यूनान में जनमत संग्रह के नतीजे के मायने
यूनानी जनता में पूँजीवाद के विकल्प की आकांक्षा और सिरिज़ा की शर्मनाक ग़द्दारी
आनन्द
पिछली 5 जुलाई को यूरोपीय संघ (ईयू), यूरोपीय केन्द्रीय बैंक (ईसीबी) एवं विश्व मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के त्रिगुट द्वारा यूनान पर थोपे जा रहे घोर जनविरोधी प्रस्तावों पर हुए जनमत संग्रह में यूनान की जनता ने उन प्रस्तावों को भारी मतों से नकार दिया। 61.3 प्रतिशत मतदाताओं ने त्रिगुट के प्रस्तावों के खि़लाफ़ वोट दिया। इस जनमत संग्रह की ख़ासियत यह रही कि मीडिया के तमाम दुष्प्रचार के बावजूद इसमें यूनान के शहरी और ग्रामीण सभी हिस्सों में बड़ी संख्या में मज़दूर वर्ग एवं युवाओं ने बढ़चढ़कर किफ़ायतसारी (ऑस्टेरिटी) की नीतियों के खि़लाफ़ वोट दिया। इस नतीजे से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि यूनान की जनता में न सिर्फ़ त्रिगुट के खि़लाफ़ बल्कि समूची पूँजीवादी व्यस्था के खि़लाफ़ ज़बरदस्त गुस्सा है और उसमें इस लुटेरी व्यवस्था के विकल्प की प्रबल आकांक्षा है। लेकिन वामपन्थी लोकरंजकतावादी सिरिज़ा से यह उम्मीद करना बेमानी होगी कि वह यूनानी जनता की इस आकांक्षा को पूरा करने की दिशा में कोई क़दम उठायेगी। सच तो यह है कि इस जनमत संग्रह को आयोजित कराने के पीछे सिरिज़ा का मक़सद किसी आमूलचूल बदलाव की तैयारी करना नहीं बल्कि पूँजीवाद के दायरे में ही त्रिगुट से चल रही सौदेबाज़ी में जनता के समर्थन के नाम पर अपने पलड़े में कुछ बटखरे रखना था। यही वजह थी कि इस जनमत संग्रह के दायरे को सीमित रखकर सिर्फ़ त्रिगुट द्वारा प्रस्तावित पैकेज पर ‘हाँ’ या ‘ना’ में वोटिंग करने को कहा गया। सिरिज़ा ने राजनीतिक धूर्तता का परिचय देते हुए इस जनमत संग्रह में ‘ना’ का मतलब अपने ख़ुद के प्रस्ताव का समर्थन मानकर अपना प्रस्ताव यूनान की संसद से पारित करवा लिया। ग़ौरतलब है कि सिरिज़ा के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार द्वारा संसद में पारित प्रस्ताव अपनी अन्तर्वस्तु में त्रिगुट के प्रस्ताव से मेल खाता है। इस प्रस्ताव में त्रिगुट से कुछ रियायतों की भीख के बदले सिरिज़ा ने बेशर्मी के साथ निजीकरण, सरकारी ख़र्चों में कटौती, करों में बढ़ोतरी जैसी घोर जनविरोधी और तथाकथित किफ़ायतसारी की नीतियों को लागू करना स्वीकार किया है। यही नहीं 12 जुलाई को ब्रसेल्स में हुए एक समझौते में तो यूनान के प्रधानमन्त्री सिप्रास की चाल उलटी पड़ गयी जब उसने जर्मनी के नेतृत्व वाले पूँजीपति लुटेरों के गिरोह के सामने नाक रगड़ते हुए यूनान की वित्तीय सम्प्रभुता को छीनने वाले समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये, जिसके तहत राष्ट्रीय सम्पत्ति को निजी हाथों में बेचा जाना तय किया गया है।
यूनान के संकट का मौजूदा दौर पिछले महीने के अन्त में शुरू हुआ, जब त्रिगुट ने यूनान सरकार को क़र्ज़े की रक़म अदा करने के लिए और समय देने की एवज़ में घोर जनविरोधी प्रस्तावों को यूनान की जनता पर थोपने की क़वायद शुरू की। 27 जून को यूनान के प्रधानमन्त्री अलेक्सिस सिप्रास ने इन प्रस्तावों पर एक जनमत संग्रह कराने की घोषणा की। अगले दिन यूनान सरकार ने एक सप्ताह के लिए सभी बैंकों को बन्द करने की घोषणा की और एटीएम से प्रतिदिन अधिकतम 60 यूरो निकालने की सीमा रख दी। वास्तव में, यह भी सिरिज़ा सरकार की एक चाल ही थी। यदि जनमत संग्रह की घोषणा करनी थी तो उससे पहले ही बैंकों का राष्ट्रीकरण किया जाना चाहिए था, जोकि चुनाव जीतने से पहले सिरिज़ा के कार्यक्रम का एक बिन्दु भी था। बिना बैंकों के राष्ट्रीकरण के जनमत संग्रह का एलान करके सिप्रास ने अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों को एक प्रकार से यह अवसर दिया कि वह यूनानी जनता की बाँह मरोड़कर उसे जनमत संग्रह में त्रिगुट के प्रस्ताव को स्वीकारने को बाध्य करने का प्रयास कर सके। उन्होंने यह प्रयास किया भी क्योंकि उस एक सप्ताह तक यूनानी जनता के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से के पास अपने रोज़मर्रा के जीवन की आवश्यक सामग्रियाँ ख़रीदने के लिए भी नक़दी नहीं बची थी! मगर इन सारी चालों के बावजूद त्रिगुट के प्रस्ताव को नकारते हुए यूनानी जनता ने ‘नहीं’ के विकल्प को चुना, हालाँकि, जैसाकि हम देख चुके हैं, उसके पास सकारात्मक तौर पर चुनने के लिए यह विकल्प नहीं था कि वह यूरोपीय संघ व यूरो से बाहर आ जाये। जुलाई के पहले सप्ताह में यूनान विश्व मुद्राकोष से लिये गये क़र्ज़ की अदायगी न कर पाने वाला पहला विकसित देश बना। पूरी दुनिया में यूनान के संकट की ख़बरें छायी रहीं और इस बात के क़यास लगने शुरू हो गये कि यूनान को यूरोज़ोन से निकलना होगा।
जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, 5 जुलाई के जनमत संग्रह में यूनान की जनता द्वारा त्रिगुट के किफ़ायतसारी के जनविरोधी प्रस्ताव को ठुकराने को बड़ी ही चालाकी से यूनान की सरकार ने अपने प्रस्ताव के पक्ष में समर्थन के रूप में प्रस्तुत करके यूनान की संसद द्वारा अपना प्रस्ताव पारित करवा लिया जो कमोबेश त्रिगुट के प्रस्ताव जैसा ही था। हालाँकि अन्य यूरोपीय शक्तियाँ इस प्रस्ताव को मानने से भी आनाकानी कर रही हैं। संसद में वोटिंग के दौरान सिरिज़ा के भीतर के अन्तर्विरोध भी सामने आये जब उसके 162 सांसदों में से 17 ने इस प्रस्ताव के समर्थन में वोट नहीं किया।
ग़ौरतलब है कि पूँजीवादी मीडिया तो सिरिज़ा को रैडिकल वामपन्थी कहता ही है, कई मार्क्सवादी भी सिरिज़ा से यह उम्मीद लगाये हैं कि वह यूनान में समाजवाद का एक मॉडल पेश करेगा। इतिहास में बार-बार साबित होने के बावजूद मार्क्सवाद-लेनिनवाद की यह बुनियादी शिक्षा ऐसे तथाकथित मार्क्सवादियों को नहीं समझ में आती कि सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर काबिज़ होकर समाजवाद की स्थापना नहीं कर सकता। बुर्जुआ राज्यसत्ता को बलपूर्वक ध्वंस किये बिना समाजवाद की स्थापना नहीं हो सकती। बुर्जुआ चुनावों में बहुमत हासिल करके सरकार बनाकर समाजवाद के निर्माण के सपने देखने वाले इस बुनियादी समझ को अनदेखा करते हैं कि सरकार राज्यसत्ता नहीं होती बल्कि वह राज्यसत्ता की विराट मशीनरी के एक अंग विधायिका की नुमाइन्दगी करती है। औपचारिक तौर पर, प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति व कैबिनेट आदि भी कार्यपालिका में शामिल होते हैं। लेकिन सही मायने में पूँजीवादी कार्यपालिका का कार्य नौकरशाही, पुलिस, सेना, अन्य सशस्त्र बलों जैसे स्थायी और न चुने जाने वाले निकाय करते हैं। राज्यसत्ता के असली दाँत और नाख़ून फ़ौज, अर्द्धसैनिक बल और पुलिस होती है। सरकार पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का काम करती है। इसलिए यदि सर्वहारा वर्ग की कोई पार्टी बुर्जुआ चुनावों में बहुमत हासिल करके सरकार बना भी लेती है तो पूँजीपति वर्ग फ़ौज के ज़रिये सरकार का तख़्तापलट करवा देता है जैसाकि चीले में सल्वादोर अयेन्दे की सरकार के साथ हुआ।
यूनान की बात करें तो सिरिज़ा की सरकार वैसे भी पूर्ण बहुमत में भी नहीं है, बल्कि वह दक्षिणपन्थी राष्ट्रवादी पार्टी अनेल के साथ गठबन्धन चला रही है। चुनाव के पहले गरमा-गरम जुमलों का इस्तेमाल करने वाली सिरिज़ा सरकार में आते ही उसी भाषा में बात करने लगी जिस भाषा में पूर्ववर्ती न्यू डेमोक्रेसी और पासोक की संशोधनवादी और बुर्जुआ सरकार बात करती थीं। उसने सत्ता में आते ही यूरोपीय संघ के साथ समझौता करके जर्मनी के नवउदारवादी एजेण्डे के सामने घुटने टेक दिये। सिरिज़ा की यह समझौतापरस्ती और अब खुलेआम ग़द्दारी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह लेनिनवादी उसूलों पर बनी जनवादी केन्द्रीयता के ढाँचे वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी तो है नहीं। इसमें भाँति-भाँति के संगठनों की पंचमेल खिचड़ी है जिसमें अराजकतावादी-संघातिपत्यवादी, यूरोकम्युनिस्ट, पर्यावरणवादी, नारीवादी, अस्मितावादी और त्रॉत्स्कीपन्थी शामिल हैं। ऐसे भानुमती के कुनबे ने वही किया जिसकी उम्मीद थी।
यूनान के संकट का समाधान समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित करके ही हो सकता है। ऐसी समाजवादी सत्ता सभी विदेशी क़र्ज़ों को मंसूख़ करने का ऐलान करेगी, बैंकों एवं बड़ी कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण करते हुए यूरोज़ोन से बाहर निकलकर अपनी मुद्रा संस्थापित करके आर्थिक नियोजन व आत्मनिर्भर विकास के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए सामाजिक उत्पादन के तर्कसंगत बँटवारे पर ज़ोर देगी। लेकिन यूनान में क्रान्तिकारी ताक़तों की कमज़ोर स्थिति देखते हुए निकट भविष्य में इसकी सम्भावना नज़र नहीं आती। यानी कि आधुनिक पूँजीवादी युग की यूनानी त्रासदी आने वाले दिनों में भी जारी रहेगी और यूनान की जनता की मुश्किलें बरकरार रहेंगी।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2015
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन