डिलीवरी मज़दूरों के निर्मम शोषण पर टिका है ई-कॉमर्स का कारोबार

आनन्द सिंह

delivery boyपीठ पर विशालकाय बैग लादे, ग्राहकों तक माल पहुँचाने की हड़बड़ी में तेज़ रफ्तार बाइक चलाते हुए कुछ लोगों को आपने अक्सर सड़कों पर देखा होगा। वे फ्लिपकार्ट, अमेज़न और स्नैपडील जैसी ई-कॉमर्स कम्पनियों के डिलीवरी मज़दूर होते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ऑनलाइन शॉपिंग के कारोबार में ज़बर्दस्त बढ़ोतरी देखने में आयी है। अब यह 1 लाख करोड़ रुपये से भी ज़्यादा का कारोबार हो चुका है। पूँजीवादी मीडिया और खाया-पीया-अघाया मध्य वर्ग इन ऑनलाइन शॉपिंग की कम्पनियों का अक्सर गुणगान करते हुए पाया जाता है। उन्हें माउस का बटन दबाने भर से ही ज़रूरत और विलासिता की सभी चीज़ें उनके घर तक डिलीवर जो हो जाती हैं! लेकिन ये खाया-पीया-अघाया तबका अगर इस ऑनलाइन शॉपिंग के कारोबार की कार्य-प्रणाली पर नज़र दौड़ाने की ज़हमत उठाये तो वह पायेगा कि ये कम्पनियाँ उसकी ज़िन्दगी में सहूलियत इसीलिए ला पाती हैं क्योंकि वे उनके लिए काम करने वाले डिलीवरी मज़दूरों का भयंकर शोषण करती हैं। आज इन तमाम ई-कॉमर्स कम्पनियों के लिए काम करने वाले डिलीवरी मज़दूरों की संख्या लाख का आँकड़ा पार कर चुकी है। 21वीं सदी में पूँजीवाद ने उत्पादन के तौर-तरीकों में तो अहम बदलाव किये ही हैं, साथ ही साथ उत्पादों के वितरण के तौर-तरीकों में भी बहुत तेज़ी से बदलाव देखने को आ रहा है। ऐसे में ऑनलाइन शॉपिंग की इस नयी कार्यप्रणाली को समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है।

ई-कॉमर्स के कारोबार में बढ़त की वजह यह है कि अपनी ज़रूरत व विलासिता के जिन साज़ो-समान के लिए मध्य वर्ग और उच्च वर्ग को बाज़ार में जाने की ज़हमत उठानी पड़ती थी, वो अब उतने ही दामों में और यहाँ तक कि उससे भी कम दामों में घर बैठे मिल जाते हैं। इंटरनेट और ऑनलाइन बैंकिंग के प्रसार ने ऑनलाइन शॉपिंग के लिए ज़रूरी बुनियादी ढाँचा तैयार किया है। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि फ्लि‍पकार्ट, अमेज़न व स्नैपडील जैसी ऑनलाइन शॉपिंग की कम्पनियाँ इतने सस्ते दाम पर चीज़ों को कैसे बेच पाती हैं। मार्क्सवादी विज्ञान हमें बताता है कि मालों के दाम उनके विनिमय मूल्य के आधार पर तय होते हैं जिसका स्रोत उत्पादन में लगे मज़दूरों का श्रम होता है। मालों में मूल्य पैदा करने के बावजूद मज़दूरों को कुल उत्पादित मूल्य का एक बेहद छोटा हिस्सा ही मज़दूरी के रूप में मिलता है जबकि बड़ा हिस्सा (अधिशेष) पूँजीपति हड़प जाता है। हड़पे गए अधिशेष में से ही पूँजीपति मुनाफ़ा कमाता है एवं उसी में से वह वितरण के क्षेत्र में व्यापारियों, आढ़तियों एवं दुकानदारों के बीच बंदरबाँट भी करता है।

पारम्परिक दुकानदार को एक दुकान लेनी पड़ती है और ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उसके रख-रखाव पर ख़र्च करना पड़ता है। ऑनलाइन शॉपिंग की कम्पनियाँ इस ख़र्च से बच जाती हैं। वे कई सप्लायर्स के साथ संपर्क में रहती हैं और मोल-तोल करके दामों को कम से कम रखकर अपनी वेबसाइट, ईमेल आदि माध्यमों से ग्राहकों को अपनी ओर खींचती हैं। यही नहीं ये दैत्याकार कम्पनियाँ कई बार तो ग्राहकों को आकर्षित करने और बाज़ार में अपने ग्राहक बनाने के लिए तात्कालिक तौर पर नुकसान सहकर भी मालों को कम दामों पर बेचने को तैयार हो जाती हैं। वे ऐसा इसलिए कर पाती हैं क्योंकि उनके पास इफ़रात पूँजी होती है। अमेज़न ने तो अमेरिकी बाज़ार पर इसी तरह से क़ब्ज़ा किया है और उसके पास पहले से ही इतनी पूँजी है कि वह कई सालों तक घाटे में भी रहकर कारोबार कर सकती है। फ्लि‍पकार्ट जैसी भारतीय कम्पनियों को भी वेंचर कैपिटलिस्ट कम्पनियों से थोक के भाव पूँजी आ रही है जिसकी बदौलत वे बाज़ार में टिकी हुई हैं। वेंचर कैपिटलिस्ट कम्पनियाँ ऐसी कम्पनियों में पूँजी इसलिए लगाती हैं क्योंकि उन्हें भरोसा होता है कि भविष्य में ये कम्पनियाँ अपने प्रतिस्पर्द्धियों को पछाड़कर बाज़ार में इज़ारेदारी क़ायम करके मुनाफ़ा पीटेंगी तो उनको अपने निवेश पर ज़बर्दस्त रिटर्न मिलेगा। ऑनलाइन शॉपिंग के ग्राहकों की संख्या में इज़ाफ़े का सीधा मतलब है कि पारम्परिक दुकानदारों और व्यापारियों का तबाह होना। यही वजह है कि तमाम दुकानदार और व्यापारी ई-कॉमर्स कम्पनियों के खि़लापफ़ एकजुट होकर उनपर नकेल कसने के लिए सरकारों पर दबाव बना रहे हैं। लेकिन उनको यह नहीं पता कि पूँजी की गति ही ऐसी होती है कि उसमें छोटी पूँजी को बड़ी पूँजी द्वारा निगला जाना तय होता है।

क़ि‍स्म-क़ि‍स्म के ऑफर देकर जब ऑनलाइन शॉपिंग की कम्पनियाँ ग्राहकों को आकर्षित करने में सफल हो जाती हैं और जब ग्राहक उनकी वेबसाइट के ज़रिये मालों का ऑर्डर कर देते हैं तो उनकी अगली चुनौती होती है कि कम से कम कीमत पर जल्द से जल्द मालों को ग्राहक तक डिलीवर करें। यहाँ से डिलीवरी स्टाफ़ की भूमिका शुरू होती है। अमूमन ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनियाँ डिलीवरी स्टापफ़ को सीधे अपनी कम्पनी में भर्ती करने की बजाय ठेके पर ऐसी कम्पनियों से डिलीवरी का काम करवाती हैं जो अपने डिलीवरी स्टापफ़ के ज़रिये कई कम्पनियों के माल को डिलीवर करने के लिए रखते हैं। डिलीवरी करने वाले ये मज़दूर ही ऑनलाइन शॉपिंग के पूरे कारोबार की रीढ़ हैं क्योंकि उन्हीं के ज़रिये माल गोदामों से ग्राहक तक पहुँचता है।

भारत में ट्रैफिक की समस्या और घनी बस्तियाँ व तंग गलियों की बहुतायत होने की वजह से अधिकांश डिलीवरी बाइक से ही होती है। बाइक से डिलीवरी में लागत भी कम आती है और माल जल्दी डिलीवर भी हो जाता है। लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि डिलीवरी करने वाले मज़दूरों के ऊपर बोझ लगातार बढ़ता जाता है। ये डिलीवरी मज़दूर अपनी पीठ पर प्रतिदिन 40 किलोग्राम तक का बोझ बाँधकर माल को ग्राहकों तक डिलीवर करने के लिए दिन भर बाइक से भागते रहते हैं। मध्यवर्ग के कई अपार्टमेंटों में तो इन डिलीवरी मज़दूरों को लिफ्ट इस्तेमाल करने तक की इजाज़त नहीं होती जिसकी वजह से उन्हें भारी-भरकम बोझ लिए सीढ़ियों से ऊपर की मंजिलों पर चढ़ना-उतरना होता है। इस कमरतोड़ मेहनत का नतीजा यह होता है कि वे अमूमन कुछ ही महीनों के भीतर पीठ दर्द, गर्दन दर्द, स्लिप डिस्क, स्पॉन्डिलाइटिस जैसी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल के स्पोर्ट्स इंजरी सेन्टर के डॉक्टर बताते हैं कि उनके पास आने वाले मरीज़ों में रोज़ दो-तीन मरीज़ ऐसे होते हैं जो किसी न किसी ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनी के लिए डिलीवरी मज़दूर का काम करते हैं। चूँकि अधिकांश डिलीवरी मज़दूर ठेके पर काम करते हैं इसलिए उन्हें कोई स्वास्थ्य सुविधाएँ भी नहीं मिलती। यही नहीं माल को ग्राहकों तक पहुँचाने की जल्दबाजी में बाइक चलाने से उनके साथ दुर्घटना होने की संभावना भी बढ़ जाती है। दुर्घटना होने की सूरत में भी इन डिलीवरी मज़दूरों को ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनियों की ओर से न तो दवा-इलाज का खर्च मिलता है और न ही कोई मुआवजा।

अपने निर्मम शोषण से तंग आकर अभी हाल ही में मुम्बई में फ्लि‍पकार्ट और मिंत्रा जैसी ई-कॉमर्स कम्पनियों के लिए डिलीवरी मज़दूर मुहैया कराने वाली कम्पनी ई-कार्ट के लगभग 400 डिलीवरी मज़दूरों ने हड़ताल पर जाने का फैसला किया। हड़ताली डिलीवरी मज़दूरों का कहना है कि हाड़तोड़ मेहनत और जोखिम भरा काम करने के बावजूद उन्हें बहुत कम तनख़्वाह मिलती है। उनमें से एक का कहना है, ‘‘मैंने वर्ष 2011 में 7,200 रुपये प्रतिमाह की तनख्वाह पर काम करना शुरू किया था और आज तक मेरी तनख्वाह में 3000 रुपये तक की बढ़ोतरी नहीं हुई है। काम पर रखते समय हमें बताया गया था कि हमें प्रतिदिन 30-40 डिलीवरी करनी होगी। लेकिन जब हमने काम शुरू किया तो पाया कि हमें प्रतिदिन 60-70 डिलीवरी करनी होगी।’’ इन डिलीवरी मज़दूरों को सुबह 7 बजे काम पर हाजिरी देनी होती है और काम के घण्टों की कोई सीमा नहीं होती। न ही दिन में इन्हें आराम करने और ठीक से भोजन करने की फुर्सत मिलती है। यहाँ तक कि उनके दफ्तरों में साफ़ शौचालयों तक की व्यवस्था नहीं होती। उनके लिए छुट्टियों का कोई मतलब नहीं होता है। त्योहारों के समय तो उनके ऊपर बोझ और बढ़ जाता है क्योंकि उस समय ई-कॉमर्स कम्पनियाँ ग्राहकों को रिझाने के लिए नये-नवेले ऑफर लेकर आती हैं जिनकी वजह से ऑर्डर की संख्या में ज़बर्दस्त इज़ापफ़ा होता है।

ऐसे में मुम्बई में डिलीवरी मज़दूरों का अपने शोषण के खि़लापफ़ एवं अपने अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाना एक सकारात्मक क़दम है। परन्तु ग़ौर करने वाली बात यह है कि ये हड़ताली मज़दूर फ़ासिस्ट गिरोह महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नियंत्रण में हैं जो शिवसेना से अलग हुआ संगठन है। मुम्बई के मज़दूर आन्दोलन के इतिहास से परिचित हर कोई यह जानता है कि शिवसेना के फ़ासिस्ट गिरोह ने मुम्बई के टेक्सटाइल मज़दूरों के जुझारू आन्दोलन की कमर तोड़ने में पूँजीपतियों के सुपारी किलर की भूमिका निभायी थी। आज भी इस क़ि‍स्म के फ़ासिस्ट संगठन मालिकों से दलाली खाने के लिए मज़दूरों को संगठित करते हैं और इस प्रक्रिया में मज़दूर आन्दोलन की नींव को कमज़ोर करते हैं। ऐसे में डिलीवरी मज़दूरों के बीच इस मनसे जैसे फ़ासिस्ट संगठन की पैठ बनना मज़दूर आन्दोलन के लिए चिन्ता का सबब है। आज हर सेक्टर के मज़दूरों को हर क़ि‍स्म के मज़दूर-विरोधी और मालिकपरस्त संगठनों के चंगुल से बाहर निकलकर क्रान्तिकारी ट्रेड-यूनियनें बनानी होंगी और इस प्रक्रिया में न सिर्फ़ अपने रोज़-मर्रा के शोषण के खि़लापफ़ लड़ना सीखना होगा बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन की दूरगामी लड़ाई के लिए भी अपने आपको आज से ही तैयार करना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2015


 

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