तेल की क़ीमतों में गिरावट का राज़
आनन्द सिंह
पिछले कुछ महीनों में पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में आश्चर्यजनक ढंग से गिरावट देखने को आ रही है। भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के समर्थक नयी सरकार की नीतियों को इस गिरावट के लिए ज़िम्मेदार बता रहे हैं। लेकिन पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में आयी गिरावट की असली वजह की पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि ये क़ीमतें जितनी गिरनी चाहिए थीं, भारत में उतनी नहीं गिरी हैं। इस साल जून के महीने से ही अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। जून में अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 115 डॉलर प्रति बैरल थी जो अब गिरकर 66 डॉलर प्रति बैरल के पास पहुँच चुकी है, यानी कि कच्चे तेल की क़ीमतों में 40 प्रतिशत से ज़्यादा की गिरावट हुई है। लेकिन भारत में पेट्रोल की क़ीमत में सिर्फ़ 11.31 प्रतिशत और डीज़ल की क़ीमत में 8.32 प्रतिशत गिरावट हुई है। ग़ौरतलब है कि जब अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी होती है तो उसकी सबसे ज़्यादा गाज उपभोक्ता पर गिरती है। लेकिन अब जबकि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में गिरावट हो रही है तो इसका लाभ उपभोक्ता से ज़्यादा तेल कम्पनियों को हो रहा है।
क्यों गिर रही हैं अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतें?
अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतों में आयी भारी गिरावट के कारण आर्थिक और भूराजनीतिक हैं। आर्थिक पटल पर माँग और आपूर्ति दोनों ही कारक अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में हो रही गिरावट के लिए ज़िम्मेदार हैं। यूरोप (विशेष-कर इटली और ग्रीस) और जापान की अर्थव्यवस्थाएँ पिछले कई वर्षों से लगातार मन्दी का शिकार रही हैं और अभी तक वे उससे उबर नहीं पायी हैं। इसके अलावा चीन की अर्थव्यवस्था पर भी मन्दी के काले बादल मँडरा रहे हैं। विश्व की इन प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में चल रही मन्दी की वजह से विश्व स्तर पर तेल की माँग कम हुई है जिसने अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतों में गिरावट में एक अहम भूमिका अदा की है।
माँग कम होने के साथ ही कच्चे तेल की आपूर्ति में बढ़ोत्तरी भी अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में उसकी क़ीमतों में हुई गिरावट के लिए ज़िम्मेदार है। कच्चे तेल की आपूर्ति में बढ़ोत्तरी की सबसे प्रमुख वजह उत्तरी अमेरिका में शेल नामक चट्टानों के बीच से तेल के उत्पादन की नयी क्रियाविधि की खोज रही है। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका के टेक्सस और उत्तरी डकोता राज्यों में फ्रैकिंग नामक प्रक्रिया से हाइड्रॉलिक जल दबाव के ज़रिये शेल चट्टानों की परतों के बीच से तेल निकालने की तकनीक के ज़रिये तेल का उत्पादन हो रहा है जिसकी वजह से अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की आपूर्ति बढ़ गयी है।
आमतौर पर जब अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतें गिरने लगती हैं तो ओपेक (तेल उत्पादक देशों का समूह जिसमें सऊदी अरब, ईरान, वेनेजुएला, इराक़ और कतर जैसे देश शामिल हैं) अपने तेल उत्पादन में कमी लाकर तेल की आपूर्ति कम कर देता है जिससे तेल के मूल्य में गिरावट रुक जाती है। परन्तु इस बार ओपेक ने तेल उत्पादन में कटौती नहीं करने का फ़ैसला किया है। इसकी वजह भूराजनीतिक है। सऊदी अरब जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है, अमेरिका में शेल तेल की खोज को अपने भविष्य के लिए एक ख़तरे के रूप में देखता है। यही वजह है कि उसने इस बार तेल उत्पादन में कटौती करने से मना कर दिया ताकि तेल की क़ीमतें इतनी नीचे गिर जायें कि शेल तेल उत्पादन (जो अपेक्षाकृत अधिक ख़र्चीला है) मुनाफ़े का व्यवसाय न रह पाये और इस प्रकार अन्तरराष्ट्रीय तेल बाज़ार में सऊदी अरब का दबदबा बना रहे। साथ ही साथ इस नीति से ईरान और रूस की अर्थव्यवस्थाओं पर ख़तरे के बादल मँडराने लगे हैं क्योंकि तेल उत्पादन इन दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।
अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में गिरावट के निहितार्थ
अगर विश्व अर्थव्यवस्था की बात की जाये तो तेल की क़ीमतों में इस क़दर गिरावट विश्व पूँजीवाद के संकट को हल करने की बजाय उसको बढ़ाता ही दिख रहा है। विशेषकर रूस, ईरान और वेनेजुएला की अर्थव्यवस्थाएँ इस गिरावट से बुरी तरह से प्रभावित हुई है। रूस के कुल निर्यात का 75 प्रतिशत हिस्सा तेल और गैस निर्यात का है। यही वजह है कि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में गिरावट का नतीजा रूस की मुद्रा रूबल के मूल्य में भारी कमी के रूप में देखने को आया। जून से लेकर अब तक रूबल के मूल्य में 35 प्रतिशत गिरावट हुई है। रूस ने काले सागर से होते हुए यूरोप तक गैस पहुँचाने के लिए साउथ स्ट्रीम नामक जो गैस पाइपलाइन प्रस्तावित की थी उसे इस संकट के बाद अब रद्द करना पड़ गया है। जहाँ एक ओर राजनीतिक क्षेत्र में यूक्रेन के मसले पर रूसी साम्राज्यवाद ने अमेरिकी एवं पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों पर बढ़त बनायी थी, वही अब आर्थिक क्षेत्र में उसकी स्थिति डाँवाडोल दिखायी दे रही है। भविष्य में इसके ख़तरनाक परिणाम सामने आ सकते हैं क्योंकि यह अन्तरसाम्राज्यवादी होड़ को तीखा करेगी।
इसके अलावा तमाम अर्थशास्त्री इस बात की आशंका भी व्यक्त कर रहे हैं कि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में इतनी भारी गिरावट (जिसके निकट भविष्य में जारी रहने की सम्भावना है) विश्व पूँजीवाद को एक नयी मन्दी की ओर भी झोंक सकती है। इन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में धातु और खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में एक अरसे से गिरावट चल रही है और अब तेल में आयी गिरावट के बाद विश्व अथर्व्यवस्था में अपस्फीति (क़ीमतों में सामान्य कमी) का ख़तरा मँडरा रहा है जो एक नयी विश्वव्यापी मन्दी का सबब बन सकती है।
अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतों में आयी गिरावट से भारत जैसे देशों की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को सँभलने में थोड़ी मदद मिल सकती है, क्योंकि भारत अपनी कुल तेल खपत का 70 फ़ीसदी से भी ज़्यादा आयात करता है। परन्तु जैसाकि हमने ऊपर देखा, अभी तक अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतों में आयी गिरावट का लाभ उपभोक्ताओं तक उस अनुपात में नहीं पहुँचा है जिस अनुपात में क़ीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में गिरी हैं। यदि भविष्य में पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें और गिरती हैं तो इसका प्रभाव मुख्य तौर पर ऑटोमोबाइल उद्योग के पूँजीपतियों के बढ़ते मुनाफ़े के रूप में और इसका दुष्परिणाम पर्यावरण की तबाही के रूप में भी सामने आयेगा। मज़दूर वर्ग की ज़िन्दगी में तो इससे कोई बेहतरी नहीं होने वाली है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2014
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