श्रद्धांजलि
नहीं रहे प्रो. के. बालगोपाल
नागरिक स्वतन्त्रता एवं जनवादी अधिकार आन्दोलन के अग्रणी कार्यकर्ता प्रो. के. बालगोपाल का गत 8 अक्टूबर की रात को दिल का दौरा पड़ने के बाद मेहदीपटनम (आन्ध्र प्रदेश) के एक अस्पताल में निधन हो गया। उनकी उम्र महज़ बावन वर्ष की थी। प्रो. बालगोपाल का असामयिक-आकस्मिक निधन भारत के जनवादी अधिकार आन्दोलन के लिए एक गम्भीर नुक़सान है।
जनवादी अधिकार आन्दोलन के एक अग्रणी संगठनकर्ता के रूप में प्रो. बालगोपाल विगत लगभग पच्चीस वर्षों से आन्ध्र प्रदेश में सक्रिय थे। एक दशक पहले काकतीय विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी छोड़कर उन्होंने वकालत की शुरुआत की थी। 1980 के दशक में ‘आन्ध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज़ कमेटी’ (ए-पी-सी-एल-सी) के गठन के समय से ही वे उसमें सक्रिय थे। गिरफ्तारी, फ़र्जी मुक़्दमों और पुलिसिया आतंक झेलने की क़ीमत चुकाने के बावजूद बालगोपाल नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम जनता पर पुलिसिया आतंक राज क़ायम करने, फ़र्जी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में यन्त्रणा और मौतों, फ़र्जी मुक़दमों और क़ाले क़ानूनों के विरुद्ध लगातार निर्भीकतापूर्वक आवाज़ उठाते रहे। नक्सलवादी क़ैदियों को राजनीतिक बन्दी का अधिकार दिलाने के लिए भी वे लगातार संघर्ष करते रहे।
प्रो. बालगोपाल का मानना था कि राजकीय हिंसा और आतंक का विरोध करना जनवादी अधिकार आन्दोलन का सर्वोपरि दायित्व है, लेकिन साथ ही उन्होंने तत्कालीन भा-क-पा (मा-ले) (पीपुल्स वार) की “वामपन्थी” आतंकवादी राजनीति का भी विरोध किया। इस प्रश्न पर गहरे मतभेद के बाद, ए-पी-सी-एल-सी- से अलग होकर उन्होंने ‘ह्यूमन राइट्स फ़ोरम’ की स्थापना की। वे भाकपा (माओवादी) की राजनीतिक हत्या और आतंक की राजनीतिक को ग़लत मानते थे, लेकिन माओवादियों के विरुद्ध फ़र्जी मुक़दमों, उनकी फ़र्जी मुठभेड़ और पुलिस हिरासत में यन्त्रणा का विरोध करते थे और उनके राजनीतिक अधिकारों के मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठाते रहते थे। छत्तीसगढ़ में ‘सलवा जुडुम’ के नाम पर आदिवासियों के राजकीय दमन की मुहिम के विरुद्ध उनकी रिपोर्ट काफ़ी चर्चा में रही थी।
प्रो. बालगोपाल को ‘बिगुल’ की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि!
बिगुल, अक्टूबर 2009
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन