बोलते आँकड़े, चीखती सच्चाइयाँ!
मानव
ऑक्सफैम की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अमीर और गरीब आबादी के बीच आर्थिक गैर-बराबरी इतिहास के पहले किसी भी दौर से ज्यादा हो चुकी है। 2008 से शुरू हुए आर्थिक संकट के बाद से तो यह गैर-बराबरी और अधिक गति से बढ़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 62 सबसे अमीर व्यक्तियों की कुल संपदा विश्व की 50% सबसे गरीब आबादी की संपदा के बराबर है, यानी 62 व्यक्तियों की कुल संपदा 350 करोड़ लोगों की संपदा के बराबर है! 2010 के बाद से दुनिया की सबसे गरीब आबादी में से 50 फीसदी की संपत्ति करीब 1,000 अरब डॉलर घटी है। यानी उनकी संपत्ति में 41% की जोरदार गिरावट आई है। रिपोर्ट के अनुसार 2010 में दुनिया की सबसे गरीब आबादी के 50 फीसदी के पास जितनी धन संपदा थी, उतनी ही संपत्ति दुनिया के 388 सबसे अधिक अमीर लोगों के पास थी. उसके बाद यह आंकड़ा लगातार घट रहा है. 2011 में यह घटकर 177 पर आ गया है, 2012 में 159, 2013 में 92 और 2014 में 80 पर आ गया।
अगर भारत की बात करें तो यहाँ के अमीरों का भी ऊपरी 1% हिस्सा देश की कुल संपदा का 50% हिस्सा रखता है। भारतीय अमीरों के ऊपरी 10% हिस्से की संपदा यहाँ के निचले 10% लोगों की संपदा से 370 गुना ज्यादा है! यानी अगर मान लें कि इस तबके का मज़दूर महीने में 5000/- कमाता है तो देश का ऊपरी 10 प्रतिशत अमीर तबका औसतन 5000 x 370 = 18,50,000 रुपए हर महीने कमाता है!
इन आंकड़ों से हम साफ़ देख सकते हैं कि किस तरह यह मुनाफे पर टिका पूँजीवादी ढांचा जनता के बड़े हिस्से को लगातार आर्थिक संसाधनों से भी वंचित करता जा रहा है। यह गैर-बराबरी किसी सरकार की गलत नीतियों की वजह से नहीं है बल्कि इस पूरे ढाँचे की नैसर्गिक अंतर्गति में निहित है। यह आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि इस पूँजीवादी ढाँचे के बारे में मार्क्स का किया गया विश्लेषण एकदम सटीक था कि कैसे व्यापक आबादी की कीमत पर इस पूँजीवादी ढाँचे में पूँजी का संकेन्द्रण (concentration) और centralisation बढ़ता जाता है। इस पूँजीवादी ढाँचे में उजरत और मुनाफे के बीच लगातार एक शत्रुतापूर्ण विरोध चलता रहता है जिसका समाधान केवल इस निजी संपत्ति पर आधारित व्यवस्था को उखाड़ कर ही किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016
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