ब्रिटिश सैनिकों की अन्धकार भरी ज़िन्दगी की एक झलक
लखविन्दर
ब्रिटिश सेना के एक पूर्व सैनिक को 16 जनवरी 2014 को ब्रिटेन की की एक अदालत ने अपनी नन्ही बेटी का कत्ल करने के दोष में 6 साल की सजा सुनाई। लिआम कल्वरहाऊस नाम का यह सैनिक अफगानिस्तान युद्ध में तैनात किया गया था। युद्ध के दौरान एक हमले में उसने अपनी आँखों के सामने अपने पांच साथियों को मरते हुऐ देखा और अपनी दायीं आँख को भी खो दिया। युद्ध के हालात ने उसे भारी मानसिक चोट और मानसिक बीमारी का पीड़ित बना दिया। वो जल्द ही गुस्से में आ जाता और खुद पर नियंत्रण खो देता। इस बीमारी के कारण उसकी सेना की नौकरी खत्म कर दी गई। घर में उसे अपनी 7 महीने की बेटी का रोना सहन नहीं होता था। इसलिए उसने लड़की के साथ बुरी तरह मारपीट कर दी। बच्ची की जगह-जगह से हड्डियाँ टूट गईं। डेढ़ साल तक अस्पताल में इलाज चलने के बाद आखिर लड़की की मौत हो गई।
यह दर्दनाक घटनाक्रम सिर्फ एक ब्रिटिश सैनिक के हालात नहीं बताता बल्कि ब्रिटिश सेना के मौजूदा और पूर्व सैनिकों की एक बड़ी संख्या की हालत को बताता है। युवाओं को एक अच्छे, देशभक्तिपूर्ण, बहादुरी और शान वाले रोज़गार का लालच देकर ब्रिटिश सेना में भर्ती किया जाता है। सर्वोत्तम बनो, दूसरो से ऊपर उठो जैसे लुभावने नारों के जरिए युवाओं का ध्यान सेना की तरफ खींचा जाता है। दिल लुभाने वाले बैनरों, पोस्टरों, तस्वीरों के जरिए ब्रिटिश सेना की एक गौरवशाली तस्वीर पेश की जाती है। लेकिन ब्रिटिश सेना की जो लुभावनी तस्वीर पेश की जाती है उसके पीछे एक बेहद भद्दी (असली) तस्वीर मौजूद है। वियतनाम युद्ध के बाद सैनिकों के हालात को लेकर ब्रिटिश सेना के सर्वेक्षण शुरू हुए थे। अक्तूबर 2013 में ब्रिटिश सेना के बारे में ‘फोर्सस वाच संस्था’ ने ‘दी लास्ट ऐम्बुश’ नाम की एक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट डेढ सौ स्रोतों से जानकारी जुटा कर तैयार की गई। इन स्रोतों में ब्रिटिश सेना की तरफ से जारी की गई 41 रिर्पोटें और पूर्व सैनिकों के साथ बातचीत भी शामिल है। फोर्सेस वाच का खुद का कहना है कि सेना के नियंत्रण में होने वाले सर्वेक्षण में पूरी सच्चाई बाहर नहीं आती। लेकिन इनके अधार पर तैयार की गई रिपोर्ट ब्रिटिश सैनिकों की अँधेरी ज़िन्दगी की तस्वीर के एक हिस्से को तो उजागर करती है।
इस रिपोर्ट में यह बात काफी उभरकर सामने आई है कि ब्रिटिश गरीब आबादी से भर्ती किये गये सैनिकों को अमीर आबादी से भर्ती किये गये सैनिकों के मुकाबले ज्यादा मुश्किल और खतरनाक मोर्चों पर भेजा जाता है। इस तरह गरीब पृष्ठभूमि वाले सैनिकों को ज्यादा मुसीबतें और नुकसान उठाना पड़ता है।
ब्रिटिश सेना में भारी मानसिक चोट के चलते मानसिक विकार (पी.टी.एस.डी.) की बीमारी बड़े पैमाने पर फैली है। उपलब्ध स्रोतों के अधार पर लगाये गये हिसाब के मुताबिक जिन सैनिकों को इराक और अफगानिस्तान युद्ध में तैनात किया गया था उनमें यह बीमारी आम ब्रिटिश नागरिकों से 20 प्रतिशत ज्यादा है। आम नागरिकों का 2.7 प्रतिशत हिस्सा इस बीमारी से पीड़ित है। जबकि इराक और अफ़गानिस्तान में तैनात किये गये सैनिकों का 3.2 प्रतिशत हिस्सा इस बीमारी से पीड़त है। जंग के मोर्चों पर तैनात किये गये सैनिकों का 22.5 प्रतिशत हिस्सा अल्कोहल के जरूरत से अधिक इस्तेमाल का शिकार है जबकि अन्य सैनिकों और आम नागरिकों में यह दर क्रमश 14.2 प्रतिशत और 5.4 प्रतिशत है। रिपोर्ट बताती है कि ब्रिटिश सैनिकों में मानसिक बीमरियाँ आम नागरिकों से 30 प्रतिशत ज्यादा है।
ऐसे सैनिक जिन्होंने पिछले 10 सालों में सेना छोड़ी है, उनमें पी.टी.एस.डी., अल्कोहल के जरूरत से अधिक इस्तेमाल, आम मानसिक बीमारियों और खुद को चोट पहुँचाने की प्रवृत्तियाँ आम लोगों और मौजूदा सैनिकों से काफी ज्यादा है। पूर्व सैनिकों में मानसिक बिगाड़ की दर मौजूदा सैनिकों से ज्यादा होने के कारण यह भी हो सकता है कि पूर्व सैनिकों के बारे में जानकारी जुटाना अधिक आसान है। मौजूदा सैनिकों के बारे में तो बहुत कम जानकारी हासिल हो पाती है। रिपोर्ट के आँकड़े बताते हैं कि इराक और अफगानिस्तान युद्ध में तैनात किये गये पूर्व सैनिकों में पी.टी.एस.डी. मानसिक रोग और अल्कोहल का दुरुपयोग आम लोगों से 3 गुना ज्यादा है। आम मानसिक विकार पूर्व ब्रिटिश सैनिकों में 90 प्रतिशत ज्यादा है। पूर्व सैनिकों में हिंसक प्रवृतियाँ आम लोगों से काफी ज्यादा होती हैं।
अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इराक युद्ध में शामिल पूर्व सैनिकों का 12.6 प्रतिशत हिस्सा अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ हिंसक व्यवहार करता है। सेना की नौकरी छोड़ देने के बाद अकसर सैनिकों को आम लोगों में घुलने-मिलने की समस्या आती है। सामाजिक सहारा न मिलने के चलते सैनिकों में मानसिक रोग और बढ़ जाते हैं।
गरीब लोगों से भर्ती हुए सैनिक इन मानसिक रोगों का ज्यादा शिकार होते हैं। गरीब आबादी लूट-शोषण का शिकार होने के कारण पहले ही मानसिक परेशानियों और मानसिक रोगों का ज्यादा शिकार होती है। इस आबादी से सेना में ‘देश सेवा’ के लिए भर्ती हुए युवाओं को सेना में लूट, शोषण, उत्पीड़न, अन्याय सहना पड़ता है। ज्यादा मुश्किल और खतरनाक मोर्चो पर उनको ही भेजा जाता है। इन मोर्चों पर भारी मानसिक चोट पहुँचने के आसार ज्यादा होते है। पी.टी.एस.डी. रोग से सम्बन्धित खोज में यह बात सामने आई है कि समाज के निचले वर्ग के लोगों के लिए यह रोग ज्यादा नुकसान पहुँचाता है। इसके साथ ही सेना के ऊपर के स्थानों पर बैठे अधिकारियों से अपमान और उत्पीड़न सहना पड़ता है। पूँजीपतियों के साम्राज्यवादी लुटेरे हितों की खातिर इराक, अफगानिस्तान में जाकर बच्चों, औरतों सहित बेगुनाह लोगों का खून बहाना पड़ता है। अपनी आँखों के सामने अपने साथियों और बेगुनाह लोगों को मरते और अपाहिज होते देखना पड़ता है। ये सारे हालात उनके मन पर भयंकर असर डालते हैं।
ब्रिटिश सेना में ‘सर्वोत्तम बनने’, ‘सब से ऊपर उठने वाले’ एक अच्छे पेशे का सपना लेकर भर्ती हुए ब्रिटिश युवाओं के लिए सेना की नौकरी मानसिक परेशानियों-विकारों-रोगों के गहरे गढ्ढे में गिरने का कारण बन जाती है। पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के लुटेरे हितों को पूरा करने के लिए बनाये गये ब्रिटिश सैनिक ढाँचे से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? ब्रिटिश सैनिकों की तरह अन्य सभी पूँजीवादी देशों के सैनिक भी इसी तरह अन्धकार भरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर हैं। यह चाहे अमेरिका, फ्रांस, जैसे विकसित पूँजीवादी देश हों और चाहे भारत, चीन, पाकिस्तान, बांगलादेश जैसे पिछडे़ पूँजीवादी देश हों सब जगह सैनिकों के कम या अधिक ऐसी ही परिस्तिथियाँ हैं।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2014
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