बिगुल के लिए कविता
जगविन्द्र सिंह, बलराज नगर, कैथल
हम तो बस इसी बहाने निकले हैं
धरती की गोद में बैठकर आसमाँ को झुकाने निकले हैं
जुल्मतों के दौर से, इन्साँ को बचाने निकले हैं
विज्ञान की ज्वाला जलाकर, अँधेरा मिटाने निकले हैं
हम इंसान है, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं
हम अन्धविश्वास को दहलाने निकले हैं
हम ग़रीबों की भूख मिटाने निकले हैं
हम किसी धर्म-मजहब के नहीं
हम तो धर्म-जात की नफ़रतों को मिटाने निकले हैं
हम इंसानों को जगाने निकले हैं
हम तो लोगों को मिलाने निकले हैं
शहीदों के देश में, ये अहसास दिलाने निकले हैं
किस तरह बलिदानों से स्वतन्त्रता दिलायी
ये फिर बतलाने निकले हैं
भगतसिंह, शहीद सराभा को सुनाने निकले हैं
हम इंसानों को जगाने निकले हैं
हम इंसान हैं, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं
हम जवानों को जवानी का मतलब समझाने निकले हैं
नशे की महामारी से बचाने निकले हैं
हम विज्ञान की ज्वाला से पाखण्ड को मिटाने निकले हैं
हम इंसानों को जगाने निकले हैं
हम इंसान हैं, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं
क्यूँ मुज़फ़्फ़रनगर जला, क्यूँ गुज़रात सुलगा
क्यूँ बच्चे मारे पेट में, क्यूँ नारी का अपमान हुआ
हम वो राज बताने निकले हैं
हम लोगों की आँखों से अँधकार मिटाने निकले हैं
अब अगर तू ना समझा जेवी,
आगे क्या अंजाम होगा मेरे देश का
हम वो अनुमान लगाने निकले हैं
हम इंसानों को जगाने निकले हैं
हम इंसान हैं, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016
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