कांग्रेस का मुस्लिम प्रेम एक छलावा है!
बागेश्वरी
देश में मुस्लिमों की वास्तविक स्थिति का बयान करने वाली सच्चर समिति की रिपोर्ट के संसद में पेश होते ही सारी चुनावबाज़ पार्टियों को एक मुद्दा मिल गया है गोया वे मुसलमानों की इस स्थिति से अभी तक अनजान हों। कोई इस पर साम्प्रदायिकता की रोटी सेंकना चाहता है तो कोई अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की कोशिश में लगा हुआ है। अब कोई इनसे पूछे कि आख़िर ये अब तक कहाँ थे और यह चिल्ल-पों विधानसभा चुनाव के ऐन पहले ही क्यों?
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कोई नया तथ्य नहीं प्रस्तुत कर रही है। मुसलमानों की दोयम दर्जे की स्थिति एक नंगी सच्चाई है और यह भी सच है कि इससे एक पार्थक्य पैदा होता है।
यदि वास्तविक स्थिति पर नज़र डाली जाये तो इस देश की कुल आबादी के अनुपात में 13.4 फ़ीसदी मुसलमान हैं। इन मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक स्थिति बद से बदतर है। इनके बच्चों की मृत्यु का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है, बाल मज़दूरों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। देश के बुनकर उद्योग, चूड़ी उद्योग, पटाखों की फैक्ट्री आदि जैसे उद्योगों में मुस्लिम आबादी से आये बच्चों की संख्या सबसे ज़्यादा है। इसके विपरीत शिक्षा तथा नौकरियों में इनका प्रतिशत बहुत ही कम है। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे मुसलमानों की अच्छी-ख़ासी आबादी वाले राज्यों में ही मुसलमानों की हालत सबसे ज़्यादा खराब है। जबकि इन राज्यों में वाम दल तथा तथाकथित सेक्यूलर पार्टियाँ कई बार सत्ता में रही हैं और अपने मुस्लिम प्रेम का जब-तब ढिंढोरा पीटती रही हैं।
दूसरी तरफ़, सांप्रदायिक दलों के मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों के बावजूद सच्चाई यह है कि मुसलमानों की भारी आबादी गरीबी, अशिक्षा और अपमानजनक स्थितियों में जी रही है। न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला कमीशन की रिपोर्ट में साफ़ कहा गया था कि आज़ादी के बाद से अब तक हुए दंगों में मुसलमानों के जानमाल का नुकसान सबसे ज़्यादा हुआ है। आई.पी.एस. अधिकारी विभूति नारायण राय की पुस्तक में इस तथ्य का हवाला दिया गया है कि दंगों में पुलिस-प्रशासन बाकायदा एक हिन्दू पक्ष के रूप में काम करते हैं।
सर्वविदित है कि मुस्लिम आबादी को वोट बैंक के रूप में ही देखा जाता है और धर्म को सिक्के के रूप में वोट बैंक की राजनीति में इस्तेमाल किया जाता रहा है। मुस्लिम आबादी के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने की दिशा में किसी भी पार्टी ने अभी तक कोई काम नहीं किया है। इधर धार्मिक नेता भी अपना उल्लू सीधा करने के लिए इन्हें पिछड़ेपन में जकड़े रहना चाहते हैं, ये आम मुस्लिम आबादी की दुर्दशा की बात नहीं करते हैं। बल्कि इसके विपरीत धार्मिक कट्टरपंथ को बनाये रखने का काम मुस्लिम कट्टरपंथ बखूबी करता है। इस मुस्लिम कट्टरपंथ के खेल का फ़ायदा भी हिन्दू धार्मिक कट्टरपंथ ही उठाता है।
मुस्लिम हितों की नुमाइन्दगी का दम भरने का दावा करने वाले दो धार्मिक संयुक्त मोर्चे भी इधर बन गये हैं, वी.पी.सिंह का जनमोर्चा भी इसमें पीछे नहीं है तो कांग्रेस को भी उनकी याद आने लगी है और उसका मुस्लिम प्रेम फिर से जाग गया है। आनन-फानन में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पेश करके उसने अपने को मुसलमानों का हितैषी साबित करने की एक बार फिर कोशिश की है। यह कांग्रेस का मुस्लिम प्रेम है या वोट बैंक की राजनीति, इसको जानने के लिए एक बार पीछे लौटना और देखना ज़रूरी है कि वोट बैंक की इस राजनीति में इसने क्या-क्या गुल खिलाये हैं—कौन नहीं जानता कि 1980 में अकाली दल के चुनावी आधार को खिसकाने की रणनीति के तहत इसने सिख कट्टरवाद को सचेतन रूप से बढ़ाया था। भिण्डरावाले पहले कांग्रेस का कार्यकर्ता था। यह अलग बात है कि आगे चलकर कांग्रेस द्वारा खेला गया यह खेल उसके अपने ही नियन्त्रण से बाहर चला गया। ठीक इसी समय वह दूसरी तरफ़ हिन्दी भाषी क्षेत्र में हिन्दू ‘कार्ड’ खेल रही थी। कांग्रेस जम्मू में भाजपा का वोट बैंक खिसकाने के लिए हिन्दू कार्ड खेलती है तो कश्मीर घाटी में पाकिस्तान विरोधी तेवर इस्तेमाल करती है। अपनी इसी चुनावी रणनीति के तहत राजीव गाँधी द्वारा 1984 में बाबरी मस्जिद परिसर का ताला खुलता है, 6 दिसम्बर 1992 की घटना में नरसिंह राव की सरकार की परोक्ष भूमिका सर्वविदित ही है। अयोध्या मुद्दे को भड़काने और धार्मिक कट्टरपंथ को पनपाने में कांग्रेस ने जो घृणित भूमिका निभाई है यह किसी से छिपी नहीं है, अब चुनाव के ऐन पहले अचानक जाग उठे उसके इस मुस्लिम प्रेम के पीछे की मंशा को आसानी से समझा जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस का मुस्लिम आबादी में आधार था। 1980 के दशक में हिन्दू वोट बैंक जीतने की रणनीति के तहत उपरोक्त कार्रवाइयों से मुस्लिम आबादी से कांग्रेस का आधार खिसक गया।
अयोध्या की त्रासदी का जो कलंक कांग्रेस के माथे लगा हुआ है उसे धोने के लिए और मुसलमानों के खोये हुए आधार को पुन: हासिल करने के लिए सच्चर कमेटी के माध्यम से मुस्लिम प्रेम का जो ड्रामा रचा गया है उस ड्रामे को खेलने की अनुकूल स्थितियाँ भी कांग्रेस को सामने दिखाई दे रही हैं। तमाम प्रयासों के बाद भी धार्मिक जुनून की लहर भाजपा उठा नहीं पा रही है, इससे कांग्रेस की मुसलमानों में अपने खोये हुए आधार को पुन: पा लेने की उम्मीदें बढ़ी हैं, ऐसे में 1992 की स्मृतियों को यदि जनता भुला सके तो मुस्लिम प्रेम की इस नैया पर सवार होकर कांग्रेस चुनावी वैतरणी को पार कर लेने का मंसूबा पाले हुए है। और उसका मुस्लिम प्रेम इस समय पूरे उफान पर है। उधर इस वोटबैंक को अपनी ओर खींचने की कवायद में वामदल से लेकर मुलायम सिंह, वी.पी.सिंह व मायावती सहित सभी पार्टियाँ जी-जान से लग गयी हैं और भाजपा के पास तो इस मुद्दे पर अपना पुराना राग छेड़ने के सिवा कोई रास्ता बचा है नहीं। ऐसे में चुनावी मदारियों के इन तमाशों की असलियत को समझने और उसका पर्दाफ़ाश करने की ज़रूरत आज सबसे ज़्यादा है। सोचना यह है कि आख़िर कब तक चुनावी राजनीति के ये शैतान जनता को बेवकूफ़ बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे।
बिगुल, दिसम्बर 2006-जनवरी 2007
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