राजस्थान में पंचायती राज चुनाव में बदलाव से जनता को क्या मिला!
रवि
अभी हाल ही में जनवरी माह में राजस्थान में पंचायती राज्य व्यवस्था के चुनाव सम्पन्न हुए हैं। राजस्थान में पंचायती राज की त्रिस्तरीय व्यवस्था है। सबसे उपरी स्तर पर ज़िला परिषद (ज़िला स्तर पर), पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर पर), पंचायत (ग्राम स्तर पर)। यह पंचायती राज्य व्यवस्था भारतीय संविधान के द्वारा सभी राज्यों में लागू की गयी है। राजस्थान में प्रथम पंचायत चुनाव 1960 में हुए थे। उसी के अन्तर्गत राजस्थान में 1995 से नियमित 5 साल के अन्तराल पर पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव करवाये जाते हैं। इस प्रकार यह पंचायती राज संस्थाओं का 10 वाँ चुनाव था। परन्तु इस बार प्रदेश की भाजपा सरकार ने चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों के लिए ज़िला परिषद व पंचायत समिति के सदस्यों के लिए 10वीं पास व पंचायतों के सदस्य (वार्ड पंच) व सरपंच के लिए 8 वीं पास होना ज़रूरी कर दिया है। राजस्थान जैसे पिछडे प्रदेशों में जहाँ साक्षरता राष्ट्रीय औसत से भी कम है, जहाँ राष्ट्रीय औसत साक्षरता का 74.04 प्रतिशत है वहीं राजस्थान में यह 67.01 प्रतिशत है और 10वीं व 8वीं पास तो और भी कम ग्रामीण आबादी है। इस तरह एक बहुत बड़ी आबादी को इन शैक्षणिक योग्यता के नियमों की आड़ में सीधे-सीधे चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया गया।
अब यह देखना होगा कि ये पंचायती राज संस्थाएँ किन वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है। इनमें मुख्यतः गाँवों के कुलकों व धनी किसानों का दबदबा है। आरक्षण व्यवस्था के तहत यदि कोई महिला या दलित चुन भी लिया जाता है तो वे भी उन्हीं वर्गों की सेवा करते हैं। पंचायत समितियों व ज़िला परिषदों के चुनाव तो चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा लड़े जाते हैं व सरपंच व पंचों के चुनाव स्वतन्त्र उम्मीदवारों द्वारा लड़े जाते हैं। लेकिन मुख्यतः इन चुनावों में जातीय समीकरणों का ही बोलबाला होता है। बुर्जुआ जातिवाद का सबसे विद्रुप चेहरा इन चुनावों में देखने को मिलता है। साथ ही दारू, बोटी, नक़द रुपये पैसे का भी इन चुनावों में बहुत इस्तेमाल होता है। मनरेगा व अन्य चलने वाली सरकारी योजनाओं से भ्रष्टाचार के द्वारा होने वाली कमाई के बाद अब तो सरपंच का चुनाव भी बहुत ख़र्चीला चुनाव हो गया है। इसमें अब प्रत्याशी 50 लाख रुपये तक ख़र्च करने लगे हैं। क्योंकि इससे कई गुना कमाई होने की पूरी गारण्टी है। ज़ाहिर सी बात है इतना पैसा ख़र्च करना एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति या एक मध्यम किसान के भी बूते से बाहर की बात है। एक ग़रीब किसान या मज़दूर की तो बात ही दूसरी है। तब फिर गाँवों में जनप्रतिनिधि कौन चुने जाते हैं वही जो धनी व खाते-पिते किसानों का वर्ग है और शहरों के नज़दीकी गाँवों में प्रोपर्टी की क़ीमतों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये वर्ग में से। इस वर्ग के पास अकूत पैसा आया है यह वर्ग अपनी प्रकृति से ही बर्बर, निरंकुश और घोर ग़ैरजनवादी है। इसके अलावा कृषि में पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप अस्तित्व में आया पूँजीवादी किसानी वर्ग। इन्हीं वर्गों में से तथाकथित “ग्रामीण सरकार” के जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं।
इन संस्थानों में अभी भी ग्रामीण जनता का विश्वास बना हुआ है। इसलिए इन चुनावों में मत प्रतिशत भी लोकसभा व विधानसभा चुनावों की तुलना में अधिक होता है। इसका प्रमुख कारण तृणमूल स्तर पर इन संस्थाओं के पास स्थानीय स्तर के बहुत से काम होते हैं जिनमें मनरेगा जैसी कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना भी होता है दूसरा जो आदमी सरपंच चुना जाता है वो उनके गाँव का ही आदमी होता है उस तक उनकी पहुँच आसान होती है।
लेकिन इन पंचायती राज संस्थाओं से आम ग़रीब व मेहनतकश जनता को वस्तुतः कुछ भी हासिल नहीं हुआ है और ना ही उन्हें सत्ता में कोई भागीदारी मिली हैं। लेकिन इससे कुलकों व धनी किसानों की सत्ता में हिस्सेदारी बढ़ी है। इस पूँजीवादी व्यवस्था में उनकी छोटे हिस्सेदार के रूप में ही सही लेकिन भागीदारी सुनिश्चित की हो गयी। इस प्रकार इस व्यवस्था के सामाजिक आधारों का विस्तार ही हुआ है।
आरक्षण से जो दलित या महिला चुनकर आती है वो भी मुख्यतः भ्रष्ट तरीक़ों से पैसे कमाने पर ध्यान देते हैं। आम दलित आबादी व आम महिलाओं का उनसे कोई सरोकार नहीं होता है। महिलाएँ भी अधिकतर प्रभावशाली परिवारों व धनी किसानों या कुलकों के परिवारों से आती हैं और महिला सरपंच भी नाममात्र की सरपंच होती है। सरपंच के सारे कार्य तो उनके पति ही करते हैं। इसलिए गाँवो मे एक नया नाम चलन में आया है “सरपंच पति”। जो दलित चुनकर आते हैं वो भी प्रभावशाली जातियों के ही लिये काम करते हैं यहाँ तक की किसी गाँव में दलित सरपंच रहते हुए भी दलित उत्पीड़न की घटना हो जाती है तो कोई बड़ी बात नहीं है। अब दलित उत्पीड़न में मुख्य हाथ सवर्णों के स्थान पर मध्य किसानी जातियों का है जिनमें जाट, गुर्जर, यादव, माली आदि प्रमुख हैं। क्योंकि इन जातियों से नव धनिक वर्ग व धनी किसानों का वर्ग आता है। अब इनकी राजनैतिक आकांक्षाएँ भी बढ़ी है। पंचायती राज ने इनकी राजनैतिक आकांक्षाओं को सन्तुष्ट करने का काम किया है।
अब सवाल यह है कि अभी की जो पंचायत राज व्यवस्था है इसका विकल्प क्या हो। आज की जो सरकारी पंचायतें तो जनता की पंचायतों का स्थान तो ले ही नहीं सकतीं। बल्कि यह तो वे ही पंचायतें हो सकती हैं जो क्रान्तिकारी तरीक़े से गठित हों और उनमें शोषक वर्गों की कोई भागीदारी ना हो। जिनमें ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों व दूसरे मेहनतकशों का पूरा प्रतिनिधित्व हो। ये पंचायतें ही आगे चलकर सत्ता का वास्तविक केन्द्र बनेंगी। यह ऐसी व्यवस्था में ही सम्भव है जिसमें उत्पादन के साधनों पर सम्पूर्ण जनता का स्वामित्व हो व राजकाज की व्यवस्था सार्विक मताधिकार से चुने हुए जनप्रतिनिधियों के हाथ में हो जिन्हें कभी भी वापस बुलाने का अधिकार हो। ऐसा क्रान्तिकारी लोक स्वराज्य पंचायतों में ही सम्भव है, जो आगे चलकर सत्ता का वास्तविक केन्द्र बनेंगी।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
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