छत्तीसगढ़ में नसबन्दी कैम्प के दौरान 14 महिलाओं की मौत
मामला सिर्फ़ मेडिकल लापरवाही या घटिया दवाओं का नहीं है!

डा. अमृत

women-hospital-Chhatishgarhपिछले दिनों छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर ज़िले में सरकार द्वारा आयोजित महिलाओं की नसबन्दी कैम्प में ऑपरेशन के बाद 14 युवा महिलाओं की दर्दनाक मृत्यु हो गयी। ऑपरेशन करनेवाले डॉक्टर से लेकर दवाइयाँ सप्लाई करने वाली कम्पनी समेत सब पर सवाल उठे हैं, गिरफ्तारियाँ भी हुई हैं, सरकारी जाँच भी होगी, सरकारी मुआवज़े भी बाँटे जाने हैं, मन्त्रियों ने भी अफ़सोस प्रकट कर दिया है मगर ऐसे कैम्प लगते भी रहेंगे। इस घटना के बाद छत्तीसगढ़ में ही ऐसे एक और कैम्प के दौरान एक अन्य महिला की मृत्यु हो चुकी है। इस घटना को डॉक्टरों की लापरवाही, सरकारी भ्रष्टाचार का नतीजा बनाकर पेश किया जा रहा है, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ लोग सरकारों की तरफ़ से डॉक्टरों को ऑपरेशनों के “कोटे बाँधने की नीति” की बात कर रहे हैं। बेशक ये सभी बातें भी अपनी जगह सही हैं, परन्तु असली मुद्दा तो भारत सरकार की आबादी सम्बन्धित नीति का है और समाज में मौजूद पितृ-सत्ता का है जिसके बारे में बहुत कम बात हो रही है, या कहें, बात हो ही नहीं रही है।

इस घटना का कारण ऑपरेशन के बाद दी गयी दवाओं में चूहेमार दवा का मिला होना बताया जा रहा है, कुछ रिपोर्टों के मुताबिक़ दवाओं की मियाद भी दो-तीन साल पहले ही गुज़र चुकी थी। दवाएँ बनाने वाली कम्पनी का सरकारी दरबार में रसूख था जिसके दम पर वह अपनी, घटिया और गुज़र चुकी मियाद वाली दवाएँ लोगों को खिला रही थी और वसूली सरकारी खाते से प्राप्त कर रही थी। इस तरह यह सरकारी भ्रष्टाचार का मामला बनता है, जिसमें कोई बड़ी बात नहीं कि मन्त्री तक शामिल होंगे और यह कोई छोटा मामला भी नहीं होगा, क्योंकि कम्पनी ने सिर्फ़ एक कैम्प के लिए तो दवा भेजी नहीं होगी, उसके पास एक निश्चित समय के लिए दवा सप्लाई का सरकारी ठेका होगा। कुल मिलाकर मन्त्री, स्वास्थ्य संस्थान के आला अफ़सरों समेत कई और ने इस सौदे में से “कमाई” की होगी। परन्तु इसकी पड़ताल शायद ही हो, दवा-कम्पनी के एक-दो आदमियों की गिरफ्तारी और जाँच शुरू करने की कार्रवाई करके मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया जायेगा। दूसरा, इसमें डॉक्टरों की भूमिका पर भी बिना शक उँगली उठेगी ही। सबसे पहले वह कैम्प आयोजित करने वाली टीम के प्रमुख के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकते। डॉक्टर यह सब कुछ कह सकता है कि सरकार अपेक्षित साजोसमान मुहैया नहीं करवाती, थोड़े समय में एक डॉक्टर को बहुत ज़्यादा संख्या में ऑपरेशन करने के लिए मजबूर किया जाता है, ऑपरेशनों के कोटे बाँधे जाते हैं और कोटा पूरा न करने की सूरत में तनख़्वाह में कटौती और तरक्‍क़ी पर रोक जैसी धमकियाँ दी जाती हैं, दवाओं की सप्लाई के ठेके सरकारी तन्त्र तय करता है जिसमें ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर की कोई भूमिका नहीं होती। परन्तु इन प्रत्येक तर्कों के बावजूद डॉक्टर बरी नहीं हो सकते, क्योंकि इन सब बातों से डॉक्टर अनजान नहीं होते और न ही छत्तीसगढ़ के इस कैम्प के डॉक्टर इन बातों से अनजान होंगे। ऐसे में मेडिकल विज्ञान की धज्जियाँ उड़ाने वाली अनियमितताओं के आगे सिर झुकाकर चलना भी तो विज्ञान के प्रति, पेशे के प्रति और पूरी मानवता के प्रति अपराध में ही शामिल है। क्या डॉक्टर की यह नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं कि वह इन अनियमितताओं के खि़लाफ़ बोले? बिल्कुल, यह उसकी ज़िम्मेदारियों में शामिल है, परन्तु आज के बहुसंख्यक डॉक्टर ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि वह डॉक्टर “कमाई, कार, बँगले” के लिए बने हैं और उनका निशाना “अधिक कमाई, बड़ी कार और बड़ा बँगला” होता है। ढाँचे की अनियमितताओं के खि़लाफ़ आवाज़ उठाना उनके इस “सपने” के लिए “बुरा” हो सकता है। वे अपनी, तनख़्वाह, इनक्रिमेण्ट, तरक्‍कियों आदि के लिए तो लड़ सकते हैं, परन्तु विज्ञान के लिए, मेडिकल पेशे की पवित्रता के लिए और आम लोगों के हितों के लिए नहीं। सरकार की तरफ़ से कोटे बाँधने की नीति का विरोध भी तब ही होता है, जब कोई ऐसी घटना घटती है, वैसे क्या डॉक्टरों को दिखायी नहीं देता कि किस तरह बड़ी संख्या में ग्रामीण ग़रीब औरतों को पशुओं की तरह कैम्पवाली जगह इकट्ठा किया जाता है। वास्तव में यह डॉक्टरों को नहीं दिखायी पड़ता, क्योंकि एक तो उनके लिए भी आम ग़रीब लोग भीड़ और एक आम मनुष्य केवल एक “केस” होता है, दूसरा नसबन्दी ऑपरेशन के लिए उनको सरकार से “नक़द प्रोत्साहन” मिलता है। छत्तीसगढ़ के इस कैम्प में ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर को भी कैम्प के बाद 6,225 रुपये “नक़द प्रोत्साहन” मिल चुका था। तीसरा और सबसे अहम यह कि उनके दिमाग में भी यह तर्क भरा हुआ है कि ग़रीब लोगों ने बच्चे पैदा कर-करके आबादी बढ़ा रखी है और इनके साथ इसी तरह से निपटा जाना चाहिए। अगर यह घटना न होती तो डॉक्टर को कुछ ग़लत नहीं लगता।

अब हम मुख्य मुद्दे की तरफ़ आते हैं, वह है सरकार की आबादी सम्बन्धित नीति और परिवार नियोजन प्रोग्राम के पीछे, ख़ासकर महिलाओं की नसबन्दी ऑपरेशनों पर ज़ोर के पीछे असली कारण और आधार। सबसे पहले तो यह नीति और नसबन्दी अभियान पूरी तरह से ग़रीब लोगों का विरोधी है, यह धनाढ्यों के संसार दृष्टिकोण का प्रतीक है। दूसरा, यह नीति और नसबन्दी अभियान भयंकर हद तक नारी-विरोधी है और यह समाज में मौजूद मर्द प्रधानता और महिलाओं की गुलामों वाली हालत का एक बहुत ही नीच दिखावा है, जिसका एक सभ्य समाज में कोई चलन नहीं हो सकता, परन्तु भारत समेत तीसरी दुनिया के सभी देशों में औरतों को इस अमानवीय व्यवहार का दशकों से शिकार बनाया जा रहा है।

भारत सरकार की आबादी नीति का मुख्य आधार यह है कि आबादी का बढ़ना ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी का बुनियादी कारण है, बढ़ती आबादी के कारण खुराक और पानी के स्रोतों और वातावरण पर मानवीय दबाव बढ़ रहा है, इसलिए आबादी को कण्ट्रोल करके खुराक और पानी की कमी और वातावरण की तबाही को रोका जा सकता है। अब क्योंकि कुल आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा ग़रीब है, ज़्यादा बच्चे ग़रीब आबादी में पैदा होते हैं, इसलिए इस समूची तर्क-पद्धति का नतीजा यह है कि ग़रीबी, भुखमरी, खुराक और पानी की कमी और यहाँ तक कि वातावरण की तबाही के लिए ग़रीब आबादी ज़िम्मेदार है। यही वह तर्क-पद्धति है जिसके द्वारा पूँजीवादी ढाँचा अपने कुकर्मों की ज़िम्मेदारी अपने शिकार लोगों पर ही फेंक देता है, फिर इसको अपने बौद्धिक टुक्कड़खोरों के द्वारा ख़ूब प्रचारता है। वैसे सरकारी दलीलें यह भी कहती हैं कि परिवार नियोजन महिलाओं की सेहत की बेहतरी के लिए है, परन्तु ऐसा वास्तव में है नहीं क्योंकि सरकार परिवार नियोजन प्रोग्राम को जिस तरह चलाती है, उसका मुख्य उद्देश्य आबादी को “कण्ट्रोल” करना ही है, न कि महिलाओं की सेहत की चिन्ता। अगर कहीं ऐसा सम्भव होता भी है, तो उसके पीछे भी मकसद यह है कि पूँजीवादी ढाँचों में महिलाओं की काम की भी ज़रूरत है और ज़रूरी है कि महिलाओं की बड़ी संख्या भी काम करने के लिए काम-मण्डी में आये। और यह तो सम्भव हो सकता है कि औरतों को ज़्यादा बच्चों के जन्म के बोझ से कुछ हद तक “मुक्त” किया जाये!

ख़ैर हम बढ़ती आबादी, मतलब (धनाढ्यों के अनुसार) ग़रीबों द्वारा बढ़ाई आबादी (क्योंकि ऊपरी 15-20 प्रतिशत हिस्सा आबादी बढ़ाने में कोई योगदान नहीं डालता) की तरफ़ से पानी और खुराक के स्रोतों और वातावरण पर डाले जा रहे दबाव पर एक नज़र मारते हैं। सबसे पहले पानी का प्रयोग देखते हैं कि कौन पानी के स्रोतों पर बोझ बना हुआ है? दिल्ली का ही उदाहरण लें, दिल्ली में भारत के मानकीकरण बोर्ड की तरफ़ से दिल्ली के हरेक शहरी के लिए 160 लीटर/दिन पानी की ज़रूरत मानी है और दिल्ली में पानी की उपलब्धता 280-300 लीटर/दिन प्रति व्यक्ति है। परन्तु असली खपत यह नहीं है। उच्च आमदन वर्ग का पानी का उपभोग 250-600 लीटर/दिन प्रति व्यक्ति है, जबकि ग़रीब आबादी (मतलब कुल आबादी का 70 प्रतिशत हिस्सा) को सिर्फ़ 40 लीटर/दिन प्रति व्यक्ति पानी भी मुश्किल से मिलता है। दिल्ली के बड़े हिस्से को तो रोज़मर्रा की पानी की सप्लाई ही नहीं है, वहाँ एक दिन छोड़कर पानी आता है। और आगे, दिल्ली के पाँच-तारा होटलों के एक कमरे का पानी का उपभोग 1600 लीटर प्रतिदिन है, एक वी.आई.पी. मकान की रोज़मर्रा का पानी का उपभोग 30,000 लीटर है। प्रधानमन्त्री निवास और राष्ट्रपति भवन रोज़मर्रा की 70,000-70,000 लीटर पानी सटक जाते हैं, मन्त्रियों और बहुत ही अमीर बिज़नेसमैन, पूँजीपतियों आदि के घर 30,000-45,000 लीटर पानी रोज़ाना का पीते हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार ही दिल्ली में पानी की कुल उपभोग में से 40 प्रतिशत अनावश्यक होती है, मतलब बर्बादी होती है। अनावश्यक प्रयोग का कारण उद्योग में प्रयोग, घरों में कारों को धोना, कुत्ते नहलाने, खुला पानी छोड़कर फ़र्श धोने, सार्वजनिक जगहों पर खराब नल हैं। अब इन प्रत्येक “मानवीय सरगर्मियों” में ग़रीबों की कोई भूमिका नहीं है। ये आँकड़े सरकारी सप्लाई के हैं, धरती में से मोटरें लगाकर पानी के इस्तेमाल वाले आँकड़े अलग हैं, यह काम भी आज कोई ग़रीब तो कर नहीं सकता, इसलिए पानी का यह प्रयोग भी ऊपरी 15-20 प्रतिशत आबादी ही करती है। पूरे भारत में एक-तिहाई आबादी को तो साफ़ पीने वाला पानी तक नहीं मिलता। मध्यप्रदेश में 40 प्रतिशत घरों को रोज़मर्रा का 40 लीटर पानी भी उपलब्ध नहीं है। ज़ाहिर है कि यह सारी आबादी ग़रीब आबादी है। संसार स्तर पर भी यही हाल है। अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, इटली जैसे देशों में प्रति व्यक्ति पानी का उपभोग 300 लीटर/दिन है, जबकि रवाण्डा, इथोपिया, हैती, मौजम्बीक जैसे ग़रीब देशों में यह 15 लीटर/दिन प्रति व्यक्ति है। इससे साफ़ हो जाता है कि पानी के स्रोतों पर बोझ कौन बना हुआ है।

थोड़ी बात खुराक के स्रोतों के बारे में भी। अमरीका में प्रति व्यक्ति अनाज, दालें आदि खुराकी चीज़ों का उपभोग प्रति व्यक्ति 1,046 किलो/साल है, भारत में यह 178 किलो/साल है और अन्य बहुत से ग़रीब देशों में यह इससे भी कम है। 178 किलो/साल भारत के लिए सिर्फ़ औसत ही है। यहाँ का ऊपरी 15-20 प्रतिशत हिस्सा किसी भी पक्ष से एक आम अमरीकी से, और कुछ हद तक तो अमरीकी अमीरों से भी कम उपभोग नहीं करता, जबकि ग़रीब आबादी को अपने शरीर की कैलोरी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी अनाज नहीं मिलता। वातावरण तबाही पर भी यही बात लागू होती है। कुल मिलाकर देखा जाये तो यह स्पष्‍ट है कि खुराक और पानी के स्रोतों पर दबाव और वातावरण की तबाही में ग़रीब बहुसंख्यक आबादी की कोई भूमिका ही नहीं है, इसकी ज़िम्मेदार धनाढ्य और उच्च-मध्यवर्ग की एक बहुत छोटी अल्पसंख्या है। अगर खुराक, पानी और वातावरण की सुरक्षा यकीनी बनाने के लिए नसबन्दी करनी ही है तो नसबन्दी ग़रीबों से नहीं, ऊपर के 15-20 प्रतिशत से शुरू होनी चाहिए जिससे इन परजीवियों की और पीढ़ियाँ पैदा होकर धरती को तबाह न कर सकें।

नसबन्दी ऑपरेशन के साथ जुड़ा दूसरा, बहुत ही अमानवीय पहलू समाज में महिलाओं के दबाये जाने के साथ जुड़ा हुआ है। भारत जैसे देशों में तो ख़ास तरह के ऐतिहासिक विकास के कारण औरतों पर दबाव और मर्द-प्रधानता बेहद भयंकर है। यहाँ बच्चा पैदा करने की पूरी प्रक्रिया की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं पर डाल दी जाती है, इसलिए अगर और बच्चा नहीं चाहिए तो यह स्त्री की ज़िम्मेदारी है कि वह इसके लिए ऑपरेशन करवाये। समाज में महिला को ऑपरेशन के लिए मजबूर किया जाता है, न कि उसकी सहमति ली जाती है। एक तरफ़ मर्द की सत्ता उसको मजबूर करती है, दूसरी तरफ़ नसबन्दी ऑपरेशनों को उत्साहित करने के लिए दी जाती सरकारी “नक़द प्रोत्साहन” प्राप्त करने के लिए सेहत कर्मचारी (जो मुख्य रूप में औरतें ही होती हैं) भी औरतों को ही “सहमत” करवाते हैं, क्योंकि एक तो मर्दों के साथ यह बात करनी ही मुश्किल है, दूसरा वह भी इस मर्द-प्रधान सोच के साथ सहमत ही होते हैं कि ऐसा करने की ज़िम्मेदारी महिला की ही बनती है। सरकारी नीतिशास्त्री चाहे वह मर्द हों या औरतें, भी इसी मर्द-प्रधान सोच की पैदाइश और प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया के कुल ऐसे ऑपरेशनों में से 37 प्रतिशत भारत में होते हैं जोकि बाक़ी सभी देशों से कहीं ज़्यादा है, जबकि भारत में दुनिया की कुल आबादी का 17 प्रतिशत हिस्सा ही निवासी है। भारत में होते कुल नसबन्दी ऑपरेशनों में से लगभग सभी ही (97.14 प्रतिशत, कई प्रान्तों में यह प्रतिशत 99 प्रतिशत से भी ज़्यादा है) औरतों के होते हैं। ऐसा इस जानकारी के मौजूद होने के बावजूद होता है कि महिलाओं में नसबन्दी ऑपरेशन मर्दों के नसबन्दी ऑपरेशन के मुकाबले तकनीकी रूप में तो कठिन होता ही है, इसमें जान जाने का ख़तरा मौजूद है जबकि मर्दों के नसबन्दी ऑपरेशन में जान जाने का कोई ख़तरा नहीं है। भारत सरकार के अनुसार साल 2008-2012 के दौरान नसबन्दी ऑपरेशनों के कारण 675 महिलाओं की मृत्यु हुई, और 438 अन्य को ऑपरेशन के कारण स्वास्थ्य का नुक़सान उठाना पड़ा। यह संख्या उन मौतों की है जो कहीं दर्ज हुईं, मृत्यु दर कम दिखाने के लिए नसबन्दी ऑपरेशन के साथ जुड़ी मौतों की काफ़ी संख्या दर्ज ही न होने की बात कई रिपोर्टों ने की है। दूसरी तरफ़ मर्दों की नसबन्दी ऑपरेशन के कारण मृत्यु की कोई सम्भावना ही नहीं है, अब तो इस ऑपरेशन में चीरा देने पर टाँका लगाने की भी ज़रूरत नहीं है और तकनीकी पक्ष से बहुत आसान हो चुका है, परन्तु सरकारों की तरफ़ से इसको उत्साहित करने और महिलाओं के ऑपरेशन को निरुत्साहित करने की कोई योजना नहीं बनी है। औरतों को, ख़ासकर ग्रामीण और ग़रीब औरतों को, समाज में “आसान शिकार” समझकर नसबन्दी ऑपरेशन उन पर थोपे जा रहे हैं जोकि वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही नहीं है। इस तरह यह मर्द-प्रधानता के खि़लाफ़ लड़ाई का मुद्दा भी बन जाता है।

इसी नुक्ते का एक और पहलू भी है जो किसी महिला के बच्चा पैदा कर सकने के अधिकार के साथ जुड़ा हुआ है। बहुत से ऑपरेशनों में औरतों को पूरी जानकारी ही नहीं दी जाती और न ही सहमति ली जाती है। दूसरा, गर्भ रोकने के अस्थाई तरीक़े भी काफ़ी विकसित हो चुके हैं, परन्तु भारत में इन तरीक़ों को उतना प्रचारित नहीं किया जाता, प्रोत्साहित नहीं किया जाता, जितना नसबन्दी ऑपरेशनों को किया जाता है। भारत में 46 प्रतिशत जोड़े आज भी गर्भनिरोध की कोई विधि इस्तेमाल नहीं करते, या वह इस बारे में जानते ही नहीं। गर्भनिरोध के तरीक़े इस्तेमाल करने वाले बाक़ी जोड़ों में से आधे से बहुत ज़्यादा महिलाओं की नसबन्दी ऑपरेशन करवाते हैं। सरकारों की तरफ़ से तर्क दिया जाता है कि अस्थाई तरीक़े इस्तेमाल करना सिखाना कठिन है, लोग उनको ठीक-ठीक इस्तेमाल करना समझ नहीं पाते। यह बिल्कुल ग़लत तर्क है, कोई भी विधि इतनी कठिन नहीं है कि इस्तेमाल करना न सिखाया जा सके। दूसरा, अगर ऑपरेशन के लिए सहमति ली जा सकती है तो लोगों को अस्थाई तरीक़े अपनाने के लिए भी तैयार किया जा सकता है। परन्तु इसके लिए कोई राजनीतिक इच्छा है ही नहीं, क्योंकि सरकारें और नितिवानों के लिए आम लोग मनुष्य हैं ही नहीं, उनके लिए वे सिर्फ़ अमीरों के लिए काम करने वाली मशीनें हैं जो उतनी ही संख्या में होनी चाहिए, जितनी उनकी ज़रूरत है और साथ ही वे चाहते हैं कि ये मानवीय मशीनें खुराक, पानी और वातावरण में से अपना हिस्सा भी न माँगें। दूसरी तरफ़ अब यह माना जा चुका है कि सबसे अधिक असरदार गर्भ-निरोधक विधि आर्थिक और निष्कर्ष के तौर पर सांस्कृतिक विकास है, परन्तु ऐसा आज का परजीवी पूँजीवादी प्रबन्ध कर ही नहीं सकता। इसलिए इसके करते-धरते यह सच्चाई लोगों से छिपाने के लिए सारा दोष लोगों पर ही मढ़ देते हैं और अपने इस तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार समस्या को हल करने के नुस्खे सुझाते हैं, जिनका नुक़सान फिर ग़रीबों को ही उठाना पड़ता है, जैसे बिलासपुर ज़िले में 14 औरतों को अपनी जान की क़ीमत उठाकर भरना पड़ा है। मौजूदा सामाजिक ढाँचे में नसबन्दी ऑपरेशनों के कारण महिलाओं की मौतें होने की यह कोई पहली घटना नहीं थी, और यह आखि़री घटना भी नहीं है।

 

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2014


 

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