नाना पाटेकर, सनी देओल और चिदम्बरम
आलोक रंजन
आतंकवाद बम्बइया फिल्मों के सबसे लोकप्रिय फार्मूलों में से एक है। इनमें से अधिकांश फिल्में इस बात की पुरजोर वकालत करती हैं कि कोर्ट-कचहरी के लम्बे चक्करों के बजाय, पुलिस को यह पूरा-पूरा अधिकार होना चाहिए कि वह आतंकवादियों को ख़ुद ही सजा सुनाकर आनन-फानन में उसकी तामील भी कर दे। यानी आतंकवादियों के सन्दर्भ में संविधान और कानून का कोई अस्तित्व नहीं (तर्क यह कि वे स्वयं भी तो उन्हें नहीं मानते!), उन्हें फर्जी मुठभेड़ में या टॉर्चर चैम्बर में ढेर कर देना सर्वथा न्यायोचित है! देखा जाये तो यह तर्क सर्वथा ग़ैरकानूनी और असंवैधानिक है। लेकिन इस देश का सेंसर बोर्ड इन फिल्मों को धड़ल्ले से पास करता है। एक चोर, डकैत और हत्यारे को भी न्याय का अधिकार प्राप्त है और एक आतंकवादी को भी। जो लोग सत्तातन्त्र द्वारा इस अधिकार के अपहरण को जायज ठहराते हैं, वे प्रकारान्तर से यह स्वीकार करते हैं कि स्वयं यह राज्यसत्ता ही आतंकवादी है।
बहरहाल, आतंकवाद को मुद्दा बनाने वाली फिल्मों में प्राय: नायक मानवाधिकार संगठनों को भी काफी झाड़ पिलाता है कि वे आतंकवादियों के मानवाधिकार की बात करते हैं, फर्जी मुठभेड़ों आदि की निन्दा करते हैं और आतंकवादियों को कानूनी बचाव में मदद करते हैं। यूँ तो ऐसी कई फिल्में बनी हैं, लेकिन इस रिपोर्टर को ऐसी दो फिल्मों की बख़ूबी याद है जिनमें मानवाधिकार संगठनों को फटकारने-लताड़ने का काम क्रमश: सनी देओल और नाना पाटेकर करते हैं।
और अब हाल ही में देश के गृहमन्त्री चिदम्बरम ने भी इस बात पर क्षोभ प्रकट किया है कि आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई में मानवाधिकार संगठन प्राय: आड़े आ जाते हैं! यानी आतंकवादियों से निपटने की नीति पर चिदम्बरम और सनी देओल-नाना पाटेकर की भाषा एक है – एकदम ‘मिले सुरे मेरा-तुम्हारा।’ आइये, अब जरा इस साझा क्षोभ के निहितार्थों को समझने की कोशिश की जाये। मानवाधिकार संगठन इस मामले में क्या कहते हैं? उनका मात्र यह कहना है कि सजा देने से पहले आतंकवाद का अभियोग न्यायालय में सिद्ध तो होना चाहिए! यदि दोष तय करने और सजा दे देने का अधिकार पुलिस को ही है, तो फिर कानून-कोर्ट-कचहरी का मतलब ही क्या है? फिर तो यही तर्क आतंकवाद ही नहीं, बल्कि हर तरह के अपराध के बारे में लागू होना चाहिए! पुलिस द्वारा किसी को भी आतंकवादी बताकर एनकाउण्टर कर देने, यन्त्रणा देकर गुनाह कबुलवाने और हिरासत में मौतें हमारे देश में एकदम आम बात है। ”वामपन्थी” उग्रवाद या किसी प्रकार के उग्रवाद के दमन के नाम पर ‘कॉम्बिंग ऑपरेशन’ के दौरान व्यापक आम आबादी को बर्बर दमन का शिकार बनाने की घटनाएँ सिद्ध हो चुकी हैं। ‘सलवा जुडुम’ की नंगी सच्चाई आज पूरे देश के सामने है। मानवाधिकार संगठन इन्हीं चीजों का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि एक अपराधी के भी जनवादी अधिकार होते हैं। न्याय पाना उसका हक है और दोष सिद्धि के बाद ही उसे सजा दी जा सकती है। जहाँ तक आतंकवाद की बात है, अपने हर रूप में वह एक राजनीतिक विचारधारा है। आतंकवादी राज्य के विरुद्ध युद्ध चलाता है। इस युद्ध में यदि वह मारा जाता है तो यह अलग बात है। यदि वह पकड़ा जाता है तो उस पर राजद्रोह का अभियोग लगाया जा सकता है। पर मुकदमे के दौरान उसे राजनीतिक बन्दी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। उसे हिरासत में यन्त्रणा देकर गुनाह नहीं कबुलवाया जा सकता या फर्जी मुठभेड़ दिखाकर उसकी हत्या नहीं की जा सकती। पूरी दुनिया के सभी पूँजीवादी जनतन्त्र इन बातों को उसूली तौर पर स्वीकार करते हैं, लेकिन अमली तौर पर नहीं। मानवाधिकार संगठन, जनवादी अधिकार संगठन और नागरिक स्वतन्त्रता संगठन इन्हीं उसूलों को अमल में लाने के लिए दबाव बनाते हैं। यह हमारे संविधन और कानून-व्यवस्था में उल्लिखित बातों को ही लागू करने का सवाल है, जो जनवादी अधिकार संगठन उठाते हैं। इससे अधिक कुछ नहीं। फिर भी यदि चिदम्बरम साहेब को लगता है कि मानवाधिकार संगठन कुछ ग़लत कर रहे हैं तो उन्हें सबसे पहले संविधान और कानून व्यवस्था के कतिपय प्रावधानों को ही निरस्त करने की माँग उठानी चाहिए। देखा जाये तो प्रकारान्तर से चिदम्बरम एक ‘पुलिस स्टेट’ जैसी अर्द्धफासिस्ट व्यवस्था कायम करने की बात कर रहे हैं जहाँ अमूर्त ”देशहित” की आड़ लेकर किसी को भी दण्डित करने का सर्वाधिकार शासन-प्रशासन को प्राप्त हो। एक सर्वसत्तावादी राज्य ऐसा ही होता है, जैसा चिदम्बरम चाहते हैं। इसीलिए वह नाना पाटेकर और सनी देओल के सुर में सुर मिलाकर डायलॉग बोल रहे हैं।
बिगुल, अक्टूबर 2009
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