भारत को ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ बनाने के मोदी के सपने के मायने
मज़दूरों को गन्ने और तिलहन की तरह पेरकर देशी-विदेशी पूँजीपतियों को तिजोरियाँ भरने की खुली छूट देना
आनन्द सिंह
नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से दिये अपने पहले स्वतन्त्रता-दिवस भाषण में दुनियाभर के लुटेरे साम्राज्यवादियों को भारत में निवेश करने के लिए खुला आमन्त्रण देते हुए कहा था, ‘कम, मेक इन इण्डिया’ (आओ, भारत में बनाओ)। यह तथ्य अपने आप में इस आज़ादी की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है कि बर्तानवी गुलामी से आज़ादी मिलने के 67 साल बाद भी इस देश के हुक़्मरान अपने देश के विकास के लिए विदेशी पूँजी के सामने दण्डवत हो रहे हैं। जापान, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के दौरे पर मोदी ने विदेशी पूँजी को रिझाने के लिए तरह-तरह के जतन किये। 25 सितम्बर को मोदी ने तमाम नामी-गिरामी देशी-विदेशी पूँजीपतियों से ठसाठस भरे नई दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘मेक इन इण्डिया’ के अपने जुमले को मूर्त रूप देते हुए भारत को दुनिया का कारख़ाना और ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ बनाने के अपने सपने के बारे में बताया। इस आयोजन में मोदी ने पिछली सरकार के रवैये से रूठे हुए भारतीय पूँजीपतियों को पूरा भरोसा दिलाते हुए कहा कि अब उनको देश छोड़कर किसी दूसरे देश में पूँजी लगाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि अब सरकार उनके कामों में कम से कम हस्तक्षेप करेगी (दूसरे शब्दों में उनको अकूत मुनाफ़ा कमाने का पूरा मौक़ा देगी)। ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए लार टपका रहे पूँजीपतियों की मानो मुँह माँगी मुराद पूरी हो गयी हो। उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। आयोजन के दौरान और उसके बाद मीडिया में तमाम पूँजीपतियों ने नरेन्द्र मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। सेन्सेक्स में ज़बरदस्त उछाल देखने में आया।
नरेन्द्र मोदी और उनके भक्तगण अपनी बात कुछ इस ढंग से रखते हैं कि मानो भारत को ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ बनाने का सपना उनसे पहले किसी और ने नहीं देखा। जबकि सच्चाई यह है कि नवउदारवाद के पिछले ढाई दशक में हर सरकार इसी तरह के सपने देखती आयी है और इसी मक़सद से देशी पूँजीपतियों को तमाम रियायतें और विदेशी पूँजी के सामने लाल कालीनें बिछाती आयी है। लेकिन इसके बावजूद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान महज़ 15-16 फ़ीसदी है, जबकि सर्विस क्षेत्र का योगदान 57 फ़ीसदी है। इससे साफ़ है कि मैन्युफ़ैक्चरिंग को बढ़ावा देने के नाम पर सरकार द्वारा दी गयी रियायतों का लाभ उठाने के बावजूद पूँजीपति आईटी, रियल स्टेट, बैंकिंग, बीमा, मीडिया, विज्ञापन, होटल आदि यानी सर्विस क्षेत्र में निवेश करते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में टर्नओवर ज़्यादा होता है यानी उन्हें कम समय में ही ज़्यादा मुनाफ़ा मिल जाता है। भारत में मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र कम विकसित होने की वजह के बारे में इस बात पर प्रायः आम सहमति देखने को आती है कि यहाँ अवरचनागत (इन्फ़्रास्ट्रक्चरल) विकास यानी सड़कों, रेलमार्गों, बन्दरगाहों, हवाई अड्डों का विकास बेहद धीमा रहा है। लेकिन हमें यह नहीं बताया जाता कि इसके लिए भी विकास का नव-उदारवादी मॉडल ही ज़िम्मेदार है जिसमें राज्य के ख़र्चों को कम से कम रखने की बात की जाती है और निजी पूँजी को मनचाहे क्षेत्र में निवेश की छूट देने की वजह से वह अवरचनागत क्षेत्र में निवेश नहीं होती क्योंकि इस क्षेत्र में मुनाफ़ा प्राप्त करने में अपेक्षाकृत ज़्यादा समय लगता है। इस समस्या से निपटने के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का जो शिगूफ़ा नव-उदारवादी युग में उछाला गया वह भी कारगर साबित नहीं हो पाया है।
भारत में मैन्युफ़ैक्चरिंग के विकसित न हो पाने की एक अन्य वजह बिजली का संकट बतायी जाती है। लेकिन बिजली संकट की हाय-तौबा मचाने वाले हमें यह नहीं बताते कि इस संकट के लिए भी निजी कम्पनियों की मुनाफ़े की सनक ही ज़िम्मेदार है। कोयला घोटाले में यह बात साफ़ हो चुकी है कि किस तरह इस देश के अकूत प्राकृतिक संसाधनों को औने-पौने दामों पर निजी पूँजी के हवाले किये जाने के बावजूद बिजली संकट से निजात मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। उच्चतम न्यायालय के हालिया फ़ैसले के बाद अब बस होगा यह कि पुरानी प्रक्रिया के बदले नयी प्रक्रिया से कोयला ब्लॉकों का आबण्टन किया जायेगा। यानी निजी पूँजी को मुनाफ़ा कमाने के अवसर प्रदान करने की नयी प्रक्रिया तलाश की जायेगी। इस बात की उम्मीद बाँधने की कोई वजह नहीं नज़र आती कि इस नयी प्रक्रिया से बिजली संकट से निजात मिलेगी।
मोदी सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से सिर्फ़ इस मायने में अलग है कि वह अपने मालिक यानी पूँजीपति वर्ग के सामने कहीं अधिक निर्लज्जता के साथ नतमस्तक होने के लिए तत्पर है। जहाँ पहले सरकारों के प्रधानमन्त्री खुले रूप से पूँजीपतियों से अपने सम्बन्ध उजागर करने से परहेज़ करते थे, नरेन्द्र मोदी पूँजीपतियों से खुलेआम गले मिलते हैं, उनके कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं और अपनी मालिक भक्ति की बेहिचक नुमाइश करते हैं। ‘मेक इन इण्डिया’ को औपचारिक रूप से लांच करने के कुछ ही दिनों के भीतर मोदी ने पूँजीपतियों को मुँहमाँगा तोहफ़ा देते हुए उनको तथाकथित ‘इंस्पेक्टर राज’ से मुक्त करने के नाम पर उन्हें इस बात की पूरी छूट देने का ऐलान किया कि वे मुनाफ़े की अपनी अन्धी हवस को पूरा करने की ख़ातिर श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर जितना मर्जी मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ें, उनकी कोई जाँच-पड़ताल नहीं की जायेगी, उन पर कोई निगरानी नहीं रखी जायेगी। वैसे तो लेबर इंस्पेक्टर की जाँच और निगरानी का पहले भी मज़दूरों के लिए कोई ख़ास मायने नहीं था, लेकिन यदि मज़दूर जागरूक होकर लेबर इंस्पेक्टर पर दबाव बनाते थे तो एक हद तक श्रम क़ानूनों को लागू करवा सकते थे। परन्तु अब कारख़ाना मालिकों को इस सिरदर्द से भी निजात मिल जायेगी, क्योंकि अब उन्हें बस ‘सेल्फ सर्टिफ़िकेशन’ देना होगा यानी ख़ुद से ही लिखकर देना होगा कि उनके कारख़ाने में किसी श्रम क़ानून का उल्लंघन नहीं हो रहा। मोदी ने पूँजीपतियों को आश्वासन दिया है कि सरकार उन पर पूरा भरोसा करती है क्योंकि वे देश के नागरिक हैं। ‘श्रमेव जयते’ का पाखण्डपूर्ण नारा देने वाले मोदी से पूछा जाना चाहिए कि क्या मज़दूर इस देश के नागरिक नहीं हैं कि सरकार अब उन पर इतना भी भरोसा नहीं करेगी कि उनकी शिकायतों पर ग़ौर करके कारख़ाना मालिक के खि़लाफ़ कार्रवाई करे।
अपने पाँच महीने के कार्यकाल में ही मोदी सरकार ने श्रम क़ानूनों को पूँजीपतियों के पक्ष में फेरबदल करके मज़दूरों को पूरी तरह उनके रहमो-करम पर छोड़ने की मंशा ज़ाहिर कर दी है। हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद अब वह बड़े पैमाने पर तथाकथित श्रम सुधारों को लागू करने की योजना बना रही है। दरअसल भारत को ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ बनाने की मोदी सरकार की योजना को अंजाम देने के लिए दुनिया भर के पूँजीपतियों को यह संकेत देना ज़रूरी है कि भारत सरकार उनकी पूँजी को आमन्त्रित करने के लिए मज़दूरों के सारे हको-हुकूक छीनकर उनको पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने की मशीन के पुर्ज़े में तब्दील करने के लिए कटिबद्ध है। मशीनी कल-पुर्ज़ों से बने शेर के रूप में ‘मेक इन इण्डिया’ का लोगो भी कुछ ऐसा ही सन्देश देता है। इस लोगो से भी स्पष्ट है कि ‘मेक इन इण्डिया’ का सार है पूँजी रूपी शेर की ताक़त बढ़ाने के लिए मज़दूरों को कल-पुर्जे में तब्दील करना।
ग़ौरतलब है कि मौजूदा समय में चीन दुनिया का सबसे बड़ा ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ है। माओ की मृत्यु के बाद देंग सिओपिंग की ‘बाज़ार समाजवाद’ की नीतियों का कुल नतीजा यह हुआ कि चीन की शिक्षित, प्रशिक्षित एवं स्वस्थ आबादी (जिसकी नींव समाजवाद के दौर में रखी गयी थी) का इस्तेमाल साम्राज्यवादी पूँजी के विस्तार के लिए सस्ती श्रमशक्ति के रूप में किया गया जिसके फलस्वरूप चीन तीन दशकों के भीतर दुनिया का कारख़ाना कहा जाने लगा जहाँ टेक्सटाइल्स से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स, मोबाइल फ़ोन, होम अप्लायंस, मशीन पार्ट, खिलौनों आदि का भारी पैमाने पर उत्पादन होने लगा। चीन जैसे तीसरी दुनिया के देशों में मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बनने की यह प्रक्रिया फ़ोर्डिस्ट असेम्बली लाइन के विघटन और एक अदृश्य वैश्विक असेम्बली लाइन के अस्तित्व में आने से सीधे तौर पर जुड़ी है। लेकिन इन मैन्युफ़ैक्चरिंग हबों में काम करने वाले मज़दूरों की ज़िन्दगी के हालात दिन-पर-दिन बद से बदतर होते चले गये। पिछले कुछ वर्षों में चीन में विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में ज़बरदस्त मज़दूर असन्तोष देखने में आया है जिसको क़ाबू में करने के लिए वहाँ के कई कारख़ानों में मालिकों को मज़बूर होकर मज़दूरी में वृद्धि करनी पड़ी है। मज़दूरी बढ़ाने के दबाव के अलावा चीनी मुद्रा युआन के मूल्य में बढ़ोत्तरी से भी चीन में मैन्युफ़ैक्चरिंग की लागत बढ़ती जा रही है। इसलिए दुनिया भर के साम्राज्यवादी लुटेरे और उनके थिंक-टैंक दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में नये ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ विकसित करने की सम्भावना तलाश रहे हैं जहाँ उन्हें सस्ती श्रमशक्ति और सस्ता कच्चा माल आसानी से उपलब्ध हो सके। भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देश मसलन फिलीपींस, इण्डोनेशिया, मलेशिया, थाईलैण्ड, म्याम्मार, वियतनाम, कम्बोडिया आदि उनकी इस योजना में अहम स्थान रखते हैं। इसीलिए ये लुटेरे पिछले कुछ वर्षों से इन देशों की सरकारों पर यह दबाव बना रहे हैं कि वे अपने देश में विदेशी पूँजी निवेश की राह की सारी अड़चनों को दूर करें, अन्यथा विदेशी पूँजी उनके देश में लगने की बजाय किसी और देश में लग जायेगी। विश्व बैंक ने दुनिया के तमाम देशों में पूँजी निवेश की सहूलियत मापने के लिए ‘ईज़ ऑफ बिज़नेस’ (व्यवसाय की सहूलियत) नामक एक सूचकांक भी ईज़ाद किया है जिसमें भारत 135 वें स्थान पर है। ‘मेक इन इण्डिया’ लांच करते समय मोदी ने 135 से 50 वें स्थान पर पहुँचने की बात की। यही वजह है कि मोदी सरकार विदेशी पूँजी को रिझाने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रही है। श्रम क़ानूनों में फेरबदल के अलावा उसने भूमि अधिग्रहण क़ानून और पर्यावरण क़ानूनों में भी बदलाव करके पूँजी की बेरोकटोक आवाजाही सुनिश्चित करने के पूरे संकेत दे दिये हैं।
अब सवाल यह उठता है कि तमाम पर्यावरणीय नियमों को ताक पर रखकर इस देश की अकूत प्राकृतिक सम्पदा और उपजाऊ ज़मीन को औने-पौने दामों पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपने और श्रम क़ानूनों में फेरबदल कर मज़दूरों को पूरी तरह उनके रहमो-करम पर छोड़ने के बाद जिस ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ का निर्माण होगा उससे इस देश की आम मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी में क्या बेहतरी आयेगी? अव्वलन तो अवरचनागत क्षेत्र के कम विकास और बिजली संकट के मद्देनज़र इस बात पर भी एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है कि भारत को ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ बनाने का मोदी सरकार का सपना वास्तविकता की ज़मीन छू पायेगा अथवा नहीं। परन्तु जिस हद तक भी यह सपना पूरा होगा, इतना तो तय है कि इससे मज़दूरों की ज़िन्दगी और भी ज़्यादा नरक के समान होती जायेगी। इसकी झलक हमें मौजूदा मैन्युफ़ैक्चरिंग हबों में मज़दूरों की स्थिति से मिल सकती है। मिसाल के तौर पर चीन के इलेक्ट्रॉनिक्स एवं मोबाइल फ़ोन मैन्युफ़ैक्चरिंग हब को ही ले लें। सैमसंग और एप्पल जैसी दुनिया की सबसे बड़ी मोबाइल फ़ोन कम्पनियों की मोबाइल फ़ोन की मैन्युफ़ैक्चरिंग चीन में होती है। एप्पल के आईफ़ोन और आईपैड जैसे प्रोडक्ट चीन की फॉक्सकॉन जैसी कम्पनियों में बनते हैं। फॉक्सकॉन में मज़दूरों को दिन में 10-11 घण्टे खड़े होकर काम करना पड़ता है और सप्ताह में औसतन उन्हें 66-70 घण्टे काम करना पड़ता है। यहाँ तक कि गर्भवती महिलाओं के साथ भी कोई रियायत नहीं बरती जाती और उन्हें अन्य मज़दूरों जितना ही काम करना पड़ता है। यही नहीं उन्हें आये दिन सुपरवाइज़र की गालियाँ सुनने को मिलती हैं। उन्हें समय से तनख़्वाह भी नहीं मिलती तथा छुट्टी बहुत मुश्किल से मिलती है। उन्हें बेहद गन्दी डार्मिटरी में रहना पड़ता है जिसमें छोटे से कमरे में 8-10 मज़दूर एक साथ रहने के लिए मज़बूर किये जाते हैं। ऐसे नारकीय हालात से तंग आकर उनमें से तमाम मज़दूर मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। यही नहीं पिछले कुछ वर्षों में फॉक्सकॉन के कई मज़दूरों द्वारा काम करने की अमानवीय परिस्थितियों से तंग आकर आत्महत्या के कई मामले अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में छाये रहे। अपनी छवि को सुधारने के लिए एप्पल ने हाल ही में आईफ़ोन और आईपैड की मैन्युफ़ैक्चरिंग चीन की ही एक अन्य कम्पनी पेगाट्रान को स्थानान्तरित की है। परन्तु चाइना लेबर वाच नामक एक संस्था द्वारा प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक पेगाट्रान में भी फॉक्सकॉन की ही तर्ज़ पर मज़दूरों से क़ानूनन तय काम के घण्टों से अधिक काम लिया जाता है और बदले में उन्हें पर्याप्त मज़दूरी भी नहीं दी जाती। यही नहीं फॉक्सकॉन की ही तरह पेगाट्रान में भी बड़े पैमाने पर नाबालिगों एवं बच्चों से काम करवाया जाता है। यही हालात चीन की एक अन्य कम्पनी सामक्वांग में काम कर रहे मज़दूरों की है जिसमें सैमसंग के मोबाइल बनते हैं। इस कम्पनी में भी बड़े पैमाने पर छात्र प्रशिक्षुओं से लम्बे समय तक काम कराया जाता है। छोटी-छोटी ग़लतियों पर मज़दूरों को सुपरवाइज़रों और मैनेजरों की गालियाँ सुननी पड़ती हैं और उनसे ज़बरन आत्मालोचना लिखवाकर उन्हें अपमानित किया जाता है। इस कम्पनी में भी मज़दूरों को यूनियन बनाने की कोई आज़ादी नहीं है।
इलेक्ट्रॉनिक्स के अतिरिक्त चीन में खिलौनों की विशाल पैमाने पर मैन्युफ़ैक्चरिंग होती है। अमेरिका में मिलने वाले अधिकांश खिलौने चीन की फैक्ट्रियों में बनते हैं। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी मैटेल (बार्बी डॉल जैसे ब्राण्ड की मालिक) अपने खिलौने चीन की 100 से भी ज़्यादा खिलौने बनाने वाली कम्पनियों में बनवाती है। इन कम्पनियों में मज़दूरों को 10-13 घण्टे खडे़ होकर काम करना पड़ता है। ख़तरनाक रसायनों के बीच काम करने के बावजूद इन कम्पनियों के मज़दूरों को सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं होती है। अन्य कम्पनियों की तरह इस कम्पनी में भी समय पर मज़दूरी नहीं मिलती।
कमोबेश ऐसे ही हालात मलेशिया, इण्डोनेशिया और वियतनाम के इलेक्ट्रानिक मैन्युफ़ैक्चरिंग हबों के हैं जहाँ मज़दूरों को लगभग गुलामों जैसी अवस्था में काम करवाया जाता है। बांग्लादेश के टेक्सटाइल्स मैन्युफ़ैक्चरिंग हब की हालत भी इससे अलग नहीं है। पिछले साल राणा प्लाज़ा इमारत के ढहने से 1100 से भी ज़्यादा मज़दूरों की मौत ने इस हब की असलियत उजागर कर दी थी कि किस तरह से पश्चिमी जगत की नामी-गिरामी कपड़ा कम्पनियाँ तीसरी दुनिया के मज़दूरों की ज़िन्दगी को ताक पर रखकर अपना मुनाफ़ा बढ़ा रही हैं। हमारे अपने ही देश में तिरूपुर, बंगलूरू और गुड़गाँव के टेक्सटाइल्स मैन्युफ़ैक्चरिंग हब में मज़दूरों के हालात नारकीय हैं। ऑटोमोबाइल सेक्टर की बात करें तो गुड़गाँव जैसे ऑटोमोबाइल्स मैन्युफ़ैक्चरिंग हब में मज़दूर किन परिस्थितियों में काम करते हैं यह मारूति प्रकरण के ज़रिये सबके सामने आ चुका है।
इन सबके बावजूद भी यदि कोई यह उम्मीद बाँधकर बैठा है कि भारत एक दिन मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बनेगा और मज़दूरों के हालात में बेहतरी आयेगी तो इसे ख़ामख़्याली ही कहा जायेगा। हक़ीकत यह है कि जब तक पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध क़ायम हैं तब तक कितने भी मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बना लिये जायें, वे मज़दूरों को गन्ने और तिलहन की तरह पेरकर और उनकी हड्डियाँ निचोड़कर पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने के ही काम आयेंगे और पूँजीपतियों का मुनाफ़ा मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़कर ही बढ़ेगा। इसलिए मज़दूरों को पूँजीपतियों और उनकी नुमाइन्दगी करने वाली सरकारों से कुछ उम्मीद पालने की बजाय अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं खोजना होगा।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2014
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन