क्या मेहनतकश के लिए “ख़ुशी” का मतलब यही है?
नवमीत
कुछ महीने पहले एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी “एल जी” और एक गैर सरकारी संगठन “आई.एम.आर.बी. इंटरनेशनल” के सर्वे में चंडीगढ़ को भारत का सबसे “ख़ुश रहने वाला” शहर घोषित किया गया। 16 शहरों में किये गये इस सर्वे में चंडीगढ़ के बाद दूसरा स्थान लखनऊ और तीसरा स्थान दिल्ली को मिला। मतलब यह कि इन शहरों में रहने वाले लोग सबसे ज़्यादा ख़ुश रहते हैं। सर्वे में पाया गया कि भारतीयों के लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण चीज “ख़ुशी” है, बाकी चीजें जैसे “आदर”, “विश्वास”, “सफलता” आदि का नंबर “ख़ुशी” के बाद ही आता है। जाहिर है इस सर्वे में खाया-पिया वर्ग ही शामिल किया गया था क्योंकि मेहनतकश वर्ग के लिए तो पहली प्राथमिकता रोटी होती है, पेट भरा होने पर ही ख़ुशी महसूस की जा सकती है। लेकिन पूँजीवाद को मेहनतकश की ख़ुशी से कुछ लेना देना नहीं होता। उसको मेहनतकश की ज़रूरत सिर्फ इसलिए होती है क्योंकि मेहनतकश अपनी मेहनत से इसके लिए मुनाफा पैदा करता है। इस काम के लिए पूँजीवाद मेहनतकश मज़दूर को सिर्फ मुश्किल से जीने लायक सुविधा ही मुहैया करवाता है जिनसे यह वर्ग बहुत मुश्किल से पेट भी नहीं भर पाता, ऐसे सर्वे में भाग लेना तो बहुत दूर की बात है।
बहरहाल इस “ख़ुशी” का एक दूसरा पहलू भी है। सर्वे में सबसे ख़ुश पाए गये शहर चंडीगढ़ में 5 साल से कम आयु के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। दूसरे स्थान पर आये लखनऊ में यही आंकड़ा 54 प्रतिशत का है। देश की राजधानी दिल्ली की झुग्गियों में यह आंकड़ा 66 प्रतिशत तक जा पहुँचता है। पूरे देश की बात की जाये तो भारत में यह आंकड़ा 38 प्रतिशत का है। यानि पूरे भारत में करोड़ों बच्चे पर्याप्त मात्रा में भोजन न मिल पाने के कारण कुपोषण का शिकार हैं। जाहिर है कि बच्चे कुपोषित इसीलिए होते हैं क्योंकि उनको भरपेट खाना नहीं मिल पाता। क्योंकि उनके माता पिता दिन रात कमरतोड़ मेहनत करके भी अपने और अपने बच्चों के लिए दो टाइम की रोटी नहीं जुटा पाते। सिर्फ खाना ही नहीं गरीबों को तो पीने के पानी तक के लाले पड़े हुए हैं। गरीबों की बस्तियों और कॉलोनियों में अव्वल तो पानी की सप्लाई ही बहुत कम होती है और जो होती है वो पानी बेहद दूषित होता है। देश के 195,813 घरों को रासायनिक रूप से प्रदूषित पानी पर निर्भर रहना पड़ता है। लगभग 377 लाख भारतीय हर साल पानी से होने वाली बीमारियों से प्रभावित होते हैं। भारत में खराब पानी के कारण होने वाली बीमारियाँ कुल बीमारियों का 59 प्रतिशत है। अगर उपलब्धता की बात की जाये तो दिल्ली में ही औसत प्रति व्यक्ति घरेलू जल की उपलब्धता 200 लीटर है जबकि शहर के 30 फीसदी लोगों को 25 लीटर से भी कम पानी प्राप्त होता है। उच्च वर्ग के लोगों की कार को धोने में कितना ही पानी बर्बाद कर दिया जाता है, वहीं मेहनतकश आबादी सुबह से रात तक टोंटी में पानी आने की प्रतीक्षा करती रहती है.
यह तो हुई बात रोटी और पानी की, जिसके बारे में कहने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि ख़ुद भारत सरकार के आंकड़े ही इस सरकारी बेशर्मी की गवाही दे देते हैं। लेकिन जिस तरह से जिन्दा रहने के लिए रोटी पानी की ज़रूरत होती है उसी तरह “रहने” के लिए सर के ऊपर छत की ज़रूरत होती है। यूपीए सरकार के समय से ही शहरों को झुग्गी मुक्त बनाने की योजना पर काम शुरू हो गया था। योजना के अंतर्गत सबसे पहला काम तो यही था कि झुग्गियों को तोड़ दिया जाये। पिछले साल ही मोदी सरकार ने “स्मार्ट सिटी” नाम से एक नया जुमला इसी कवायद में जोड़ दिया। स्मार्ट सिटी मतलब ‘स्मार्ट’ लोगों के लिए सुंदर और हर सुविधा से परिपूर्ण ‘डिजिटलाइज्ड’ शहर। लेकिन ये स्मार्ट लोग हैं कौन? ये स्मार्ट लोग हैं खाये पिये अघाये उच्च और उच्च-मध्यम वर्ग के लोग। जाहिर है इस स्मार्ट सिटी को बनाने में सारी मेहनत तो करेंगे मेहनतकश मज़दूर और इसमें रहेंगे उच्च वर्ग के “ख़ुशी वाले सर्वे” में भाग लेने वाले ख़ुशहाल लोग। तो मज़दूर कहाँ जायेंगे? सुंदर स्मार्ट शहर में गरीबों के लिए जगह कैसे हो सकती है?
चंडीगढ़ का ही उदाहरण हमारे सामने है। चलिए देखते हैं कि चंडीगढ़, जोकि ‘ख़ुशहाल’ और सुंदर तो पहले ही था, को और भी ज़्यादा सुंदर, स्मार्ट और झुग्गीमुक्त बनाने के लिए क्या क्या कदम उठाये जा रहे हैं? आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत आने वाले “राष्ट्रीय भवन निर्माण संगठन” के आंकड़ों के अनुसार 2001 में ही चंडीगढ़ की झुग्गियों में 208057 लोग रहते थे। सरकार का कहना था कि इन सभी को झुग्गियों की बजाए अच्छे फ़्लैट मिलने चाहिए। बहुत अच्छी बात है। लेकिन इसके लिए सरकार ने असल में किया क्या? आइये देखें। इन लोगों के लिए 2006 में चंडीगढ़ हाउसिंग बोर्ड एक स्कीम लेकर आया जिसके अंतर्गत चंडीगढ़ को झुग्गी मुक्त बनाया जाना था और 25728 छोटे फ्लैट बना कर झुग्गियों में रहने वाले लोगों को दिए जाने थे। लेकिन इनमे से सिर्फ 12864 फ़्लैट ही बनाये गये और 2014 में हाउसिंग बोर्ड ने फंड की कमी का बहाना बना कर इस स्कीम से पल्ला झाड लिया। इस तरह से प्रशासन ने फ़्लैट बना कर देने से तो हाथ खींच लिया लेकिन चंडीगढ़ को झुग्गी ‘मुक्त’ बनाने का काम जारी रखा। चंडीगढ़ हाउसिंग बोर्ड के अनुसार चंडीगढ़ में 18 मज़दूर बस्तियाँ थीं जिनमे से 9 बस्तियों और कॉलोनियों को 2009 से 2015 के बीच में तोड़ दिया गया। इनमें से भी 7 बस्तियों को सिर्फ 20 महीने के अंदर ही तोड़ा गया है जिसमें हज़ारों लोग बेघर हुए। नवम्बर 2013 में चंडीगढ़ की सबसे बड़ी और पुरानी कॉलोनी, कॉलोनी नं 5, जो लगभग 100 एकड़ में फैली थी और इसमें लगभग 50 हजार लोग रहते थे, तोड़ दी गयी। हाड़ कँपा देने सर्दी में हजारों परिवार देखते ही देखते सड़क पर आ गये। इनमें से एक चौथाई को ही प्रशासन द्वारा बनाये गये एक कमरे वाले फ्लैटों में जगह मिल पायी। पिछले साल फिर से चंडीगढ़ यानि सिटी ब्यूटीफुल को “ब्यूटीफुल” बनाये रखने के लिए सेक्टर 51 और 52 के साथ लगती 6 मज़दूर बस्तियों को तहस-नहस कर दिया गया। 3700 झुग्गियों को 2000 पुलिसकर्मियों की मदद से प्रशासन ने बात की बात में ज़मींदोज़ कर दिया। हज़ारों लोग बेघर हो गये। चंडीगढ़ को ख़ुशनुमा और सुंदर बनाने के लिए इन लोगों ने ही मेहनत की थी लेकिन अब ख़ुश लोगों के शहर को इनकी ज़रूरत नहीं रह गई थी। पिछली बार यह काम नवम्बर की सर्दी में हुआ तो इस बार मई की तपती गर्मी में हजारों लोगों को उनके घरों से बाहर कर दिया गया।
प्रशासन का बहाना यह था कि झुग्गियों की जगह लोगों को फ़्लैट दिये जायेंगे लेकिन हक़ीक़त में प्रशासन ने फ़्लैट देने के लिए इतने नियम क़ानून अड़ा दिये कि अधिकतर लोगों को कुछ नहीं मिला। प्रशासन का कहना है कि सरकारी फ़्लैट सिर्फ उन लोगों को दिये जायेंगे जिनके पास प्रमाणपत्र या झुग्गी के कागज़ होंगे। दूसरा जिन लोगों के पिछले चुनाव में मतदाता सूची में नाम होंगे। तीसरा कुछ समय पहले प्रशासन ने झुग्गियों में रहने वाले लोगों के बायोमेट्रिक फिंगर प्रिंट लिए थे। अब मकान उन्हीं को मिलेंगे जिनके फिंगर प्रिंट होंगे। लेकिन सबको पता होता है कि झुग्गियों में रहने वाले अधिकतर लोगों के पास कोई पहचान पत्र जैसा कुछ नहीं होता। दूसरा बायोमेट्रिक फिंगर प्रिंटिंग में भी सभी के फिंगर प्रिंट नहीं लिये गये थे। ऐसे में ये सभी मापदंड पूरे करना अधिकतर के लिए संभव ही नहीं था। साफ है कि प्रशासन असल में सबको मकान देना ही नहीं चाहता था। उसका मकसद तो शहर से झुग्गी रूपी “गंदगी” को साफ करना था। बहरहाल गरीबों कुछ मिलना नहीं था सो नहीं मिला। इस तरह से सबकुछ छिन जाने के बाद कुछ लोग तो वापस अपने गांवों में चले गये लेकिन ज़्यादातर लोग दशकों ये यहीं रह रहे थे जिनके पास इसके अलावा और कोई जगह थी ही नहीं जाने की। हजारों बच्चों को स्कूलों से नाम कटाना पड़ा। लोगों ने अपनी तरफ से बात समझाने की कोशिश भी की लेकिन प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। जिन लोगों को फ़्लैट दिये भी गये हैं वे भी कोई मुफ्त नहीं हैं। इनकी लागत भी सरकार किश्तों के रूप में उन्हीं गरीबों से वसूलने वाली है। मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाने वाले लोग ये किश्तें कैसे चुका सकते हैं? लेकिन यह कहानी सिर्फ चंडीगढ़ की नहीं है बल्कि पूरे देश की है। दो साल पहले बंगलूरू में भी इजीपुरा नामक मज़दूर बस्ती को प्रशासन और रियल स्टेट माफिया की मिलीभगत से उजाड़ दिया गया। 1500 परिवारों के लगभग 8000 लोग पलक झपकते ही बेघर हो गये। 2009 में समयपुर बादली, दिल्ली के सूरजपुर इलाके की झुग्गी को सुरक्षाबलों के 1500 जवानों की मदद से तोड़ दिया गया था और लगभग 5000 लोग सडक पर आ गये थे। इन लोगों को यहाँ से इसलिए हटाया गया था क्योंकि यहाँ कॉमनवेल्थ खेलों के लिए कोई निर्माण किया जाना था, ताकि दूसरे लोग खेल देख कर “ख़ुश” हो सकें। कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर दिल्ली से 2 लाख से भी ज़्यादा लोगों को उजाड़ दिया गया। यही कहानी दिसम्बर 2015 में फिर दोहराई गयी जब मोदी सरकार के रेलवे ने शकूरपुर में 500 झुग्गियों को रौंदकर हज़ारों लोगों को भयंकर सर्दी में सड़कों पर धकेल दिया।
जहाँ एक तरफ प्रशासन की यह दमनकारी कार्रवाई चल रही थी, वहीँ दूसरी ओर बिग बॉस और ए.आई.बी. जैसे वाहियात कार्यक्रम चलाने वाले मीडिया ने इसको दिखाना तक ज़रूरी नहीं समझा। कुछ न्यूज़ चैनलों और अखबारों ने ख़बर को जगह भी दी तो ऐसे कि जैसे कसूर असल में इन्हीं झुग्गी वालों का था। न्यूज़ चैनलों ने बेशर्मी से प्रचारित किया कि झुग्गियों का हटना ख़ुशख़बरी है और ‘सिटी ब्यूटीफुल’ अब सही मायने में ब्यूटीफुल बनेगा। शहर की ज़मीन पर झुग्गी वालों ने कब्ज़ा कर रखा था जो प्रशासन के अथक प्रयासों के बाद छुट पाया है। एक दो अख़बारों ने तो यह तक लिखा कि झुग्गियों में रहने वाले लोग ग़रीब नहीं बल्कि खाते-पीते अमीर हैं क्योंकि उनके घरों में “ऐयाशी के साधन” यानी रंगीन टेलीविज़न थे। ये लोग जानबूझ कर शहर को ‘गंदा’ करते हैं। सिर्फ मीडिया ही नहीं खाये-पिये-अघाये वर्ग का एक बड़ा तबका भी इसी तरह बस्ती वालों को ही शहर को गन्दा करने के लिए ज़िम्मेवार ठहरा रहा था।
पूँजीवाद का यह निर्मम रूप है जहाँ एक तरफ ख़ुशी दिखाने के सर्वे किये जाते हैं और दूसरी तरफ मेहनतकश वर्ग के लोगों के सर से छत और उनके बच्चों के मुँह से निवाला छीन लिया जाता है। क्या इन लोगों से पूछा जाता है कि ये कितने ख़ुश हैं? मेहनतकश की यही आबादी हर तरह के उत्पादन के लिए दिन रात हाड़तोड़ मेहनत करती है। इसी आबादी के खून-पसीने से चंडीगढ़ जैसे शहरों की सुन्दरता बन पाती है और इन शहरों में रहने वाले खाये-पिये-अघाये वर्ग की ‘ख़ुशहाली’ होती है। लेकिन यही आबादी अपने बच्चों के लिए रोटी तक जुटा नहीं पाती और अब तो हालात ये हैं कि इस आबादी के सर पर कच्ची छत तक नहीं रहने दी जा रही। खाये- पिये वर्गों की ख़ुशी के लिए करोड़ों मेहनतकश पूँजीवाद का यह अभिशाप झेलने को मजबूर हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि मानवता का ख़ून पीने वाली मुनाफ़े पर टिकी हुई इस पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाये और मेहनतकश के लोक स्वराज का निर्माण किया जाये। केवल तभी मानवता को इस अभिशाप से मुक्ति मिल सकती है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2015
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