पूँजीवादी लूट इससे ज्यादा नग्न नहीं हो सकती! मेहनतकशों की तबाही-बर्बादी इससे भयंकर नहीं हो सकती!
हम अब और तमाशबीन नहीं बने रह सकते! एक ही रास्ता-मज़दूर इंक़लाब! मज़दूर सत्ता!
सम्पादक मण्डल
वैसे तो पूँजीवादी समाज में हर रोज़ ही हम ऐसी घटनाओं के गवाह बनते हैं जो पूँजीवादी समाज की सच्चाई को हमारी ऑंखों के सामने उजागर करती हैं, लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान देश के पैमाने पर पूँजीवादी व्यवस्था जिस कदर नंगी हुई है, उसे बताने के लिए अब रंग-छन्द की ज़रूरत नहीं रह गयी है। आज इस पूरी आदमख़ोर मुनाफाख़ोर व्यवस्था की क्रूर और अमानवीय सच्चाई सीधे हमारे सामने खड़ी है – एकदम निपट नंगी सच्चाई। और इसलिए इसे उतने ही सीधे शब्दों में आपके सामने रख देना ही मेहनतकशों के अख़बार के तौर पर ‘मजदूर बिगुल’ आज सबसे ज़रूरी समझता है। पिछले कुछ महीनों में हुई घटनाओं पर एक नज़र डालते ही यह साफ होने लगता है कि पूँजीवादी शासक वर्ग अब अपनी सड़ी-गली व्यवस्था की घिनौनी सच्चाइयों पर पर्दा डालने की भी ज़रूरत नहीं महसूस करता है। वह जान चुका है कि समूची पूँजीवादी सभ्यता की घृणित सच्चाई अब जनता के सामने एकदम साफ है। इसे छिपाने की कोशिश करना बेकार है। अब उसकी उम्मीदें पूँजीवाद को लेकर आम जनता के बीच कोई भ्रम फैलाने पर नहीं टिकी हैं। अब उसकी उम्मीदें इस बात पर टिकी हैं कि जनता पस्तहिम्मती, पराजयबोध और हताशा में जीते हुए इस अफसोसनाक हालत को ही नियति समझ बैठेगी और इसे स्वीकार कर लेगी। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह उसकी ग़लतफहमी है। आइये कुछ प्रातिनिधिक घटनाओं पर एक नज़र डालें।
पहली घटना – हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने देश की सरकार को इस बात के लिए काफी खरी-खोटी सुनायी कि एक ओर तो लोग भूख और कुपोषण से मर रहे हैं और दूसरी ओर गोदामों में हज़ारों टन अनाज सड़ गया। हम सभी जानते हैं कि यह कोई नयी बात नहीं है। हर साल भारतीय खाद्यान्न निगम के गोदामों में हज़ारों टन अनाज या तो सड़ जाता है, या उसे चूहे खा जाते हैं या फिर स्वयं न्यायालय ही उसे जलाने का निर्देश दे देता है। हर साल ही देश में लाखों लोग भूख और कुपोषण के चलते दम तोड़ देते हैं। हर बार ही सर्वोच्च न्यायालय सरकार को ऐसी झिड़कियाँ देता है। और किसी साल सरकार ग़रीबों में निशुल्क अनाज वितरण नहीं करती है। निश्चित तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि सरकार ऐसा कुछ नहीं करेगी। क्योंकि यह पूँजीवादी व्यवस्था में सम्भव नहीं है। निजी मुनाफे की एक ऐसी व्यवस्था में जिसमें आदमी की जान समेत हर चीज़ बेची और ख़रीदी जाती हो, वहाँ यह सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि मुफ्त अनाज बाँटने से कीमतें गिरेंगी और पूँजीपति वर्ग को घाटा होगा। इसलिए लोग भूखे मरते रहते हैं लेकिन अनाज को बाँटा नहीं जाता। एक पूँजीवादी न्यायपालिका में बैठा न्यायाधीश इस सीधे से तर्क को न समझता हो, ऐसा मुमकिन नहीं है। लेकिन यह समझने के बावजूद वह नियम से हर साल सरकार को एक बार अनाज सड़ने के लिए डाँट देता है। ऐसा वह सिर्फ इसलिए करता है कि पूँजीवादी न्यायपालिका पर जनता का भरोसा कायम रहे। कम-से-कम एक ऐसा धड़ा होना चाहिए इस व्यवस्था का, जो इस व्यवस्था पर से जनता का विश्वास उठने को रोकने का काम कर सके। उसे साफ-सुथरा होना चाहिए और अच्छी बातें करनी चाहिए। न्यायपालिका का पूँजीवादी व्यवस्था में यह एक कार्य होता है। हालाँकि साफ-सुथरी तो अब वह भी नहीं दिखती है!
तो इस बार भी न्यायपालिका ने पूँजीवादी व्यवस्था की इज्ज़त बचाने के इरादे से एक जनवादी अधिकारों को समर्पित संगठन सी.एल. की अधिकारों को समर्पित संगठन सी.एल. की याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार को गोदामों में अतिरिक्त पड़े अनाज को ग़रीबों में बाँट देने का आदेश दिया। लेकिन इस बार आर्थिक और राजनीतिक संकट में घिरी मनमोहन सिंह की सरकार ने पलटकर न्यायपालिका को ही झिड़क दिया और उसके सम्मान की धज्जियाँ उड़ा दी। अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री ने साफ कह दिया कि ग़रीबों में अनाज नहीं बाँटा जा सकता, क्योंकि इससे धनी किसान तबाह हो जायेंगे और उन्हें उत्पादन की प्रेरणा नहीं मिलेगी; इससे बाज़ार का सारा तन्त्र लड़खड़ा जायेगा और तमाम कम्पनियाँ जो खाद्यान्न के उत्पादन या संसाधन में लगी हुई हैं मुँह के बल आ गिरेंगी। न्यायपालिका को शरीफ माने जाने वाले प्रधानमन्त्री ने अपनी हद में रहने की सलाह दी और कहा कि सरकार के कामकाज में न्यायपालिका हस्पक्षेप न करे। संसदीय वामपन्थी और मज़दूर वर्ग की ग़द्दार पार्टी भाकपा के डी. राजा ने भी मनमोहन के सुर में सुर मिला दिया और कहा कि न्यायपालिका अपनी सीमा न लाँघे। थोड़ा और गरम किस्म का संसदवाद करने वाले ग़द्दार माकपा ने अनाज सड़ने पर चिन्ता जतायी और सरकार को सलाह दी कि पूँजीवादी व्यवस्था के राज़ इस तरह न खोले! उनके अर्थशास्त्रियों ने अचानक सारे अख़बारों में कॉलम लिखते हुए सलाहों और सुझावों की झड़ी लगा दी, जिसका मर्म यह था कि अगर थोड़ा-सा अनाज नहीं बाँटोगे और सर्वोच्च न्यायालय पर ही चिड़चिड़ाओगे तो व्यवस्था को संकट में डाल दोगे। इसलिए हे पूँजीवादी अर्थशास्त्री मनमोहन! हमारे ”मार्क्सवादी” अर्थशास्त्र का थोड़ा लाभ उठाओ! कल्याण करो!!
लेकिन मनमोहन सिंह पूँजीवादी अर्थशास्त्र के नियमों को अच्छी तरह जानते हैं और उन्होंने उसे पूरी ईमानदारी से रख दिया, बिल्कुल नंगे शब्दों में – मेहनतकश जनता भूख और कुपोषण से मरती है, तो मरती रहे! उसके लिए अनाज बाँटकर पूँजीपतियों के मुनाफे पर कुल्हाड़ी नहीं चलायी जा सकती! क्यों? क्योंकि यह सरकार और व्यवस्था उन्हीं की है!!
दूसरी घटना – दूसरी घटना लगभग उसी समय घटित हो रही थी, जब सर्वोच्च न्यायालय और सरकार के बीच का यह संवाद चल रहा था। देश के सांसदों ने हड़ताल कर दी! जी हाँ! चौंकिये मत! अपने वेतन को बढ़ाने की माँग लेकर देश के सांसदों ने संसद का कामकाज ठप्प कर दिया। बड़ी नौटंकी की। नकली सरकार का ड्रामा किया। सरकार के ख़िलाफ सांसदों ने वेतन बढ़ाने की माँग को लेकर विरोध-प्रदर्शन किया। लेकिन सबकुछ कितना भाईचारे के साथ हुआ! एक अजीब-सा याराना पूरे माहौल पर पसरा हुआ था। विपक्ष के सांसद सरकार के सामने बच्चों की तरह ठुनक-ठुनककर वेतन बढ़ाने की माँग कर रहे थे। उनका कहना था कि केन्द्रीय सरकार के सबसे बड़े नौकरशाह से सांसद का वेतन कम-से-कम एक रुपया ज्यादा होना चाहिए – यानी, 80,001 रुपये! काफी नौटंकी के बाद सरकार ने इस ज़िद को आंशिक तौर पर मान लिया और सांसदों का वेतन बढ़ाकर 65,000 रुपये कर दिया गया। ज्ञात हो कि एक सांसद को कई हवाई यात्राएँ, चिकित्सा, लाखों फोन कॉल, शिक्षा आदि की सुविधा निशुल्क मिलती है। उन्हें मामूली से आवास किराये पर सरकारी बँगला मिलता है, कई नौकर-चाकर मिलते हैं, सरकारी गाड़ी मिलती है, और ऐसी सुविधाओं की पूरी फेहरिस्त से हम यह पूरा अंक भर सकते हैं। लेकिन उसकी कोई ज़रूरत नहीं है। मुद्दे की बात यह है कि इन सांसदों का कोई ख़र्च नहीं होता। सबकुछ जनता के पैसे पर इन्हें मिलता है, यानी सरकारी ख़ज़ाना इनकी हर ऐयाशी की कीमत उठाता है। इसके अलावा हर सांसद के पास अपने क्षेत्र के विकास के लिए करोड़ों रुपये आते हैं। ये पैसे भी कहाँ जाते हैं, यह देश का हर आम आदमी अच्छी तरह से जानता है। विदेशी बैंकों में इन सांसदों के करोड़ों रुपये यूँ ही जमा नहीं हैं! ये तो इनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई है – जो मेहनत इन्होंने जनता की सम्पदा को चुरा-चुराकर इकट्ठा करने में लगायी है। इस सारी काली और सफेद कमाई को जोड़ दिया जाये तो एक सांसद अपनी सातों पुश्तों का जीवन सुरक्षित कर देता है। इसके बाद भी एक ऐसे देश में जिसकी जनता का 77 फीसदी हिस्सा 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीता हो, ये सांसद अपनी शुद्ध मासिक आय को 80,000 रुपये करने के लिए अड़े हुए थे! यह सबकुछ उस देश में हो रहा है जिसकी 70 फीसदी आबादी बस मुश्किल से एक वक्त ख़ाना खा पाती है। और दूसरी तरफ ये पूँजीवादी नेता पूँजीपति वर्ग की सेवा करने की अपनी फीस को बढ़ाने के लिए विरोध की नौटंकी कर रहे हैं। ज़ाहिर है सांसदों के बढ़े हुए वेतन की कीमत भी करों की सूरत में इस देश की मेहनतकश जनता से ही वसूल की जायेगी। एक तरफ इस देश के 59 करोड़ मज़दूर तय न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं पा रहे हैं या भुखमरी स्तर पर जीने लायक खेत मज़दूरी पर खट रहे हैं और महँगाई के कहर से दम तोड़ रहे हैं और दूसरी तरफ देश के तथाकथित जनप्रतिनिधि और जनसेवक अपनी ऐयाशी को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में लगे हुए हैं। वास्तव में ये सांसद पिछले 63 वर्षों के दौरान देश के पूँजीपतियों के तलवे चाटने और हर सम्भव तरीके से उनकी सेवा करने, पूरी पूँजीवादी लूट की व्यवस्था के कुशल प्रबन्धन का मेहनताना माँग रहे हैं। ज़ाहिर है कि सारी पूँजीवादी लूट और उस लूट को सम्भव बनाने वाली व्यवस्था के प्रबन्धन की कीमत पिछले 63 वर्षों में जनता चुकाती आयी है, अब भी जनता ही चुकायेगी। यह पूरा प्रकरण भारतीय पूँजीवादी शासन के कर्ता-धर्ताओं के पूरी तरह लाज-हया छोड़कर जनता को लूटने-खसोटने पर आमादा होने का हमारी नज़रों के सामने साफ कर देता है। और किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
तीसरी घटना – तीसरी प्रातिनिधिक घटना थी दिल्ली में 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन। असल में इस पूरे खेल आयोजन की आड़ में इस देश के पूँजीपति वर्ग के लिए उनकी सरकार ने एक ‘जनता को लूट लो-खसोट लो’ महामेला का आयोजन किया था। इस खेल के आयोजन में सरकारी ऑंकड़ों के मुताबिक करीब 80,000 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिये गये। तमाम विकास मदों के पैसे भी इस खेल के आयोजन में ख़र्च कर दिये गये। अब यह किसी से छिपा तथ्य नहीं है कि जनता के 80,000 रुपयों की लूट के आयोजन में भ्रष्टाचार की हर वह वैरायटी मौजूद थी, जिसमें पूँजीपति वर्ग और उनकी सरकार माहिर है। ठेकों को देने में अनियमितताएँ, निर्माण-कार्य में ख़राब सामग्री लगाया जाना, खेलों से जुड़े हुए व्यक्तियों के आने-जाने के लिए हज़ारों रुपये में टैक्सी का किराया देना, उनके खाने के इन्तज़ाम में होने वाले ख़र्च में घपला,स्टेडियमों को बनाने के ख़र्च में घपला, ग़ैर-ज़रूरी इमारतों और स्टेडियमों का निर्माण, विशालकाय खेलगाँव के निर्माण में घपला, और न जाने क्या-क्या घपला! आप घपले के जिस भी सम्भव रूप के बारे में सोच सकते हैं, वह सब राष्ट्रमण्डल खेलों के दौरान हुआ। पूँजीवादी व्यवस्था में हर ऐसे जलसे में ऐसा ही भ्रष्टाचार होता है। 1982 के एशियाड के दौरान भी ऐसा ही हुआ था। और इस सारे गोरखधन्धे पर कोई सवाल उठाता है तो उसके मुँह पर ”देश की इज्ज़त” का टेप चिपका दिया जाता है। इस दुराचार, नंगी लूट, भ्रष्टाचार और चोरी-सेंधमारी-बटमारी पर कोई आवाज़ उठाये तो उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि इससे देश की इज्ज़त ख़राब होती है। सवाल यह उठता है कि एक ऐसे खेल के आयोजन में कौन-सी इज्ज़त है जो उस औपनिवेशिक अतीत की याद दिलाता है जो वास्तव में हमारे देश के अपमान की याद दिलाता है। राष्ट्रमण्डल में शामिल देश वे देश हैं जो कभी ब्रिटेन के ग़ुलाम रहे थे। मेहनतकशों और आम जनता की कुर्बानियों के बूते पर मिली आज़ादी के 63 साल बाद देश का पूँजीपति वर्ग महारानी की बेटन (मशाल) लेकर दौड़ने में सम्मान महसूस करता है तो यह अपने आपमें सोचने की बात है। यह किस किस्म की इज्ज़त है? यह तो हमारे आज़ादी के लिए कुर्बानी देने वाली आम मेहनतकश जनता की कुर्बानियों की बेइज्ज़ती है। इसलिए इज्ज़त का यह बड़ा बेइज्ज़ती भरा तर्क है जो शासक वर्ग अपने भ्रष्टाचार और लूट पर उँगली उठाये जाने पर देता है।
इस राष्ट्रमण्डल खेलों की तैयारी और निर्माण की पूरी प्रक्रिया दिखला देती है कि यह किसकी व्यवस्था है और यह कैसी व्यवस्था है। खेल की तैयारियों के पूरे दौर में सर्वोच्च न्यायालय, स्वयंसेवी संगठन, मज़दूर संगठन, ट्रेडयूनियनें और यहाँ तक कि सरकारी समितियाँ तक बोलती रहीं कि निर्माण-कार्यों में लगे मज़दूरों के श्रम कानूनों का दिल्ली सरकार बेशर्मी से उल्लंघन कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनायी गयी एक समिति ने बताया कि राष्ट्रमण्डल खेलों के निर्माण में लगे मज़दूरों को एक भी कानूनी अधिकार मुहैया नहीं है और सरकार की शह पर ठेकेदार जल्दी काम पूरा करवाने के नाम पर मज़दूरों से 14 से 16 घण्टे तक काम करवा रहे हैं, उन्हें न्यूनतम मज़दूरी नहीं दे रहे हैं, उनके काम करने की स्थितियाँ बेहद ख़तरनाक हैं, उनके बच्चों की देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं है, वे तमाम किस्म की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। कुल मिलाकर, इन मज़दूरों से ग़ुलामों की तरह काम लिया गया। कोई अधिकार नहीं, बर्बरतम शोषण, आवाज़ उठाते ही काम से बाहर, जीने की खुराक से भी कम मज़दूरी! इस तरह से राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए दिल्ली की चकाचौंध, आलीशान स्टेडियमों, होटलों, गेस्ट हाउसों आदि का निर्माण किया गया। और जब निर्माण पूरा हो गया तो इन्हीं मज़दूरों को दिल्ली से बाहर खदेड़ दिया गया, ताकि दिल्ली का रूप न बिगड़े! हम सिर्फ उनके मुनाफे के लिए जीते-मरते हैं। यह सच्चाई एकदम नग्न रूप में सामने थी। हम उनके लिए मुनाफा कमाने की मशीन से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। यह असलियत हमारी ऑंखों में झाँक रही थी। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन की तैयारी में करीब सवा सौ मज़दूर मारे गये और घायल और बीमार होने वालों की कोई गिनती नहीं है।
दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन ने पूरे देश के मज़दूर वर्ग के सामने स्पष्ट कर दिया कि इस पूरी मुनाफा-केन्द्रित व्यवस्था में मज़दूरों की जान और शरीर की कोई कीमत नहीं है। अगर कीमत है तो सिर्फ पूँजीपतियों, बिचौलियों, ठेकेदारों,नेताओं-नौकरशाहों के मुनाफे की। हम तो बस इस मुनाफे के लिए मरने-खपने के लिए हैं! खेल की तैयारियों में ख़र्च हुए80,000 करोड़ रुपये में पूँजीपति वर्ग के हर धड़े ने कमाई की – कारपोरेट घराने, ठेकेदार, शेयर बाज़ार, बिचौलिये, नेता,अफसर, पुलिस, और मीडिया। सबकी चाँदी थी। मर रहा था आम मेहनतकश। पहले तो उसकी कमाई पर खड़े सरकारी ख़ज़ाने के 80,000 करोड़ रुपये, जो कहने के लिए उसके कल्याण के लिए उससे कर के रूप में वसूले जाते हैं, पानी की तरह बहा दिये गये और अब उसकी वसूली भी करों को बढ़ाकर उसी से की जायेगी। ज़ाहिर है इसकी कीमत बढ़ी हुई महँगाई के रूप में देश की सबसे ग़रीब आबादी ही चुकाने वाली है। और इसकी तैयारियों के दौरान तो मज़दूरों का जितना बर्बर से बर्बर शोषण किया जा सकता था, वह किया ही गया।
ये तीनों घटनाएँ एक ही बात की ओर इशारा करती हैं। देश का पूँजीपति वर्ग और उसकी ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम करने वाली उसकी सरकार जनता को लूटने-खसोटने के काम में पूरी तरह बेशरम हो चुके हैं। अब वे किसी बात की सफाई तक देने की ज़रूरत महसूस नहीं करते। देश की जनता आज अकल्पनीय महँगाई के तले कराह रही है, मज़दूरों का खुलेआम ग़ुलामों की तरह शोषण किया जा रहा है, बेरोज़गारी नये रिकॉर्ड बना रही है, कुपोषण और ग़रीबी के मामले में देश अफ्रीकी देशों तक से पीछे जा चुका है, हज़ारों बच्चे रोज़ भूख और कुपोषण से दम तोड़ रहे हैं, और दूसरी ओर देश का शासक वर्ग रंगरेलियाँ मना रहा है। वह अपनी नंगी ऐयाशी में मगन है। क्योंकि उसे भरोसा हो चला है कि इस देश की जनता दासवृत्ति का शिकार हो चुकी है। उसे लगने लगा है कि इस देश की जनता में सन्तोष करने की ज़बर्दस्त ताकत है। हर किस्म के अत्याचार और लूट को वह देर-सबेर थोड़ा चूँ-चपड़ करके स्वीकर कर लेती है। उसे यह गुमान हो चला है कि इस देश के मज़दूर भयंकर निराशा और पस्तहिम्मती में हैं और उनका कोई काबिल क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं है। वह बिखरा हुआ है,टूटा हुआ है और स्थानीय आर्थिक माँगों के लिए होने वाले संघर्षों के अलावा वह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ सकता। इसीलिए आज पूँजीपति वर्ग के हौसले बुलन्द हैं। उसे अब अपनी लुटेरी व्यवस्था की घिनौनी सच्चाई को छिपाने की ज़रूरत भी नहीं महसूस होती। इसलिए वह सारी लाज-शरम छोड़कर देश की जनता को नंगई के साथ लूटने पर आमादा है।
ऐसे में इस देश की मेहनतकश जनता के सामने यह सवाल है – क्या हम इस बर्बर ग़ुलामी को स्वीकार कर लेंगे? क्या पूरी तरह नग्न हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था को हम अपने आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करने देंगे? क्या हम अपनी ही बर्बादी के तमाशबीन बने रहेंगे? या फिर हम उठ खड़े होंगे और मुनाफे की अन्धी हवस पर टिकी इस मानवद्रोही,आदमख़ोर व्यवस्था को तबाहो-बर्बाद कर देंगे? या फिर हम संगठित होकर इस अन्याय और असमानता का ख़ात्मा करने और न्याय और समानता पर आधारित एक नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने की तैयारियाँ करने में जुट जायेंगे?या फिर हम एक मज़दूर इन्कलाब के लिए एक इन्कलाबी पार्टी के निर्माण में लग जायेंगे?
आज ये दोनों ही रास्ते हमारे सामने हैं। एक रास्ता दासवृत्ति के शिकार रीढ़विहीन कायरों और बुजदिलों का रास्ता है, जो कहता है कि सबकुछ पचा लो, सबकुछ स्वीकार लो, पीठ झुकाकर कोड़े खाने के लिए तैयार खड़े रहो!
दूसरा रास्ता उस मेहनतकश वर्ग का रास्ता है, जो पूरी दुनिया को अपने बलिष्ठ हाथों से गढ़ता है, रचता है और अपने मज़बूत-चौड़े कन्धों पर सभ्यता के रथ को खींचकर यहाँ तक लाया है। यह रास्ता है पूँजीवादी लूट और शोषण के विरुद्ध विद्रोह का रास्ता! एक ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए मज़दूर इन्कलाब का रास्ता जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के पूरे ढाँचे पर मेहनतकश वर्गों का नियन्त्रण हो और फैसला लेने की ताकत उनके हाथों में हो! देश भर के मज़दूरों को संगठित करके एक इन्कलाबी मज़दूर वर्ग की पार्टी बनाने का रास्ता!
यह काम हम कल पर नहीं टाल सकते हैं। यह हमें अभी इसी वक्त तय करना होगा कि हम पूँजीवाद की ग़ुलामी को स्वीकार करेंगे या इसे उखाड़ फेंकेंगे! क्योंकि पूँजीवाद इससे ज्यादा नंगा, बर्बर और मानवद्रोही नहीं हो सकता और हम इससे ज्यादा तबाहो-बर्बाद नहीं हो सकते। यह काम करने की ताकत और ज़िम्मेदारी मुख्य तौर पर मज़दूर वर्ग की है। इतिहास ने हमारे कन्धों पर इस ज़िम्मेदारी को रखा है कि इसके पैरों में बेड़ी बन चुके मुनाफाख़ोर पूँजीवाद की कब्र खोदें और उसे उसमें पहुँचा दें! मानवता की मुक्ति और आगे की प्रगति का रास्ता मज़दूर इन्कलाब और मज़दूर सत्त के रास्ते ही जाता है। हमारे सामने यही एकमात्र विकल्प है, एकमात्र रास्ता है!
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2010
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