, 12-12, 14-14 घण्टे की शिफ़्टों में हफ़्तों तक बिना किसी छुट्टी के काम की थकान और तनाव – ज़रा-सी चूक और जानलेवा दुर्घटना होते देर नहीं लगती। बहुत बार तो मज़दूर कहते रहते हैं कि इन स्थितियों में काम करना ख़तरनाक है लेकिन मालिक-मैनेजर-सुपरवाइज़र ज़बर्दस्ती काम कराते हैं और उन्हें मौत के मुँह में धकेलने का काम करते हैं। और फिर दुर्घटनाओं के बाद मामले को दबाने और मज़दूर को मुआवज़े के जायज़ हक़ से वंचित करने का खेल शुरू हो जाता है। जिन हालात में ये दुर्घटनाएँ होती हैं उन्हें अगर ठण्डी हत्याएँ कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा। कारख़ानेदार ऐसी स्थितियों में काम कराते हैं जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। श्रम विभाग सब कुछ जानकर भी आँख-कान बन्द किये रहता है। पुलिस, नेता-मन्त्री, यहाँ तक कि बहुत-से स्थानीय डॉक्टर भी मौतों पर पर्दा डालने के लिए एक गिरोह की तरह मिलकर काम करते हैं।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 4 काम की बेहतर और सुरक्षित स्थितियों की माँग इन्सानों जैसे जीवन की माँग है!

मज़दूर भाइयों और बहनों को पशुवत जीवन को ही अपनी नियति मान लेने की आदत को छोड़ देना चाहिए। हम भी इन्सान हैं। और हमें इन्सानों जैसी ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएँ मिलनी चाहिए। यह बड़े दुख की बात है कि स्वयं मज़दूर साथियों में ही कइयों को ऐसा लगता है कि हम कुछ ज्यादा माँग रहे हैं। वास्तव में, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उजरती ग़ुलाम की तरह खटने चले जाने से पैदा होने वाली मानसिकता है कि हम ख़ुद को बराबर का इन्सान मानना ही भूल जाते हैं। जीवन की भयंकर कठिन स्थितियों में जीते-जीते हम यह भूल जाते हैं कि देश की सारी धन-दौलत हम पैदा करते हैं और इसके बावजूद हमें ऐसी परिस्थितियों में जीना पड़ता है। हम भूल जाते हैं कि यह अन्याय है और इस अन्याय को हम स्वीकार कर बैठते हैं। माँगपत्रक अभियान सभी मज़दूर भाइयों और बहनों का आह्नान करता है साथियो! मत भूलो कि इस दुनिया की समस्त सम्पदा को रचने वाले हम हैं! हमें इन्सानों जैसे जीवन का अधिकार है! काम, आराम, मनोरंजन हमारा हक़ है! क्या हम महज़ कोल्हू के बैल के समान खटते रहने और धनपशुओं की तिजोरियाँ भरने के लिए जन्म लेते हैं? नहीं! हमें काम की जगह पर उपरोक्त सभी अधिकारों के लिए लड़ना होगा। अपने दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि हम कुछ भी ज्यादा माँग रहे हैं। हम तो वह माँग रहे हैं जो न्यूनतम है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 3 ठेका प्रथा के ख़ात्मे की माँग पूँजीवाद की एक आम प्रवृत्ति पर चोट करती है

मजदूर वर्ग के ही एक हिस्से को यह लगने लगा है कि ठेका प्रथा की समाप्ति की माँग करना शेखचिल्ली जैसी बात करना है। सवाल यहाँ यह नहीं है कि ठेका प्रथा इस माँग के जरिये समाप्त हो ही जायेगी या नहीं। यहाँ सवाल इस बात का है कि हम चाहे ठेका प्रथा को समाप्त करवा पायें या न करवा पायें, इसे समाप्त करने की माँग करना अपने आप में पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति पर चोट है। यह मजदूरों को राजनीतिक तौर पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करने में हमारी मदद करेगा और पूँजीवाद को उनके समक्ष बेपरदा कर देगा। हमें इस माँग के संघर्ष में कुछ भी खोना नहीं है, सिर्फ पाना ही पाना है।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 2 कार्य-दिवस का प्रश्न मज़दूर वर्ग के लिए एक महत्‍वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न है, महज़ आर्थिक नहीं

मज़दूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के चलते इस माँग को ज़रूरत से ज्यादा माँगना समझ सकता है। लेकिन हमें यह बात समझनी होगी कि मानव चेतना और सभ्यता के आगे जाने के साथ हर मनुष्य को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह भी भौतिक उत्पादन के अतिरिक्त सांस्कृतिक, बौध्दिक उत्पादन और राजनीति में भाग ले सके; उसे मनोरंजन और परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका मिलना चाहिए। दरअसल, यह हमारा मानवाधिकार है। लेकिन लम्बे समय तक पूँजीपति वर्ग ने हमें पाशविक स्थितियों में रहने को मजबूर किया है और हमारा अस्तित्व महज़ पाशविक कार्य करने तक सीमित होकर रह गया है, जैसे कि भोजन करना, प्रजनन करना, आदि। लेकिन मानव होने का अर्थ क्या सिर्फ यही है? हम जो दुनिया के हरेक सामान को बनाते हैं, यह अच्छी तरह से जानते हैं कि दुनिया आज हमारी मेहनत के बूते कहाँ पहुँच चुकी है। लेकिन हम अपनी ही मेहनत के इन शानदार फलों का उपभोग नहीं कर सकते। ऐसे में अगर हम इन पर हक की माँग करते हैं तो इसमें नाजायज़ क्या है? इसलिए हमें इनसान के तौर पर ज़िन्दगी जीने के अपने अधिकार को समझना होगा। हम सिर्फ पूँजीपतियों के लिए मुनाफा पैदा करने, जानवरों की तरह जीने और फिर जानवरों की तरह मर जाने के लिए नहीं पैदा हुए हैं। जब हम यह समझ जायेंगे तो जान जायेंगे कि हम कुछ अधिक नहीं माँग रहे हैं। इसलिए हमारी दूरगामी माँग है – ‘काम के घण्टे छह करो!’ और हम छह घण्टे के कार्य-दिवस का कानून बनाने के लिए संघर्ष करेंगे।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 1 काम के दिन की उचित लम्बाई और उसके लिए उचित मज़दूरी मज़दूर वर्ग की न्यायसंगत और प्रमुख माँग है!

दुनियाभर के मज़दूर आन्दोलन में काम के दिन की उचित लम्बाई और उसके लिए उचित मज़दूरी का भुगतान एक प्रमुख मुद्दा रहा है। 1886 में हुआ शिकागो का महान मज़दूर आन्दोलन इसी मुद्दे को केन्द्र में रखकर हुआ था। मई दिवस शिकागो के मज़दूरों के इसी आन्दोलन की याद में मनाया जाता है। 1886 की पहली मई को शिकागो की सड़कों पर लाखों की संख्या में उतरकर मज़दूरों ने यह माँग की थी कि वे इंसानों जैसे जीवन के हकदार हैं। वे कारख़ानों और वर्कशॉपों में जानवरों की तरह 14 से 16 घण्टे और कई बार तो 18 घण्टे तक खटने को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने ‘आठ घण्टे काम,आठ घण्टे आराम और आठ घण्टे मनोरंजन’ का नारा दिया। कालान्तर में दुनियाभर के पूँजीपति वर्गों को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन ने इस बात के लिए मजबूर किया कि वे कम-से-कम कानूनी और काग़ज़ी तौर पर मज़दूर वर्ग को आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार दें। यह एक दीगर बात है कि आज कई ऐसे कानून बन गये हैं जो मज़दूर वर्ग के संघर्षों द्वारा अर्जित इस अधिकार में चोर दरवाज़े से हेर-फेर करते हैं और यह कि दुनियाभर में इस कानून को अधिकांशत: लागू ही नहीं किया जाता। आमतौर पर मज़दूर 12-14 घण्टे खटने के बाद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं पाते।

बिगुल पुस्तिका – 16 : फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?

असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फ़ासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फ़ासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी

रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बर्दस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आख़िरी साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम ‘बिगुल’ के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।

पार्टी की बुनियादी समझदारी (पैंतीसवीं किस्त)

क्रान्तिकारी कामों का मुख्य आधार बनने के लिए, उन्हें तीन महान क्रान्तिकारी संघर्षों में अनुकरणीय हरावल भूमिना निभानी चाहिए। मार्क्सवादी–लेनिनवादी क्लासिकीय रचनाओं और अध्यक्ष माओ की रचनाओं का अध्ययन करने में उन्हें अगली कतारों में होना चाहिए, वर्ग शत्रु से संघर्ष में शामिल होने में अग्रणी होना चाहिए, उत्पादन के लक्ष्यों को पूरा करने, वैज्ञानिक प्रयोगों को जारी रखने और दिक्कतों से पार पाने में अग्रणी होना चाहिए। पार्टी और राज्य द्वारा सौंपे गये सारे कामों को पूरा करने के लिए उन्हें जनसमुदायों को एकजुट करना चाहिए और उनकी अगुवाई करनी चाहिए।