मोदी सरकार के जन-विरोधी क़दमों से ध्यान बँटाने के लिए झूठा प्रचार, फ़र्जी मुद्दे और खोखली नौटंकी जारी
दोनों हाथ मज़दूर को लूटो, बोलो ‘श्रमेव जयते’!
सम्पादक मण्डल
मोदी सरकार झूठ और पाखण्ड के भी सारे रिकॉर्ड तोड़ देने पर आमादा है। बेशर्मी से आँखों में धूल झोंकने की नयी कोशिश में अब इसने नारा दिया है ‘श्रमेव जयते’। चुनाव से पहले देशी पूँजीपतियों से और सत्ता में आने के बाद दुनिया में घूम-घूमकर विदेशी लुटेरों से नरेन्द्र मोदी यही वादे करते रहे हैं कि उनकी पूँजी लगाने और बेरोकटोक मुनाफ़ा पीटने के रास्ते की सभी बाधाओं को उनकी सरकार दूर करेगी। ‘मेक इन इण्डिया’ के नारे का मतलब ही है, आइये, हमारे भारत देश के कच्चे माल और सस्ते श्रम को जमकर लूटिये। कोई अड़चन आये, कोई आवाज़ उठाये, तो हमें बताइये – उसे पीट-पाटकर पटरा करने के लिए आपका यह सेवक हमेशा तैयार रहेगा।
दुनियाभर में छायी आर्थिक मन्दी और मुनाफ़े की घटती दर से परेशान पूँजीपतियों की सबसे बड़ी माँग होती है कि मज़दूरों से मनमुआफ़िक काम लेने, मनचाही शर्तों पर उन्हें रखने और निकालने की आज़ादी मिले। तथाकथित “श्रम सुधारों” का एकमात्र मतलब होता है मज़दूरों के काम की शर्तों की हिफ़ाज़त के लिए जो कुछ क़ानूनी बन्दिशें हैं उन्हें भी ढीला कर दिया जाये। उदारीकरण-निजीकरण के पिछले ढाई दशकों के दौरान सारी सरकारें यही करती रही हैं और अब मोदी सरकार मज़दूरों के बचे-खुचे अधिकारों को भी पूरी तरह छीन लेने और उन्हें मालिकों के रहमो-करम पर छोड़ देने का इन्तज़ाम करने में जुट गयी है।
देश का कारपोरेट मीडिया इस कदर बिक चुका है कि इस सफ़ेद झूठ को एक भी सवाल उठाये बिना लगातार परोस रहा है। एक तरफ़ कहा जा रहा है कि अमेरिका और जापान के दौरे में विदेशी कम्पनियों से किये गये वादे को पूरा करने के लिए मोदी ने ये क़दम उठाये हैं और दूसरी तरफ़ बड़ी बेशर्मी से इसे मज़दूरों के हित में बताया जा रहा है। यानी मान लिया गया है कि मज़दूरों के हित पूँजीपतियों के हित के ही मातहत हैं। अब ज़रा देखते हैं कि मज़दूरों की जय कैसे होने वाली है!
‘श्रमेव जयते’ की घोषणा करते हुए मोदी ने अपने भाषण में कहा कि मज़दूर ही राष्ट्र निर्माता है और उसका सिर ऊँचा होना चाहिए। लेकिन सिर ऊँचा होने के लिए ज़रूरी है कि मेहनत की पूरी मज़दूरी मिले, काम के घण्टे, सुरक्षा, दवा-इलाज, पेंशन आदि क़ानूनों का सख़्ती से पालन हो, कारख़ाने और मज़दूर बस्तियों के नर्क जैसे हालात बदले जायें आदि-आदि। इस बारे में प्रधानमंत्री को कुछ नहीं कहना था। उल्टे मज़दूर को नसीहत दी गयी कि उसे श्रमयोगी बनना चाहिए, यानी ‘कर्म किये फल की चिन्ता मत कर ऐ इन्सान’! दूसरी तरफ़, ‘इंस्पेक्टर राज’ ख़त्म करने के नाम पर पूँजीपतियों को इस बात की छूट दे दी गयी है कि वे श्रम क़ानूनों सहित तमाम क़ानूनों का जमकर उल्लंघन करें, कोई उनकी जाँच-पड़ताल, निगरानी करने नहीं जायेगा। उन्हें ‘सेल्फ़ सर्टिफ़िकेशन’ की सुविधा दी गयी है यानी ख़ुद ही लिखकर दे देना होगा कि उनके यहाँ सबकुछ ठीक चल रहा है, और सरकार उसे मान लेगी। कहा गया है कि नागरिक के रूप में सरकार उन पर भरोसा करती है। अविश्वास के काबिल तो केवल मज़दूर ही हैं जिनकी सभी शिकायतों की अब जाँच नहीं की जायेगी। बल्कि कंप्यूटर से लॉटरी निकाली जायेगी और गाहे-बगाहे किसी फैक्ट्री में कोई जाँच कर ली जायेगी। हर कोई जानता है कि आज भी जाँच का कोई मतलब नहीं होता, इंस्पेक्टर पहले से सूचना देकर फैक्ट्री में आता है, मज़दूरों से मिलने से पहले मालिक-मैनेजर के चैम्बर में जाता है हरे-हरे नोटों से सजी जाँच रिपोर्ट जेब में रखकर चला जाता है। लेकिन जहाँ मज़दूर संगठित और जागरूक होते हैं वहाँ वे सही जाँच के लिए दबाव बना सकते हैं और मालिक के काले कारनामों को एक हद तक उजागर कर सकते हैं। अब इस सम्भावना को भी ख़त्म करके मालिकों की रही-सही चिन्ता को दूर करने का इन्तज़ाम कर दिया गया है।
‘मेक इन इण्डिया’ और ‘स्किल इण्डिया’ जैसे नारों की असलियत भी यही है कि पूँजीपतियों को प्रशिक्षित श्रम शक्ति सस्ते दामों पर उपलब्ध कराने का भरोसा दिया जा रहा है। आईटीआई से निकले छात्रों को ‘सम्मान’ दिलाने की पाखण्डपूर्ण बातें भी इसी का हिस्सा हैं। मारुति सुज़ुकी, मानेसर के जो मज़दूर अपने हक़ों के लिए लड़ रहे थे (जिनके 147 साथी तीन वर्ष से अब भी जेल में हैं), उनमें से ज़्यादातर आईटीआई पास थे और भयंकर शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे थे। बड़ी संख्या में कम्पनियाँ आईटीआई पास नौजवानों को आधे वेतन पर कई-कई साल तक अप्रेण्टिस के तौर पर खटाती हैं और अक्सर तो स्थायी करने के बजाय उन्हें निकालकर नये अप्रेण्टिस भरती कर लेती हैं। आधुनिक टेक्नोलॉजी वाली मशीनों पर काम करने के लिए पूँजीपतियों को प्रशिक्षित मज़दूर चाहिए, लेकिन ये मज़दूर उन्हें अपनी शर्तों पर चाहिए। इसी के लिए तरह-तरह के जुमले उछालकर लोगों को भरमाया जा रहा है। ऐसे ही होंगे वे रोज़गार जिनका वादा मोदी सरकार बार-बार करती आ रही है।
दूसरी बात, ‘श्रमेव जयते’ के इस नये शिगूफ़े को सरकार के अन्य मज़दूर-विरोधी क़दमों से काटकर नहीं देखा जा सकता। सत्ता में आने के कुछ ही दिनों के भीतर मोदी ने पूँजीपति वर्ग के रास्ते से श्रम क़ानूनों के ‘स्पीड ब्रेकर’ को हटाने का काम शुरू कर दिया था। केन्द्र में भाजपा की सरकार बनते ही ‘ट्रायल’ के तौर पर राजस्थान की वसुन्धरा राजे सरकार ने मज़दूर अधिकारों पर हमला करने वाले क़ानून पास किये जिनके बारे में विस्तार से हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में लिख चुके हैं। इनमें सबसे बड़ी बात यह थी कि 300 मज़दूरों तक के कारख़ाने में तालाबन्दी या मज़दूरों को निकाल बाहर करने के लिए मालिक को अब सरकार से इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं रह गयी है और मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना पहले से भी बहुत अधिक कठिन बना दिया गया है। विश्व बैंक, भारतीय पूँजीपतियों के संगठन फिक्की, सीआईआई आदि बार-बार कहते रहते हैं कि संगठित क्षेत्र के मज़दूरों को श्रम क़ानूनों की सुरक्षा प्राप्त है, इसीलिए संगठित क्षेत्र में रोज़गार नहीं पैदा हो रहे हैं। इन पूँजीपतियों और उनके भोंपुओं का कहना है कि संगठित क्षेत्र में मालिकों को जब चाहे कारख़ाना बन्द करने की इजाज़त होनी चाहिए और उसके लिए सरकार से इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; मज़दूरों को जब चाहे रखने और जब चाहे निकाल देने की सुविधा मालिकों और प्रबन्धन के पास होनी चाहिए क्योंकि इससे निवेश के लिए पूँजीपति प्रोत्साहित होंगे। इनकी यह भी सिफ़ारिश है कि ट्रेड यूनियनों के कारण उद्योग जगत को बढ़ावा नहीं मिलता इसलिए ट्रेड यूनियन क़ानून में बदलाव करके ट्रेड यूनियनों का पंजीकरण मुश्किल कर देना चाहिए। राजस्थान सरकार की झाँकी सभी पूँजीपतियों को काफी पसन्द आयी और अब मोदी सरकार ने इन सभी माँगों को पूरा करते हुए कारख़ाना अधिनियम, औद्योगिक विवाद अधिनियम, ठेका मज़दूर क़ानून, ट्रेड यूनियन क़ानून आदि में बदलाव करने की तैयारी कर रही है।
मोदी के प्रचार में देश-विदेश के पूँजीपति वर्ग ने यूँ ही हज़ारों करोड़ रुपये नहीं बहाये थे। मीडिया ने हज़ारों करोड़ रुपये पानी की तरह बहाकर मोदी की छवि बनायी जो जादू की छड़ी घुमाते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देगा। गुजरात मॉडल की एक झूठी तस्वीर पेश की गयी। लोगों को यह नहीं बताया गया कि गुजरात मज़दूरों के लिए एक यातना गृह है जहाँ श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है; जहाँ ग़रीबों और अमीरों के बीच की खाई देश के अन्य कई राज्यों के मुकाबले कहीं ज़्यादा है; गुजरात में भुखमरी और कुपोषण की स्थिति भयंकर है। केवल उस गुजरात की तस्वीर पेश की गयी जिसमें व्यापारी, उद्योगपति और खाता-पीता मध्यवर्ग बसता है, जो कि वास्तव में गुजरात के मेहनतकशों के ख़ून को निचोड़कर ऐशो-आराम की ज़िन्दगी बसर कर रहा है। मोदी सरकार बनाने के लिए देश के पूँजीपतियों ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी और झूठ को सच बनाने की मशीनरी को दिनों-रात पूरे ज़ोर-शोर से चलाया। अब मोदी सरकार अगर इन्हीं पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने के रास्ते के सारे काँटे हटा रही है, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है।
एक के बाद एक जनविरोधी क़दम
सत्ता के पाँच महीनों में ही जिस रफ्तार से मोदी सरकार ने जन-विरोधी क़दम उठाये हैं उसमें हैरत की कोई बात नहीं है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों में इन क़दमों की वजह से असन्तोष पनपने और झूठे प्रचार की कलई खुलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा। इसीलिए वे मीडिया मैनेजमेण्ट, संघी संगठनों द्वारा ‘लव जिहाद’, गाय बचाओ आदि मुद्दे उछालने और ‘स्वच्छ भारत’ अभियान जैसी शिगूफ़ेबाज़ियों के ज़रिये लोगों का ध्यान भटकाने में लगे हुए हैं। झूठे मुद्दों की हवा-हवाई बातों के बीच बहुतेरे लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया कि सरकरी नीतियों के कारण दवाओं के दाम में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो गयी है। कैंसर की दवा जेफ्रटीनेट ग्लीवेक जो 5900 से 8500 रुपये में मिलती थी अब बढ़कर 11,500 से 1,08,000 रुपये के बीच बिक रही है। 92 से 147 रुपये के बीच बिकने वाली रक्तचाप की दवा कार्डेस प्लेविस अब 147 से 1650 के बीच मिल रही है। एंटी रैबीज़ इंजेक्शन कैमरैब की कीमत 2670 रुपये से बढ़कर 7000 रुपये हो गयी है। सरकारी आँकड़ों के हिसाब से, इस समय देश में 4.1 करोड़ लोग डायबिटीज़ से, 4.7 करोड़ लोग हृदय रोग से, 22 लाख लोग टीबी से और 11 लाख लोग कैंसर के रोगी हैं। कई संगठनों के मुताबिक मरीज़ों की वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है और इनमें सबसे बड़ी तादाद ग़रीब और निम्न मध्यम वर्ग के रोगियों की है जिनके लिए महँगी दवाओं का मतलब है, इलाज उपलब्ध होते हुए भी मौत को गले लगाना। आँकड़ों के खेल के ज़रिये महँगाई कम होने के दावे उछालने के बावजूद आम मेहनतकश आदमी जानता है कि बाज़ार में महँगाई कम नहीं हुई है। बुनियादी ज़रूरत की सारी चीज़ों में अब भी आग लगी हुई है। हाँ, महँगाई घटने की बात कहकर पूँजीपतियों ने रिज़र्व बैंक से ब्याज की दरें घटाने का शोर ज़रूर शुरू कर दिया है।
और यह तो अभी झाँकी है! हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों के तुरन्त बाद कुछ बड़े निर्णय लिये जाने वाले हैं। पंजाब की तर्ज़ पर अन्य राज्यों में और केन्द्र के स्तर पर कई दमनकारी काले क़ानून बनने हैं और जन-प्रतिरोधों को कुचलने के लिए दमनतंत्र को और अधिक कारगर बनाया जाना तय है। प्राकृतिक गैस के दामों में भारी बढ़ोत्तरी होगी, रियायती गैस सिलेण्डर की संख्या 12 से घटाकर 9 किये जायेंगे, आम गैस सिलेण्डर की कीमत में 100 रुपये तक की बढ़ोत्तरी की जा सकती है। उच्च शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा के तेज निजीकरण की राह की बाधाओं को दूर करना सरकार की प्राथमिकता में है। फीसों में दस गुने से लेकर 40 गुने तक की भारी बढ़ोत्तरी होने की सम्भावना है। इसके साथ ही, भगवाकरण की जारी मुहिम को और तेज करने के लिए एन.सी.ई.आर.टी., भाजपा शासित राज्यों के शिक्षा बोर्ड, यू.जी.सी. और सभी स्वायत्त शोध संस्थानों के ढाँचे, पाठ्यक्रमों और शोध परियोजनाओं में बदलाव किये जाने की तैयारी की जा रही है।
हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत की भविष्यवाणी सभी ‘एग्ज़िट पोल’ में की गयी है। यह अप्रत्याशित नहीं है। मोदी लहर का चुनावी बुखार इतनी जल्दी उतर पाना सम्भव नहीं था। आने वाले वर्षों में उदारीकरण- निजीकरण नीतियों पर अन्धाधुन्ध अमल के परिणाम बेहिसाब मँहगाई, बढ़ती बेरोज़गारी और मज़दूरों की बेलगाम लूट के रूप में सामने आने ही हैं। तब एक बार फिर दमनतंत्र और साम्प्रदायिक आधार पर जनता को बाँटने का फार्मूला ही काम आयेगा। दमनतंत्र को चाक-चौबन्द करने का काम तेजी से जारी है। लोकरंजक नारों के साथ-साथ साम्प्रदायिकता के मुद्दों को लगातार हवा देकर जिलाये रखा जा रहा है। मगर इन चुनाव परिणामों से यह नतीजा निकालना बेवकूफ़ी होगी कि जनता में मोदी सरकार के कामों की लोकप्रियता का उसे ईनाम मिला है।
पूँजीवादी जनवाद के अन्तर्गत चुनाव सिर्फ यह तय करते हैं कि शासक वर्गों की कौन-सी पार्टी समय विशेष में सरकार बनाकर पूँजीपतियों की ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम करेगी और धनबल, मीडिया प्रबन्धन और बड़े निर्वाचक मंडलों की व्यवस्था के चलते प्रायः वही पार्टी चुनाव जीतती है। अपने तमाम आपसी झगड़ों के बावजूद नवउदारवाद की नीतियों पर साम्राज्यवादियों, देशी छोटे-बड़े पूँजीपतियों, बैंकरों, फार्मरों-कुलकों, बिचौलियों-दलालों और उच्च मध्यम वर्ग की आम सहमति है और भाजपा फिलहाल एकमात्र ऐसी संगठित राजनीतिक शक्ति है जो इन नीतियों को डण्डे के ज़ोर पर लागू कर सकती है।
मुमकिन है कि अगले लोकसभा चुनावों तक, मोदी लहर का बुखार उतर जाये और नये सिरे से संगठित होकर कांग्रेस-नीत मोर्चा शासक वर्गों के समक्ष अपने को भरोसेमन्द विकल्प के रूप में पेश करने में सफल हो जाये या क्षेत्रीय पार्टियाँ और भाँति-भाँति की सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ तीसरे मोर्चे की कोई सतमेल खिचड़ी पकाकर कुछ समय के लिए सरकार बना लें, जैसा कि पहले भी होता रहा है। लेकिन एक बात तय है। अब नव उदारवाद से पीछे नेहरूकालीन तथाकथित कल्याणकारी राज्य और ‘पब्लिक सेक्टर’ अर्थव्यवस्था की ओर वापसी सम्भव नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था के कीन्सियाई इलाज का दौर अब निर्णायक रूप से बीत चुका है। अब ज़्यादा से ज़्यादा एन.जी.ओ.-सुधारवाद के द्वारा कुछ ‘सेफ्टीवॉल्व’ ही लागू कर पाना सम्भव है। इसलिए दुनिया भर की कारपोरेट ताकतें और उनके थिंक टैंक, पूँजी, प्रचार और नयी-नयी सैद्धान्तिकियों से एन.जी.ओ. के ‘थर्ड सेक्टर’ को बढ़ावा देने में लगे हैं। कैलाश सत्यार्थी और मलाला युसुफज़ई को नोबेल पुरस्कार दिये जाने को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा-देखा जा सकता है।
भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव यदि हार भी जाये, तो भी नवउदारवादी नीतियों पर अमल जारी रहेगा और उन नीतियों का कहर झेल रही जनता के हर प्रतिरोध को बर्बरतापूर्वक कुचलने का सिलसिला सघन होता जायेगा, सरकार चाहें जिस किसी पार्टी या गठबंधन की हो। पूँजीवाद का वर्तमान चरण विश्व ऐतिहासिक स्तर पर पूँजीवादी जनवाद के अन्तर्वस्तु के क्षरण-विघटन और उसकी सीमाओं के संकुचन का ऐसा दौर है जिसे पलटा नहीं जा सकता। जो लोग पूँजीवाद का विरोध किये बिना फासीवाद का विरोध करते हैं और जो लोग अभी भी “कल्याणकारी राज्य” की वापसी के कीन्सियाई यूटोपिया का विकल्प पेश करते हुए नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण की नीतियों का विरोध करते हैं, वे वस्तुगत तौर पर, जनता को भ्रामक निदान सुझाकर प्रतिक्रिया की ताक़तों की ही मदद करते हैं।
भाजपा सत्ता में रहे या न रहे, नवउदारवादी नीतियाँ जारी रहेंगी और बुर्जुआ राज्यसत्ता के ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश दमनकारी होते जाने की प्रक्रिया जारी रहेगी। दूसरी बात, भाजपा सत्ता में रहे या न रहे, एक फासीवादी धुर प्रतिक्रियावादी शक्ति के रूप में इसकी प्रभावी मौजूदगी और इसका व्यापक सामाजिक आधार भारतीय समाज में बना रहेगा। नवउदारवादी दौर के रुग्ण और संकटग्रस्त पूँजीवाद में भारतीय समाज में फासीवाद की नर्सरियों का लगातार स्वतःस्फूर्त गति से विकास हो रहा है। फासीवाद मुख्यतया इजारेदार वित्तीय पूँजी के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी चरित्र की नुमाइन्दगी कर रहा है, लेकिन संकटग्रस्त छोटे व्यापारी, छोटे पूँजीपति, कुलक-फार्मर-धनी किसान और खुशहाल परजीवी मध्यवर्गीय जमातें इसका प्रमुख सामाजिक आधार हैं तथा उत्पादन की प्रक्रिया से बाहर धकेल दी गयी विमानवीकृत होती जा रही मज़दूर आबादी के एक हिस्से में, उजड़ते छोटे मालिकों में और पीले बीमार चेहरों वाले अलगावग्रस्त निम्न बुर्जुआ युवाओं में भी लोकरंजकतावादी, अन्धराष्ट्रवादी और उन्मादी कट्टरपंथी नारों के द्वारा फासीवाद अपना एक व्यापक सामाजिक आधार तैयार करने के काम में लगातार लगा हुआ है।
हिन्दुत्ववादी फासीवाद से लड़ाई कोई फौरी या अन्य बुर्जुआ ताकतों से रणकौशलात्मक मोर्चा बनाकर लड़ी जाने वाली लड़ाई नहीं है, सवाल बुर्जुआ जनवाद की हिफ़ाज़त का नहीं है। वह तो स्वयं अपनी आर्थिक गतिकी से छीज-सिकुड़ रहा है। बेशक, लम्बी लड़ाई में ऐसे ‘टैक्टिकल’ मोर्चो के अल्पकालिक दौर आ सकते हैं (जिनका लाभ भी तभी उठाया जा सकता है जब सर्वहारा की हरावल पाँते संगठित हों), लेकिन मुख्य बात यह है कि टैक्टिक्स से पहले दूरगामी रणनीति (स्ट्रैटेजी) के पहलुओं पर सोचा जाना चाहिए। फासीवाद से संघर्ष की तैयारी पूँजीवाद विरोधी क्रान्तिकारी तैयारी की ही अविभाज्य कड़ी है। यह अवस्थितियों के युद्ध (पोज़ीशनल वारफेयर) के रूप में जारी एक वर्गयुद्ध है। फासीवादियों ने समाज में तरह-तरह की संस्थाओं, आयोजनों और नियमित कार्रवाइयों के रूप में अपनी खन्दकें खोद रखी हैं और बैरीकेड खड़े कर रहे हैं। सर्वहारा क्रान्तिकारियों को भी यह करना होगा। उन्हें विभिन्न प्रकार की संस्थाओं, आयोजनों, नियमित सामाजिक-सांस्कृतिक कार्रवाइयों, युवाओं-स्त्रियों-मज़दूरों आदि के स्वयंसेवक दस्तेबनाने जैसी कार्रवाइयों में लगना होगा। यह काम मुख्यतया मज़दूरों और गरीब आबादी की बस्तियों में करना होगा। साथ ही, प्रगतिशील, रैडिकल बौद्धिक मध्यवर्गीय जमातों को भी सांस्कृतिक-बौद्धिक जुटान के केन्द्रों पर लाना होगा तथा सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर उन्हें सड़कों पर उतरने के लिए तैयार होना होगा। मज़दूर वर्ग को जबतक अर्थवाद के भँवर से बाहर लाकर विविध उपक्रमों के ज़रिए राजनीतिक चेतना नहीं दी जायेगी, तबतक उसे फासीवाद के विरुद्ध जुझारू संघर्ष के लिए तैयार करने का सपना भी नहीं देखा जा सकता। और तय है कि मज़दूर वर्ग को लामबन्द किये बिना फासीवाद-विरोध के तमाम उद्यम पूँजीवादी जनवाद और निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद के भँवर में गोल-गोल घूमते रह जायेंगे।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2014
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