दिशा छात्र संगठन के राष्ट्रीय संयोजक अभिनव के अनुसार शहरों में ग़रीबी और बेरोज़गारी की स्थिति गाँवों से भी ज्यादा विकराल है। जनगणना और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के ऑंकड़ों से ही यह साफ़ पता चलता है कि पिछले दो दशकों में शहरों में बेरोज़गारी गाँवों के मुकाबले कहीं तेज़ रफ्तार से बढ़ी है। ऐसे में यदि गाँवों के ग़रीबों के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना (नरेगा) बनायी और लागू की गयी है तो शहरी ग़रीब और बेरोज़गार भी ऐसी योजना के हक़दार हैं। नरेगा लागू करते समय सरकार ने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया है गाँव के ग़रीबों और बेरोज़गारों को रोज़गार का अधिकार है और यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह उन्हें रोज़गार मुहैया कराये। क्या इसी तर्क से शहरी ग़रीब और बेरोज़गार रोज़गार के अधिकारी नहीं हैं? शहर के ग़रीब और बेरोज़गार भी भारत के उतने ही नागरिक हैं जितने कि गाँव के ग़रीब और बेरोज़गार। शहरों में जीवन कहीं ज्यादा कठिन होता है। यहाँ ग़रीब आबादी के लिए जीवनयापन ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता है। सरकारी ऑंकड़े ही बताते हैं शहरों में कुपोषण और भुखमरी गाँवों की तुलना में अधिक है। इसीलिए आज नरेगा के तर्ज़ पर राष्ट्रीय शहरी रोज़गार गारण्टी योजना की सख्त ज़रूरत है।
निश्चित तौर पर ऐसी कोई योजना मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था में बेरोज़गारी और ग़रीबी की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं पेश कर सकती है। लेकिन फिर भी नरेगा से एक आबादी को फौरी राहत पहुँच सकती है और एक हद तक पहुँच भी रही है। इसी रूप में कोई शहरी रोज़गार गारण्टी योजना भी शहर के ग़रीबों के एक हिस्से को भूख, ग़रीबी, कुपोषण और अपराध के दलदल में धंसने से रोक सकती है। दूसरी बात यह है कि यह राज्य और सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह जनता को रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा और आवास मुहैया कराये और वह भी बिना किसी शुल्क के। क्योंकि उसकी कीमत जनता अप्रत्यक्ष करों के रूप में पहले ही अदा कर चुकी है।
शहरों में बेरोज़गारी बढ़ने की रफ्तार करीब 10 प्रतिशत तक पहुँच रही है जबकि गाँवों में यह 7 प्रतिशत से भी नीचे है। शहर में काम करने योग्य हर 1000 लोगों में से केवल 337 के पास रोज़गार है जबकि गाँवों यह ऑंकड़ा 417 है। शहरी भारत में हर वर्ष एक करोड़ नये काम करने योग्य लोग जुड़ते हैं जबकि रोज़गार पैदा होने की बात तो दूर, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों के कारण रोज़गार लगातार घट रहे हैं। सरकारी परिभाषा के अनुसार शहरों की 70 प्रतिशत आबादी बेरोज़गार या अर्द्धबेरोज़गार है। सरकार की रोज़गार की परिभाषा भी मज़ाकिया है; जो कोई भी वर्ष के 73 दिन 8 घण्टे प्रतिदिन काम करता है उसे रोज़गारशुदा माना जाता है। यह परिभाषा बनायी ही इसलिए गयी है ताकि बेरोज़गारी को कम करके दिखलाया जा सके। यदि इस सरकारी पैमाने को छोड़कर वास्तविक स्थिति पर ग़ौर किया जाये, तो शहरों की 80 फीसदी आबादी बेरोज़गारी या अर्द्धबरोज़गारी के कारण भयंकर आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा का शिकार है।
यह अभियान देश के पाँच राज्यों – दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्रमें नौजवान भारत सभा और दिशा छात्र संगठन द्वारा एक साथ चलाया जाएगा। प्रमुख शहरों में दिल्ली, नोएडा, ग़ाज़ियाबाद, गोरखपुर, लखनऊ, मऊ, लुधियाना, चण्डीगढ़, बठिण्डा, कोलकाता, मुम्बई आदि शामिल हैं। इन शहरों में छात्रों-युवाओं की टोली नुक्कड़ सभाओं, घर-घर सम्पर्क अभियानों, क्रान्तिकारी गीतों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों, विचार-विमर्श चक्रों, साइकिल व पद यात्राओं आदि के ज़रिये रोज़गार गारण्टी के सन्देश को हर शहरी ग़रीब और बेरोज़गार तक पहुँचाएगी।
इसके बाद पूरे देश से अभियान के समर्थन में लाखों की संख्या में हस्ताक्षर जुटाकर माँगपत्रक के साथ प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और संसद को सौंपे जायेंगे। इस अभियान के तहत सरकार को एक माँगपत्रक पेश किया जाएगा जिसकी माँगें इस प्रकार हैं :
1. नरेगा की तर्ज़ पर शहरी बेरोज़गारों और ग़रीबों के लिए शहरी रोज़गार गारण्टी योजना बनायी और लागू की जाये।
2. इस योजना के तहत शहरी बेरोज़गारों को साल में कम से कम 200 दिनों का रोज़गार दिया जाये।
3. इस योजना में मिलने वाले काम पर न्यूनतम मज़दूरी के मानकों के अनुसार भुगतान किया जाय।
4. इस योजना के तहत रोज़गार न दे पाने की सूरत में बेरोज़गारी भत्ता दिया जाये जो जीविकोपार्जन के न्यूनतम स्तर को कायम रख पाने के लिए पर्याप्त हो।
5. इस योजना को पूरे भारत में लागू किया जाय।
नौजवान भारत सभा और दिशा छात्र संगठन आने वाले 6 माह में लाखों हस्ताक्षरों के साथ यह पाँच सूत्री माँगपत्रक देश की केन्द्रीय सरकार और सभी राज्यों की सरकारों को देंगे। दिल्ली में एक विशाल जन मार्च के साथ ये हस्ताक्षर सौंपे जायेंगे। यदि सरकार इस योजना को बनाने के लिए त्वरित कदम नहीं उठाती तो इस पूरे अभियान को एक जुझारू आन्दोलन की शक्ल दी जाएगी।
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