केन्द्रीय बजट 2015-2016: जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर थैलीशाहों की थैलियाँ भरने का पूरा इंतज़ाम
सम्पादक मण्डल
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने पिछले साल सत्ता में आने के फौरन बाद एक अन्तरिम बजट प्रस्तुत किया था जिसमें हालाँकि उसने इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिये थे कि ‘‘अच्छे दिनों’’ से उसका तात्पर्य दरअसल पूँजीपतियों और सेठ-व्यापारियों के अच्छे दिनों से था, लेकिन फिर भी पूँजीपति वर्ग और उसकी चाकरी करने वाले अर्थशास्त्री, पत्रकार और बुद्धिजीवी उस अन्तरिम बजट में सरकार द्वारा थैलीशाहों की थैलियाँ भरने के लिए की गई घोषणाओं से संतुष्ट नहीं थे। नयी सरकार के पहले नौ महीनों के दौरान पूँजीपति वर्ग और उसके लग्गू-भग्गू लगातार इस बात का दबाव बनाते रहे कि देश में निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए सरकार कॉरपोरेट धनपशुओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों और श्रमशक्ति की लूट का खुला चारागाह मुहैया करा दे और उनके मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए उनपर लगने वाले करों में कटौती करे तथा उसकी भरपाई आम जनता पर करों को बोझ लादकर करे। पिछली 28 फरवरी को वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत केन्द्रीय बजट में सरकार ने जहाँ एक ओर आम जनता पर करों का बोझ बढ़ाया और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों में भी कटौती की वहीं दूसरी ओर पूँजीपतियों और सेठ-व्यापारियों को थोक भाव में अच्छे दिनों की सौगात दी। इस सौगात को पाकर इन लुटेरों और उनके चाकरों की खुशी का ठिकाना नहीं था और वे टीवी और अखबारों में मोदी सरकार की तारीफ़ के पुल बाँधते नहीं अघा रहे थे और कइयों ने तो इस बजट को 1997 के ‘ड्रीम बजट’ से किया जिसमें तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम ने कॉरपोरेट धनपशुओं को तोहफ़े की बौछार की थी।
हर बजट की तरह मीडिया में इस बजट की चर्चाओं में पूँजीपतियों के टुकड़खोर बुद्धिजीवी बढ़ते राजकोषीय घाटे (फिस्कल डेफिसिट) पर छाती पीटते नज़र आये। बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे पर छाती पीटने के पीछे इन लग्गू-भग्गुओं का मक़सद यह होता है कि राज्य जनता को खाद्य, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी से भी हाथ खींच ले। ये लग्गू-भग्गू कभी भी हर साल बजट में पूँजीपतियों को दी जाने वाली लाखों करोड़ रुपये की सब्सिडी को कम करने को लेकर चूँ तक नहीं करते, बल्कि उल्टा उसको और बढ़ाने के लिए ऊटपटांग दलीलें ईजाद करते हैं। ऐसी ही दलीलों को सिर-आँखों पर रखते हुए अरुण जेटली ने इस बार बजट में कॉरपोरेट घरानों की मुँह मांगी मुराद पूरी कर दी जब उन्होंने कॉरपोरेट करों की दर 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने के सरकार के फैसले का ऐलान किया। यही नहीं सरकार ने सम्पत्तिवानों पर लगने वाले सम्पदा कर (वेल्थ टैक्स) को तो पूरी तरह ख़त्म करने की घोषणा करके सम्पत्तिशाली तबके के लिए सोने पर सुहागा का काम किया।
धनपशुओं पर लगने वाले करों में कटौती करने का नतीजा यह होगा कि अगले वित्तीय वर्ष में सरकार को प्रत्यक्ष करों के रूप में होने वाली आय में लगभग 8,315 करोड़ रुपये की कमी आयेगी। इसकी भरपाई करने के लिए सरकार ने इस बजट में अप्रत्यक्ष करों में 23,383 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी करने की घोषणा भी की। ग़ौरतलब है कि अप्रत्यक्ष करों से सबसे ज़्यादा नुकसान आम मेहनतकश जनता को होता है। इसका कारण यह है कि यह प्रत्यक्ष करों की भाँति किसी व्यक्ति की कर देने की क्षमता के आधार पर होने की बजाय अप्रत्यक्ष कर हर किसी पर एकसमान रूप से लगता है क्योंकि बाज़ार में बिकने वाली कोई चीज़ हर किसी को एक ही दाम पर मिलती है, यानी एक अरबपति सेठ और दिहाड़ी मज़दूर पर लगने वाला अप्रत्यक्ष कर एक ही होता है। यही नहीं, सरकार ने सेवा कर को भी 12.6 प्रतिशत से बढ़ाकर 14 प्रतिशत करने का ऐलान किया जिसका बोझ आम आदमी को ही उठाना पड़ेगा। पेट्रोल और डीज़ल के आयात शुल्क में भी बढ़ोत्तरी की गई जो उपभोक्ताओं के ही मत्थे मढ़ा जायेगा। इस फैसले के बाद पेट्रोल और डीज़ल के दाम तुरन्त बढ़ गए। ग़ौरतलब है कि अन्तरराष्ट्रीय तेल बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट के बावजूद पेट्रोल और डीज़ल के दाम उतने नहीं गिरे जितने गिरने चाहिए थे। पेट्रोल और डीज़ल पर आयात शुल्क के बढ़ने के बाद तो आम जनता को अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों के गिरने से जो थोड़ी-बहुत राहत मिलती दिख रही थी वह भी वापस ले ली गई। अपने कॉरपोरेट स्वामियों को खुश करने में दिलोजान से जुटी मोदी सरकार ने इस बजट में मध्यवर्ग, जिसने पिछले लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में भाजपा को वोट दिया था, को भी करों में कोई रियायत नहीं दी। किसानों के हितों की हिफ़ाजत करने का दावा करने वाली मोदी सरकार का यह बजट कृषि क्षेत्र के संकट के बारे में भी पूरी तरह से उदासीन रहा। किसानों को सहूलियत देने की बजाय उनको मिलने वाले कृषि ऋण में कटौती की गई। ज़ाहिर है कि नवउदारवाद की जिस गाड़ी को सरकार ने इस बजट के ज़रिये सरपट दौड़ाया है वह छोटे-मझौले किसानों और खेतिहर मज़दूरों को रौंदकर ही आगे बढ़ने वाली है।
कॉरपोरेट घरानों पर करों में छूट की भरपाई करने के लिए आम जनता पर करों का बोझ लादने के अलावा भी सरकार ने कई ऐसे कड़े क़दम उठाये जिनकी गाज आम मेहनतकश आबादी पर गिरेगी। इस बजट में सरकार ने कुल योजना ख़र्च में 20 प्रतिशत यानी 1.14 करोड़ रुपये की कटौती की जो खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, परिवार कल्याण, आवास, स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से भी हाथ खींचने में मोदी सरकार की नवउदारवादी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। सर्व शिक्षा अभियान, मिड-डे मील स्कीम, नेशनल हेल्थ मिशन जैसी स्कीमों के ज़रिये शासक वर्गों की जो थोड़ी-बहुत जूठन जनता तक पहुँचती है उसमें भी इस बजट में भारी कटौती की घोषणा की गई है। सर्वशिक्षा अभियान बजट में छह हज़ार करोड़ रुपये, मिड-डे मील में चार हज़़ार करोड़ रुपये, समेकित बाल-विकास कार्यक्रम में आठ हज़ार करोड़ रुपये और जेंडर बजट में बीस हज़ार करोड़ रुपये की भारी कटौती की गई है। इस बजट में जहाँ सरकार ने पूँजीपतियों को मिलने वाली सब्सिडी में भारी बढ़ोत्तरी की वहीं जनता को मिलने वाली कुल सब्सिडी को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2.1 प्रतिशत से घटाकर 1.7 प्रतिशत कर दिया। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण के मद में सरकारी ख़र्च को 35,163 करोड़ रुपये से घटाकर 29,653 करोड़ रुपये कर दिया। इसी तरह आवास व ग़रीबी उन्मूलन की स्कीमों में सरकारी ख़र्च को 6,008 करोड़ रुपये से घटाकर 5,634 करोड़ रुपये कर दिया गया। जहाँ जनता की बुनियादी ज़रूरतों में भारी कटौती की गई है, वहीं रक्षा क्षेत्र के बजट में हर साल की तरह इस बार भी बढोत्तरी की गई। अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाने व जनकल्याणकारी स्कीमों में भारी कटौती करने के अतिरिक्त सरकार ने आगामी वित्तीय वर्ष 2015-16 में सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश के ज़रिये 70,000 करोड़ रुपये इकट्ठा करने का लक्ष्य रखा है। इन सभी फैसलों से यह ज़ाहिर है कि कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य के बचे-खुचे चिथड़े को भी हवा में फेंककर सरकार ने नवउदारवाद को पूरी तरह गले लगाने की ठान ली है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इसका सीधा असर मज़दूर वर्ग की ज़िन्दगी में बदहाली के रूप में सामने आयेगा।
देश में पूँजीवाद की गाड़ी को बुलेट ट्रेन की रफ्तार से दौड़ाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर के मद में इस बजट में सरकार ने 70,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त निवेश करने का फैसला किया है। साथ ही सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के मॉडल की समीक्षा करने का फैसला किया है। सभी जानते हैं कि यह मॉडल मुनाफ़े को निजी हाथों में सौंपने और नुकसान को जनता के मत्थे मढ़ने के लिए ईज़ाद किया गया था। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में कहा कि चूँकि यह मॉडल ठीक से काम नहीं कर रहा है इसलिए सरकार को अब जोखिम का और बड़ा हिस्सा वहन करना होगा। यानी इस समीक्षा का मक़सद यह नहीं है कि किस प्रकार किसी प्रोजेक्ट में आने वाले जोखि़म को सिर्फ़ सरकार द्वारा नहीं बल्कि निजी हाथों को भी वहन करना हो बल्कि इसके ठीक उलट है यानी इस बात की नई तिकड़में तलाशने का है किस तरीके से पूरे का पूरा जोखि़म सरकार वहन करे । अरुण जेटली ने बिज़नेस करना आसान करने के मक़सद से दीवालियापन से जुड़े कानून में सुधार करने और विनियमन को ढीला करने की बात भी अपने बजट भाषण में कही। इन घोषणाओं से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जाता है कि सरकार ने लुटेरे पूँजीपतियों को इस बजट के माध्यम से यह संदेश दिया है कि आने वाले दिनों में उसका इरादा अपने इन लुटेरे स्वामियों को लूट की खुली छूट देने का है।
इस बजट के माध्यम से सरकार ने न सिर्फ़ देशी पूँजीपतियों को लूट की खुली छूट देने का संकेत दिया है बल्कि उसने विदेशी साम्राज्यवादी लुटेरे को भी स्पष्ट संकेत दिया है कि ’’अच्छे दिनों’’ में उनके भी वारे-न्यारे होने वाले हैं। बजट में सरकार ने विदेशी निवेशकों को रिझाने के लिए विदेशी निवेश में मामलों में टैक्स की चोरी रोकने से संबन्धित कानून जनरल एंटी अवाएडेंस रूल्स (गार) को 2017 तक मुल्तवी करने की घोषणा की। ग़ौरतलब है कि विदेशी निवेश के नाम पर देशी और विदेशी पूँजीपति अपना काला धन मॉरीशस जैसे देशों (जिनको टैक्स हैवेन कहा जाता है क्योंकि वहाँ करों की दर शून्य या न के बराबर है) के ज़रिये भारत में शेयर मार्केट में विदेशी संस्थागत निवेश (एफआईआई) के रूप में और विभिन्न कम्पनियों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के रूप में लाते हैं। इस प्रक्रिया में वे काले धन को सफ़ेद धन में रूपांतरित तो करते ही हैं साथ ही मॉरीशस जैसे देशों के ज़रिये भारत में निवेश करने का एक और फ़ायदा यह होता है कि ऐसे निवेश से उन्हें कर भी नहीं देना पड़ता। पिछले कुछ समय से गार की कवायद इसी प्रकार के करों की चोरी को रोकने के लिए की जा रही है। लेकिन हर साल इसे कुछ और वर्षों के लिए टाल दिया जाता है। इस बजट में सरकार ने विदेशी निवेशकों को खुश करने के मक़सद से एफआईआई और एफडीआई के बीच के फ़र्क को भी समाप्त करने की घोषणा की। ग़ौरतलब है कि तुलनात्मक रूप से एफआईआई के माध्यम से आने वाली पूँजी कम भरोसेमन्द और अस्थिर मानी जाती है क्योंकि शेयर बाज़ार में लगी होने की बजह से विदेशी निवेशक इसे कभी भी वापस खींच सकते हैं। बजट में एफआईआई को कई और रियायतें देने की घोषणा की गई। अपने बजट भाषण में अरुण जेटली ने विदेशी निवेशकों को पूरा भरोसा दिलाते हुए कहा कि अदालतों में लंबित करों से जुड़े मामलों का जल्द से जल्द निपटारा किया जायेगा। स्पष्ट है कि विदेशी लुटेरों को भी लूट का खुला आमंत्रण दिया जा रहा है।
सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम के निर्देश में तैयार किये गये आर्थिक सर्वेक्षण, जिसे बजट के ठीक पहले जारी किया गया, में कहा गया था कि अब बिग बैंग (एक झटके में) सुधार की ज़मीन तैयार हो गई है। बजट की घोषणाओं के माध्यम से सरकार ने यह जताने की कोशिश की है कि वह तथाकथित आर्थिक सुधारों (जो वास्तव में मज़दूरों के लिए आर्थिक तानाशाही का दूसरा नाम है) को तेज़ी से लागू करने को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है। मज़दूर वर्ग को आने वाले ख़तरनाक दिनों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2015
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