सेज़ के बहाने देश की सम्पदा को दोनो हाथों से लूटकर अपनी तिज़ोरी भर रहे हैं मालिक!
कोलम्बस के बाद ज़मीन की लूट का सबसे बड़ा गोरखधन्धा बन गया है सेज़!
तर्कवागीश
भारत सरकार ने जब सेज़ (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन, SEZ) की घोषणा की थी तब पूँजीवादी मीडिया में इस बात का बहुत ढिंढोरा पीटा गया था कि इससे ‘देश का विकास’ होगा पर अब सच्चाई सामने आ चुकी है। कैग की रिपोर्ट से यह साफ़ हो गया है कि सेज़ देश की ग्रामीण जनता की ज़मीन को ‘विकास’ के नाम पर लूटकर मालिकों की तिज़ोरी भरने का एक हथियार है। कैग की रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि सेज़ के नाम पर मुनाफ़ाख़ोर मालिकों ने जनता की ज़मीनें हड़पीं और उन्हें प्रोपर्टी और अन्य धन्धों में लगाकर जमकर मुनाफ़ा कूटा। इसके अलावा मालिकों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष करों में 83,000 हज़ार करोड़ की टैक्स छूट का फ़ायदा उठाया जिसमें सेण्ट्रल एक्साइज़, वैट, स्टाम्प ड्यूटी आदि के आँकड़े शामिल नहीं हैं। सेज़ जब खोले गये थे तो कहा गया था कि इससे रोज़गार मिलेगा, विनिर्माण क्षेत्र में पूँजी निवेश बढ़ेगा, व निर्यात बढ़ेगा जिससे ‘देश का विकास’ होगा, पर कैग की रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि सेज़ से केवल मालिकों का विकास हुआ है और जनता की सम्पदा को ‘विकास’ के नाम पर मालिकों ने जमकर लूटा है। कैग ने स्पष्ट कहा है कि सेज़ अपने रोज़गार, निवेश, और निर्यात के लक्ष्यों को पूरा करना तो दूर अपने घोषित लक्ष्यों के आस-पास तक नहीं पहुँच सका और सेज़ की योजना पूरी तरह से फ्लॉप साबित हो गयी है।
कैग ने 150 पन्नों की अपनी रिपोर्ट में सेज़ के ऑडिट में कई बातों का खुलासा किया है। कैग ने कहा कि सेज़ डेवलपर्स (यानी कि आज के आधुनिक लुटेरे कोलम्बस) की कोशिश रहती है कि सेज़ के नाम पर बडी ज़मीन ले ली जाये, पर उसमें से कुछ ही को सेज़ के नाम पर अधिसूचित किया जाये व सेज़ की ज़मीन का अपनी मनमर्जी से भू-उपयोग बदलकर उसे प्रोपर्टी के धन्धे से लेकर अन्य व्यावसायिक कार्यों में लगाकर ज़्यादा मुनाफ़ा कमा लिया जाये। रिपोर्ट में रिलायंस, एस्सार, श्रासिटी, डीएलएफ़ और यूनिटेक जैसे डेवलपर्स पर आरोप लगाया गया है कि इन्होंने सेज़ के नाम पर ज़मीन लेकर उसे आवासीय से लेकर अन्य व्यावसायिक औद्योगिक कार्यों में लगा दिया। रिपोर्ट कहती है कि सेज़ के विकास के लिए अधिसूचित 45,635.63 हेक्टेयर में से वास्तविक कार्य मात्र 28,488.49 हेक्टेयर या अधिसूचित भूमि के मात्र 62 फ़ीसदी में किया गया और बचे हुए 33 फ़ीसदी पर काम शुरू ही नहीं किया गया। नौ मामलों में प्रतिबन्धित भूमि जैसेकि रक्षा विभाग, जंगल या सिंचाई वाली भूमि को सुप्रीम कोर्ट के आदेश व सेज़ के नियमों का ही उल्लंघन करते हुए सेज़ बनाने के लिए दे दिया गया। इसमें भी अधिसूचित भूमि में से कुछ को मूल्य वृद्धि से लाभ प्राप्त करने के लिए बाद में डेवेलपर्स द्वारा अपनी मर्जी से रद्द करके उसका उपयोग बदल दिया गया। मुकेश अम्बानी ने नवी मुम्बई सेज़ में 1250 हेक्टेयर में द्रोणगिरी में सेज़ बनाने के लिए 2006 में यूपीए सरकार से अनुमति ली पर अब तक वहाँ एक भी इकाई नहीं बनी है, पर फिर भी उसे लगातार ग़लत तरीक़े से विस्तार (Extension) दिया गया। रिपोर्ट के मुताबिक़, कई समूहों ने सेज़ के नाम पर सरकार से ज़मीन लेकर उसे बाद में ऊँचे दामों पर बेच दिया और 6 राज्यों में करीब 39,245.56 हेक्टेयर ज़मीन सेज़ के नाम पर निकाली गयी, लेकिन इसमें से करीब 5,402.22 हेक्टेयर ज़मीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर लिया गया। आन्ध्र प्रदेश में एक डेवलपर को 14 सेज़ बनाने के अनुमोदन दे दिये गये, पर उसने काम शुरू ही नहीं किया और ना ही सरकार ने इसकी जाँच की। कैग ने दावा किया है कि कई जगह “सार्वजनिक मक़सद” (Public purpose) के नाम पर ज़मीन ली गयी, जो ग़लत है। कैग के मुताबिक़ आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में सेज़ की ज़मीन का धड़ल्ले से दुरुपयोग हुआ है। ग्यारह समूहों ने ये ज़मीन गिरवी रखकर 6,309 करोड़ रुपये उठाये और इनमें से 3 डेवेलपर्स ने 2,211 करोड़ रुपये दूसरे कामों पर ख़र्च किये और वहाँ कोई सेज़-सम्बन्धित आर्थिक विकास कार्य नहीं हो रहा है जबकि शुरुआत में सेज़ के लिए एनओसी जारी करते समय कहा गया था कि सेज़ की ज़मीन गिरवी रखी ही नहीं जा सकती, पर बाद में वाणिज्य मन्त्रलय ने ऐसा करने दिया। कैग ने कहा कि 392 अधिसूचित क्षेत्रों में से केवल 152 में ही काम हो रहा है और सेज़ का अर्थव्यवस्था के विकास में कोई ख़ास योगदान नहीं है।
ज़मीन के दुरुपयोग से अलग इन कम्पनियों ने 2006 से 2013 के बीच 83,000 करोड़ से ज़्यादा की टैक्स छूट का फ़ायदा भी उठाया जिसमें सेण्ट्रल एक्साइज, सर्विस टैक्स, वैट, स्टाम्प ड्यूटी आदि शामिल ही नहीं हैं, क्योंकि भारत सरकार के पास ऐसी कोई निगरानी प्रणाली नहीं है जो सेज़ में करों में मिलने वाली छूट की निगरानी करती हो। ज़ाहिर-सी बात है कि सेण्ट्रल एक्साइज, सर्विस टैक्स, स्टाम्प ड्यूटी आदि की छूट को मिलाकर टैक्स छूट का आँकड़ा और बढ़ जायेगा! पहले भी 2007 में संसदीय स्थाई समिति की ओर से की गयी जाँच में बताया गया था कि 2004 से 2010 के बीच 1.75 लाख करोड़ की टैक्स छूट सेज़ को दी गयी थी। इसके अलावा कैग कहती है कि सेज़ में ग़लत तरीक़े से 1,150 करोड़ की छूट दी गयी।
कैग ने स्पष्ट कहा है कि सेज़ अपने रोज़गार, निवेश, और निर्यात के लक्ष्यों को पूरा करने में बुरी तरह से विफल रहा। हम एक-एक करके इन आँकड़ों को लेते हैं। ये आँकड़े मुख्यतः वर्ष 2006 से लेकर वर्ष 2013 तक के हैं यानी कि पिछले 7-8 सालों के।
सबसे पहले रोज़गार को लेते हैं। सेज़ में रोज़गार सृजित करने के जो सब्ज़बाग मालिकों ने दिखाये थे, वे सब फ़र्जीबाड़ा था जनता की आँखों में धूल झोंकने का! रिपोर्ट कहती है कि 12 राज्यों में फैले सेज़ में कुल मिलाकर 39,17,677 लोगों को रोज़गार मिलना था पर मिला केवल 2,84,785 लोगों को यानी कि अनुमानित लक्ष्य से 92.73 प्रतिशत कम!
मक्क़ार मालिकों और उनके भोंपू पूँजीवादी मीडिया ने जनता को मुंग़ैरीलाल के हसीन सपने दिखाये कि सेज़ से निवेश बढ़ेगा और ‘देश का विकास’ होगा और टटपूँजिया मध्यवर्ग ने इन सपनों को हाथों-हाथ ख़रीदा, पर सच्चाई इसके ठीक उलट निकली। कुल 79 डेवलपर्स या सेज़ यूनिट मालिकों को 1,94,662.52 का निवेश करना था पर किया केवल 80,176.25 यानी कि लक्ष्य से 58.81 प्रतिशत कम! कैग ने यह भी कहा कि सेज़ की छूट का फ़ायदा आईटी-आईटीईएस (IT-ITES) कम्पनियाँ उठा रही हैं जोकि सेज़ का 56.64 प्रतिशत है व बहुउत्पाद विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा केवल 9.6 प्रतिशत है, जबकि सेज़ को बहुउत्पाद विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए ही बनाया गया था!
यही निर्यात के मामले में हुआ। कुल निर्यात का लक्ष्य था 3,95,547.43 पर हासिल हुआ केवल 1,00,579.70 यानी कि लक्ष्य से 74.57 प्रतिशत कम!
यानी कि संक्षेप में कहें तो सेज़ के घोषित 100 प्रतिशत के लक्ष्य में से रोज़गार मिला केवल 7.27 प्रतिशत लोगों को, निवेश हुआ केवल 41.19 प्रतिशत, निर्यात हुआ केवल 25.43 प्रतिशत, और सेज़ में व बहुउत्पाद विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा बना केवल 9.6! यानी कि खोदा पहाड़, निकली चुहिया!
थोड़े में कहा जाये तो सेज़ से लेकर एक्सप्रेस वे, टाउनशिप, और औद्योगिक क्षेत्र आदि के बहाने मालिकों ने धड़ल्ले से ज़मीनें हड़पीं और जमकर अरबों की करचोरी की। ऐसी परियोजनाओं का कोई लाभ जनता को नहीं मिला। ये परियोजनाएँ ‘देश के विकास’ के लिए नहीं बल्कि मालिकों के विकास के लिए शुरू की गयी थीं। पूँजीवादी जनतन्त्र में यही होता है। सरकारें पूँजीपति वर्ग की मात्र मैनेजिंग कमेटियाँ होती हैं जिनका काम होता है मालिक वर्ग की सेवा करना और जब मालिकों द्वारा जनता के धन की लूट बहुत बढ़ जाती है तब उस लूट को थोड़ा नियन्त्रित करने की व्यर्थ कोशिश करना। यही काम पहले मनमोहन सिंह की सरकार कर रही थी और अब मोदी की सरकार कर रही है। अम्बानी, अडानी जैसे धनपशु पहले भी जनता को लूट रहे थे, अब भी जनता को लूट रहे हैं। अब जनता को सोचना है कि कैसे इस लूट के निज़ाम को उखाड़ फेंककर एक समतामूलक समाज बनाया जाये।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन