आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग की मुक्ति असम्भव है
श्वेता
भारत में पुरुष मज़दूरों की तुलना में महिला मज़दूरों की संख्या काफ़ी कम है। नयी सरकार ने हाल ही में श्रम क़ानूनों में संशोधन के तहत कुछ ऐसे प्रावधान शामिल किये हैं जिससे महिला मज़दूरों की संख्या को बढ़ाया जा सके। कारख़ाना अधिनियम, 1948 के तहत पहले जहाँ महिला मज़दूर कारख़ानों में सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे तक ही काम कर सकती थीं, वहीं इसमें बदलाव करके महिला मज़दूरों के लिए रात की पालियों में काम करने का प्रावधान शामिल किया गया है। हालाँकि रात की पालियों के दौरान महिला मज़दूरों की सुरक्षा पर सरकार बिल्कुल मौन है। कारख़ानों में रात की पालियों में काम करने के लिए महिलाओं को अपने रिहाइश के इलाक़ों से फ़ैक्टरी तक सुरक्षित छोड़ने व वापस पहुँचाने की ज़िम्मेदारी सरकार के एजेण्डा में कहीं नज़र नहीं आती। आखि़र हो भी क्यों! पूँजीपतियों की चाकरी बजाने वाली किसी भी सरकार के लिए महिला मज़दूरों की सुरक्षा का मुद्दा न तो पहले कभी प्राथमिकता में था न ही आने वाले समय में होने वाला है।
बहरहाल, नयी सरकार ने लैंगिक समानता को सुनिश्चित करने का तर्क देकर महिला मज़दूरों के लिए कारख़ानों में अब रात की पालियों में भी काम करने का प्रावधान शामिल किया है। लेकिन सवाल तो यह है कि क्या सरकार लैंगिक असमानता को लेकर वाकई चिन्तित है या उसकी चिन्ता का सबब कुछ और ही है। वर्ष 2007 से ही दुनिया के तमाम मुल्क जिस आर्थिक मन्दी का शिकार हैं, उससे निजात पाने के लिए दुनिया भर के शासक द्रविड़ प्राणायाम करने में लगे हुए हैं और पूँजी निवेश के नये-नये अवसरों की खोज में यहाँ-वहाँ भटक रहे हैं। भारत में भी देशी-विदेशी पूँजी को बढ़ावा देने की कवायदें चल रही हैं। पूँजी निवेश के रास्ते में आने वाली सारी बाधाओं को किनारे लगाया जा रहा है। हाल ही में श्रम क़ानूनों में हुए संशोधन इसी का ही हिस्सा हैं। नयी सरकार देशी-विदेशी पूँजी को समस्त मज़दूरों की मेहनत को और अधिक तेज़ी से लूटने के अवसर तो दे ही रही है, साथ ही स्त्रियों की सस्ती श्रमशक्ति को पहले से ज़्यादा संख्या में मुहैया कराने के लिहाज़ से “आर्थिक विकास में महिलाओं की भागीदारी”, “लैंगिक समानता” जैसी लफ्फ़ाज़ी के ज़रिये भ्रम फैला रही है।
चूँकि महिलाओं की श्रमशक्ति सस्ती क़ीमत पर उपलब्ध होती है, इसलिए पूँजीवाद अपने मुनाफ़े की दरों को बढ़ाने के लिए महिलाओं को घर की चौहद्दियों से निकालकर कारख़ानों का हिस्सा बनाता है। पूँजीवाद महिलाओं की मुक्ति के नज़रिये से नहीं बल्कि पूँजी के हितों की रक्षा के लिए यह क़दम उठाता है। हालाँकि पूँजीवाद द्वारा उठाये गये इस क़दम की तार्किक परिणति यह होती है कि वह महिलाओं को उजरती श्रम का हिस्सा बनाकर मज़दूर वर्ग की ताक़त को बढ़ाता है। यही मज़दूर वर्ग पूँजीवाद की कब्र खोदने का काम करता है। इस लिहाज़ से देखा जाये तो महिलाओं का घर की चौहद्दियों से बाहर निकलकर सामूहिक उत्पादन जगत का हिस्सा बनना एक सकारात्मक क़दम है।
हालाँकि आज की सच्चाई यह है कि भारत के श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी बेहद कम है। वर्ष 2013 में अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी के लिहाज़ से 131 देशों में भारत का 120वाँ स्थान है। केन्द्रीय सांख्यिकी विभाग, भारत सरकार के अनुसार वर्ष 2000-01 से 2009-10 के बीच मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी मात्र 20 प्रतिशत थी। यही नहीं, जहाँ कहीं भी महिलाओं की श्रम बाज़ार में कोई भागीदारी है वहाँ पर उन्हें पुरुषों के मुकाबले बेहद कम मज़दूरी मिलती है। केन्द्रीय सांख्यिकी विभाग के ही अनुसार वर्ष 2009-10 में मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में जहाँ पुरुष मज़दूरों की औसत दैनिक मज़दूरी 303 रुपये थी, वहीं महिला मज़दूरों की औसत दैनिक मज़दूरी मात्र 147 रुपये ही थी। हालाँकि भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था के “पवितत्रतम” ग्रन्थ यानी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 के अनुसार स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य व्यवस्था की है, इसके बावजूद आलम यह है कि यह कहीं भी लागू नहीं होता। स्त्री-पुरुष मज़दूरों के बीच मौजूद वेतन की यह असमानता पूँजीवाद का आम नियम है। अतः इसे सिर्फ़ क़ानून बनाकर बदलने का ख़्वाब दिखाना असल में महिला मज़दूरों की आँखों में धूल झोंकने की एक घिनौनी चाल है। पूँजीवाद के रहते इस असमानता को ख़त्म किया ही नहीं जा सकता है। पूँजीपति अपने मुनाफ़े की दर को अप्रत्याशित तौर पर बढ़ाने के लिए स्त्रियों की सस्ती श्रमशक्ति का भी जमकर इस्तेमाल करते हैं। स्त्रियों की सस्ती श्रमशक्ति का बने रहना तो उनके लिए एक वरदान है।
इधर हाल के वर्षों में एक नयी परिघटना सामने आ रही है। कृषि में पूँजी की पैठ के कारण ग़रीब किसान लगातार अपनी ज़मीन से उजड़ रहे हैं। यही कारण है कि कृषि में कामगारों की भागीदारी की दर में कमी आ रही है और मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में इस दर में बढ़ोतरी हो रही है। यही प्रवृत्ति महिला कामगारों में भी दिखलायी दे रही है। नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 68वें चक्र की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1999-2000 में जहाँ कृषि में महिला कामगारों की भागीदारी की दर 76.3 प्रतिशत थी, वहीं 2011-12 में यह दर 62.8 प्रतिशत रह गयी। दूसरी तरफ़, औद्योगिक क्षेत्र में महिला कामगारों की भागीदारी 11.7 प्रतिशत से बढ़कर 20 प्रतिशत हो गयी। हालाँकि औद्योगिक क्षेत्र में महिला मज़दूरों की संख्या में होने वाली इस बढ़ोतरी का अधिकांश भाग अनौपचारिक प्रकृति का है जिसके कारण ये मज़दूर किसी भी क़िस्म की सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों से वंचित रह जाते हैं। ग़ौरतलब है कि एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009-10 से 2011-12 के बीच औद्योगिक क्षेत्र में 1 करोड़ 72 लाख रोज़गारों का सृजन हुआ जिसमें से 85 प्रतिशत रोज़गार अनौपचारिक प्रकृति के थे।
जैसा कि पहले ही कहा गया है कि घर की चौखटों से निकलकर सामाजिक उत्पादन की दुनिया से स्त्रियों का जुड़ना एक सकारात्मक क़दम है। पर मज़दूर परिवारों में मौजूद पुरुष वर्चस्व की मानसिकता अकसर ही इस प्रक्रिया को बाधित करती है। पुरुष मज़दूर अपनी स्त्रियों के कारख़ाने में जाकर काम करने के पक्ष में नहीं होते हैं। ऐसे में अनजाने में ही वे पूँजी के विरुद्ध मज़दूर वर्ग के संघर्ष को कमज़ोर करने का काम कर डालते हैं। स्त्रियों का उजरती श्रमिकों की पाँतों में शामिल होना मज़दूर वर्ग की शक्ति को बढ़ाकर उजरती गुलामी से पूरे मज़दूर वर्ग की मुक्ति का आधार तो तैयार करता ही है, साथ ही साथ यह पितृसत्ता के खि़लाफ़ स्त्रियों की मुक्ति का पूर्वाधार भी तैयार करता है। आधी आबादी की भागीदारी के बिना पूँजी की ताक़त से मुक़ाबला करना असम्भव है। पुरुष मज़दूरों को समझना होगा कि पूँजी और श्रम के महासमर में महिला मज़दूर उनकी सहयोद्धा होंगी। उनके बिना किसी भी संघर्ष को जीतने की कल्पना नहीं की जा सकती है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन