यमन पर सऊदी अरब का हमला
इस्लामिक राजतंत्र और अमेरिकी साम्राज्यवाद के गँठजोड़ ने रचा एक और देश में मौत का तांडव
आनन्द सिंह
मार्च के अन्तिम सप्ताह में सऊदी अरब ने अपने दक्षिण-पश्चिम स्थित पड़ोसी मुल्क यमन पर हवाई हमले शुरू कर दिये। इस लेख के लिखे जाने तक सऊदी हमले में 200 बच्चों सहित 1000 से भी ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं जिनमें अधिकांश यमन के नागरिक हैं। इस हमले में अमेरिका एवं ‘गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल’ के अरब मुल्क़ सऊदी अरब का साथ दे रहे हैं। अरब जगत के सबसे ग़रीब मुल्क़ की आम जनता के लिए यह हमला बेइन्तहा तबाही और बर्बादी का मंज़र लेकर आया है। पूरे यमन में खाद्य पदार्थों एवं दवा जैसी बुनियादी ज़रूरतों की अनुपलब्धता का भी संकट मंडराने लगा है।
सऊदी अरब के नेतृत्व में यह हमला यमन में हूथी नामक ज़ायदी शिया विद्रोहियों द्वारा यमन की राजधानी साना पर कब्ज़े के बाद किया गया। यमन का राष्ट्रपति अब्देल रैब्बो मंसूर हादी यमन छोड़कर भाग गया है और उसने सऊदी अरब में पनाह ली है। ग़ौरतलब है कि हूथी विद्रोही एक कबीलियाई समुदाय से आते हैं जो उत्तरी यमन के पहाड़ी इलाक़ों के बाशिन्दे हैं और अपने लड़ाकूपन के लिए विख्यात हैं। हूथियों की अभूतपूर्व सफलता का एक प्रमुख कारण पूर्व राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह से उनका अवसरवादी गँठजोड़ भी है। यमन की फौज का बड़ा हिस्सा सालेह की सरपरस्ती में होने की वजह से ही इस गँठजोड़ ने राजधानी पर कब्ज़ा करके एक बड़ी कामयाबी हासिल की। लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि अभी कुछ ही वर्षों पहले जब सालेह यमन का राष्ट्रपति था तो उसने कम से कम छह बार हूथियों पर फौजी कार्रवाई की थी। हूथी समुदाय का संस्थापक हुसेन बद्रेदीन अल-हूथी सालेह की सेना की कार्रवाई में ही मारा गया था। लेकिन 2011 में ट्यूनिशिया में शुरू हुई जनबग़ावत की आग जब मिस्र होते हुए यमन तक पहुँची तो सालेह को 2012 में गद्दी छोड़ने पर मज़बूर होना पड़ा था और उसकी जगह मंसूर हादी राष्ट्रपति बना था। लेकिन आज भी सालेह अपने बेटे को राष्ट्रपति बनाना चाहता है और इसीलिए उसने हूथियों से मौकापरस्त गँठजोड़ बनाया है।
हूथियों को ईरान का भी सैन्य एवं नैतिक समर्थन प्राप्त है क्योंकि शिया होने की वजह से उनकी वैचारिक क़रीबी अयोतोल्लाह खोमैनी के ईरान से है। इराक, सीरिया और लेबनान में ईरान के प्रभुत्व को लेकर सऊदी अरब पहले ही चिन्तित था, हूथियों द्वारा राष्ट्रपति महल पर कब्ज़े के बाद सऊदी अरब के शेख यमन में ईरान का दबदबा बढ़ने की सम्भावना को लेकर सकते में आ गये और इसीलिए उन्होंने बौखलाहट में आकर यमन पर हमला किया है। परन्तु उन्हें इस सच्चाई का भी एहसास है कि केवल हवाई हमलों से वे हूथियों को परास्त नहीं कर सकते। चूँकि सऊदी अरब के पास आधुनिक थल सेना नहीं है इसलिए उसने पाकिस्तान और मिस्र जैसे देशों से सैन्य मदद की गुहार लगायी। मिस्र तो सैन्य मदद के लिए तैयार हो गया लेकिन पाकिस्तान ने इससे इन्कार कर दिया है।
ग़ौरतलब है कि 1932 में इब्न सऊद द्वारा सऊदी राजतंत्र स्थापित करने और सऊदी अरब में तेल की खोज के बाद उसके अमेरिका से गँठजोड़ से पहले यमन अरब प्रायद्वीप का सबसे प्रभुत्वशाली देश था। सऊदी राजतंत्र के अस्तित्व में आने के दो वर्ष के भीतर ही सऊदी अरब व यमन में युद्ध छिड़ गया जिसके बाद 1934 में हुए ताईफ़ समझौते के तहत यमन को अपना कुछ हिस्सा सऊदी अरब को लीज़ पर देना पड़ा और यमन के मज़दूरों को सऊदी अरब में काम करने की मंजूरी मिल गई। नाज़रान, असीर, जिज़ान जैसे इलाक़ों की लीज़ ख़त्म होने के बावज़ूद सऊदी अरब ने वापस ही नहीं किया जिसको लेकर यमन में अभी तक असंतोष व्याप्त है। ग़ौरतलब है कि ये वही इलाक़े हैं जहाँ शेखों के निरंकुश शासन के खि़लाफ़ बग़ावत की चिंगारी भी समय-समय पर भड़कती रही है। यमन पर सऊदी हमले की वजह से जहाँ एक ओर यमन के भीतर राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा हुई है वहीं सऊदी अरब के इन शिया बहुसंख्या वाले इलाक़ों में भी बग़ावत की चिंगारी एक बार फिर भड़कने की सम्भावना बढ़ गई है।
उधर इराक़ और सीरिया में इस्लामिक कट्टरपंथ और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच नापाक गँठजोड़ की पैदाइश इस्लामिक स्टेट अपना कहर जारी रखे हुए है। इस नापाक गँठजोड़ ने यमन में जो हमला किया है वह समूचे अरब जगत में जारी हिंसा की आग को और भड़कायेगा और आने वाले दिनो में भीषण रक्तपात को अंजाम देगा। लेकिन यह भी तय है कि इसी आग में अरब के शेखों और शाहों की मानवद्रोही सत्तायें भी जलकर राख हो जायेंगी।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2015
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन