मालिकों के लिए हम सिर्फ मुनाफा पैदा करने की मशीन के पुर्जे हैं
दिल्ली के बादली औद्योगिक क्षेत्र के दो मजदूरों की आपबीती

दोस्तो एक दर्दभरी कहानी आपको सुनाता हूँ। एक मेहनतकश नौजवान की कहानी, जो अपना गाँव-देश छोड़कर दिल्ली में कुछ कमाने के लिए आया था, पर उसे क्या पता था कि पूँजीपतियों की इस बर्बर लूट में उसका हाल ऐसा हो जायेगा कि वह जिन्दगीभर के लिए किसी और के सहारे का मोहताज हो जायेगा। उस नौजवान का नाम मो. नाजिम है, जो बिहार का रहने वाला है। पिता का साया सिर से बचपन में ही उठ गया था। अपनी माँ का इकलौता बेटा और अपनी तीन बहनों का अकेला भाई दिल्ली आया था एक सपना लेकर कि ख़ूब कमाऊँगा और अपनी बहनों की शादी करूँगा। यही सपना लेकर उसने एक चम्मच फैक्टरी में काम पकड़ा। 2200 रुपये महीने के हिसाब से ख़ूब जीतोड़ मेहनत करता था। हर दूसरे-तीसरे दिन नाइट भी लगा लेता था और सण्डे को छुट्टी भी नहीं करता था। ओवरटाइम भी लगाता था और यही कहता था कि एक दिन मशीन सीख लेगें, तो कारीगर बन जायेंगे। और बाबूजी कहते – बेटा मशीन पर ध्‍यान लगाकर सीख ले, तेरी तनख्वाह बढ़ा दूँगा। और वह अपना ज्यादातर ध्‍यान मशीनों में ही लगाने लगा। उसे काम सीखते-सीखते तीन साल बीत गये और आज वह एक कुशल कारीगर बन गया। मालिक ने भी उसकी तनख्वाह 2200 रुपये से 2300 रुपये, 2500 रुपये से 2700 रुपये करते हुए, आज उसे कुशल कारीगर होने के नाते 3000 रुपये देने लगा। एक दिन वह पावर प्रेस की मशीन चला रहा था। मशीन पुरानी थी, मिस्त्री उसे ठीक तो कर गया था, लेकिन चलने में उसमें कुछ दिक्कत आ रही थी। तो उस नौजवान ने सोचा चलो मालिक को बता दे कि यह मशीन अब ठीक होने लायक नहीं रह गयी है। जैसे ही वह उठा, खुली हुई मशीन की गरारी में उसका स्वेटर फँस गया और मशीन ने उसकी बाँह को खींच लिया। स्वेटर को फाड़ती हुई, माँस को नोचती हुई मशीन से उसकी हड्डी तक में काफी गहरी चोट आयी। अगर उसके बगल वाले कारीगर ने तुरन्त उठकर मशीन बन्द नहीं कर दी होती तो वह उसकी हड्डी को भी पीस देती! उसके ख़ून की धार बहने लगी, पूरी फैक्ट्ररी में निराशा छा गयी। चूँकि उसका ई.एस.आई. कार्ड नहीं बना था। इसलिए मालिक ने एक प्राइवेट अस्पताल में उसे चार-पाँच दिन के लिए भर्ती कराया और कोई भी पुलिस कार्रवाई नहीं हुई। कोई हाल-चाल पूछने जाये तो किसी को कुछ भी बताने से मना कर देता और कहता, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो!! शायद वह इसलिए नहीं बता रहा था कि कहीं मालिक को पता न लग जाये और वह जो कर रहा है, कहीं वह भी करना बन्द न कर दे।

तो देखा साथियो आपने, ये सिर्फ एक मो. नाजिम की कहानी नहीं है, ऐसे हमारे सैकड़ों साथी रोज कटते-मरते रहते हैं और आज उनके लिए मालिकों के ख़िलाफ कोई लड़ने वाला नहीं है। और शायद सभी पूँजीपति भी यह जानते हैं। इसलिए वह हम मजदूरों के साथ मनमाना व्यावहार करता है और बात-बात पर डाँटना, गाली देना, काम से निकाल देने की धमकी देना ये उसकी सहज प्रक्रिया बन गयी है। साथियो, हम लोगों को इन पूँजीपतियों से लड़ने के लिए अपना मजबूत संगठन बनाना होगा।

आपका भाई, बादली औद्योगिक क्षेत्र, दिल्ली

गाँव में दिल्ली के बारे में सुन रखा था कि राजधानी में हर हाथ के लिए काम है और वहाँ पैसा भी काफी मिलता है। इसीलिए मैं भी अपना गाँव कन्नौज छोड़कर रोजगार के लिए दिल्ली आ गया था। दिल्ली आकर शहर की चमक-दमक देखी, बड़ा अच्छा लगा। उसके बाद दिल्ली के बादली औद्योगिक क्षेत्र की एक फैक्ट्ररी में काम पर लग गया। फैक्ट्ररी में जाने पर पता चला कि यहाँ मजदूरों को 2200-2300 रुपये में काम करना पड़ता है। बहुत भारी काम तथा पत्ती वाली फैक्ट्ररियों में, जिनमें भट्ठी जलती है, मुश्किल से 3000 रुपये मिलते हैं। बादली औद्योगिक क्षेत्र के पीछे बसी मजदूर बस्ती राजा विहार में मैंने एक कमरा लिया, जिसका किराया 830 रुपये तथा बिजली का पैसा अलग से। मैं बादली औद्योगिक क्षेत्र की फैक्टरी एस 106, फेज 1 में काम पर लगा था। जिसमें चम्मच बनती है। इस फैक्ट्ररी में बहुत बड़ी-बड़ी मशीनें लगी हैं। किसी की क्षमता 10 टन है तो किसी की 50 टन। मजबूत से मजबूत लोहे को भी पलक झपकाते ही काट देने वाली मशीनें। ख़ैर, अब आपको बताते हैं कि विकसित दिल्ली में मजदूरों का क्या हाल है! मैं एस 106, फेज 1 में 2500 रुपये तनख्वाह तथा रोज ढाई घण्टे ओवरटाइम लगाता था। कभी-कभी मेरी रात में डबल डयूटी भी लग जाती थी। इस तरह से मैं महीने में करीब 3500 रुपये कमा लेता था। इसमें से 1100 रुपये किराया और बिजली का तथा लगभग आठ-नौ सौ रुपये खाने पर ख़र्च होता था। अकेला था इसलिए और कोई ख़र्चा नहीं था। तीन-चार महीने डयूटी करने के बाद मेरी तबीयत एकदम ख़राब हो गयी, जिसकी वजह से मैं डयूटी नहीं जा पाया। एक डाक्टर को दिखाने गया तो उसने कहा कि ख़ून की जाँच कराओ, उसके बाद ग्लूकोज की बोतल चढ़ा दी। ख़ून की जाँच के बाद पता चला कि मुझे मलेरिया हो गया है। दो-तीन दिन के इलाज में डाक्टर ने छ:-सात सौ रुपये ले लिये। तबीयत ख़राब होने की वजह से मैं फैक्ट्ररी भी नहीं जा पाया तथा डाक्टर ने फल और दूध खाने-पीने को कहा। धीरे-धीरे मेरी सारी बचत ख़र्च हो गयी। अब रुपये कहाँ से लाऊँ? फिर सोचा, चलो फैक्ट्ररी मालिक से माँग लेता हूँ, मेरे दस-बारह दिन काम के पैसे रह गये हैं।

मैं फैक्टरी मालिक के पास गया और बताया कि बाबूजी मेरी तबीयत बहुत ख़राब है, रुपयों की सख्त जरूरत है। मालिक बोला कि अभी तो तनख्वाह ले गया था, उसके बाद से काम पर भी नहीं आया। अब आकर नाटक कर रहा है, तेरी तबीयत का मैंने क्या ठेका ले रखा है? अभी रुपये नहीं है, काम पर आना है तो आ जा नहीं तो अगले महीने आकर हिसाब ले जाना। और उन्होंने मुझे भगा दिया। जहाँ मैंने अपना ख़ून-पसीना एक करके रात-दिन मजदूरी की, वहाँ से मुझे भगा दिया गया!

तो साथियो, ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं हुआ है, ऐसा रोज हजारों मजदूरों के साथ होता है, क्योंकि सभी मालिक जानते हैं कि मजदूर कर ही क्या सकता है। भाइयो-साथियो, इस तरह के तमाम अन्याय चुपचाप बर्दाश्त करने के बजाय, आओ, हम सभी लोग मिलकर अपना संगठन बनायें।

आपका मजदूर साथी
आनन्द, बादली औद्योगिक क्षेत्र, दिल्ली

बिगुल, जून 2010


 

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