भगाणा काण्ड, मीडिया, मध्यवर्ग, सत्ता की राजनीति और न्याय-संघर्ष की चुनौतियाँ
कविता कृष्णपल्लवी
भगाणा की दलित बच्चियों के साथ बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और ज़्यादातर अख़बारों की बेशर्म चुप्पी ज़रा भी आश्चर्यजनक नहीं है।
ये अख़बार पूँजीपतियों के हैं। यूँ तो पूँजी की कोई जाति नहीं होती, लेकिन भारतीय पूँजीवाद का जाति व्यवस्था और साम्प्रदायिकता से गहरा रिश्ता है। भारतीय पूँजीवादी तन्त्र ने जाति की मध्ययुगीन बर्बरता को अपने हितों के अनुरूप बनाकर अपना लिया है। भारत के पूँजीवादी समाज में जाति संरचना और वर्गीय संरचना आज भी एक-दूसरे को अंशतः अतिच्छादित करते हैं। गाँवों और शहरों के दलितों की 85 प्रतिशत आबादी सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा है। मध्य जातियों का बड़ा हिस्सा कुलक और फ़ार्मर हैं। शहरी मध्यवर्ग का मुखर तबका (नौकरशाह, प्राध्यापक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर आदि) ज़्यादातर सवर्ण है। गाँवों में सवर्ण भूस्वामियों की पकड़ आज भी मज़बूत है, फ़र्क सिर्फ़ यह है कि ये सामन्ती भूस्वामी की जगह पूँजीवादी भूस्वामी बन गये हैं। अपने इन सामाजिक अवलम्बों के विरुद्ध पूँजीपति वर्ग क़तई नहीं जा सकता। वैसे भी पूँजीवादी वोट बैंक के खेल के लिए जातिगत बँटवारे को बनाये रखना ज़रूरी है। सामाजिक ताने-बाने में जनवादी मूल्यों के अभाव के कारण, जो ग़रीब सवर्ण और मध्य जातियों की आबादी है, वह भी जातिवादी मिथ्या चेतना की शिकार है।
इस पूरी पृष्ठभूमि में भगाणा काण्ड पर मीडिया की बेशर्म चुप्पी को आसानी से समझा जा सकता है। सवाल केवल मीडिया के मालिकों का ही नहीं है, ज़्यादातर मीडियाकर्मी ग़ैर दलित जातियों के हैं और उनके जातिवादी पूर्वाग्रहों की भी इस बेशर्म ‘टोटल ब्लैकआउट’ के पीछे एक अहम भूमिका है।
जो दलित बुद्धिजीवी हैं, वे ज़्यादातर सुविधाभोगी बात-बहादुर हैं। ये बहुसंख्यक ग़रीब दलित आबादी की पीड़ा को भुनाकर अगियाबैताल दलित लेखक-बुद्धिजीवी होने के तमगे तो ख़ूब बटोरते हैं, लेकिन शेरपुर, लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला से लेकर मिर्चपुर और भगाणा तक – पिछले चार दशकों के दौरान किसी भी घटना पर आन्दोलनों में सड़क पर उतरने की इन्होंने जोखि़म या ज़हमत नहीं उठायी। ये क़ायर सुविधाभोगी हैं, जो तमाम गरमागरम बातों के बावजूद, व्यवस्था के पक्ष में ही खड़े हैं।
कम्युनिस्ट आन्दोलन का पुराना इतिहास दलित-उत्पीड़न के विरुद्ध मज़बूती से खड़ा होने का इतिहास रहा है। लेकिन संसदीय जड़वामनवाद और अर्थवादी भिखमंगई एवं सौदेबाज़ी की राजनीति में गले तक धँसने के बाद, सभी चुनावी वामपन्थी पार्टियाँ भी दलितों के उत्पीड़न के विरुद्ध जुझारू आन्दोलन और जाति-व्यवस्था विरोधी साहसिक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन संगठित कर पाने का जज़्बा और कूवत खो चुकी हैं। हालत यह है कि इन पार्टियों के अधिकांश नेता, कार्यकर्ता और इनसे जुड़े लेखक, बुद्धिजीवी अपनी निजी ज़िन्दगी में जाति-धर्म के रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं। फिर दलित ग़रीबों की बहुसंख्यक आबादी भला क्यों इन्हें अपना माने और किस भरोसे के सहारे इनके साथ खड़ी हो? नक्सलबाड़ी किसान उभार से उपजे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का मुख्य आधार गाँवों में दलितों और आदिवासियों की भूमिहीन आबादी के ही बीच था और पहली बार दलितों ने उनके नेतृत्व में संगठित होकर अपने उत्पीड़न का मुँहतोड़ जवाब दिया था। आज भी, उन इलाक़ों में, जहाँ इस आन्दोलन का आधार था, दलित ज़्यादा शान से सिर उठाकर चलते हैं। लेकिन विचारधारात्मक कमज़ोरी और भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम की ग़लत समझ के कारण यह कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन फूट-दर-फूट का शिकार होकर बिखर गया। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन आज नयी ज़मीन पर अपने पुनर्निर्माण की कोशिश कर रहा है। ऐसे में, उसका एक बुनियादी कार्यभार है कि वह जाति व्यवस्था के समूल नाश के दूरगामी संघर्ष और जातिगत उत्पीड़न के विरुद्ध जुझारू प्रतिरोध के फ़ौरी संघर्ष को लगातार चलाये। जाति-व्यवस्था विरोधी संघर्ष भारत में समाजवाद के लिए संघर्ष का एक अनिवार्य बुनियादी घटक है। ग़ैर दलित ग़रीब मेहनतकशों में जो जातिवादी मिथ्याचेतना है, उसके विरुद्ध सांस्कृतिक- वैचारिक-शैक्षिक धरातल पर लगातार काम करना होगा। सबसे पहले तो यह ज़रूरी है कि सच्चे कम्युनिस्ट इस मायने में स्वयं नज़ीर पेश करें और यह साबित करें कि वे निजी ज़िन्दगी में जाति-धर्म की रूढ़ियों को रत्तीभर भी नहीं मानते। दूसरे, दलित मेहनतकशों को भी, लगातार उनके बीच काम करके, यह विश्वास दिलाना होगा कि इस या उस दलितवादी पार्टी या नेता का वोट बैंक बने रहकर वे ख़ुद को ही ठगते हैं और पूँजीवादी व्यवस्था (जो जाति व्यवस्था की पोषक है) की उम्र बढ़ाने का काम करते हैं। साथ ही, जो सुविधाभोगी दलितवादी सिर्फ़ गरमागरम बात बहादुरी करते हैं, वे भी उन्हें ठगते हैं।
व्यापक मेहनतकश चेतना की वर्गचेतना को कुशाग्र बनाने के लिए जातिगत संस्कारों-पूर्वाग्रहों के विरुद्ध सतत संघर्ष ज़रूरी है, यह सच है। दूसरी ओर यह भी सच है कि जातिगत पूर्वाग्रहों-संस्कारों को कमज़ोर करने और तोड़ने के लिए शिक्षा, प्रचार और वर्ग हितों को लेकर आन्दोलन संगठित करने के माध्यम से जनता की वर्ग चेतना को ज़्यादा से ज़्यादा जागृत और मुखर किया जाये। ये दोनों प्रक्रियाएँ द्वन्द्वात्मकतः जुड़ी हैं और साथ-साथ चलानी होंगी।
सबसे ज़रूरी यह है कि मेहनतकशों के विभिन्न संगठनों में दलित भागीदारी बढ़ायी जाये, ग़ैर दलित मेहनतकशों की जातिवादी मिथ्याचेतना के विरुद्ध सतत संघर्ष किया जाये और उनके बीच का अलगाव और भेदभाव तोड़ा जाये। वर्ग संगठनों के अतिरिक्त कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को ‘जाति-उन्मूलन मंच’ जैसे संगठन अवश्य बनाने चाहिए। साथ ही, उन्हें जातिगत उत्पीड़न विरोधी मोर्चा भी गठित करना चाहिए। दलित मेहनतकशों की पूरी भागीदारी के बिना समाजवाद के लिए संघर्ष को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता और समाजवाद के लिए लड़े बिना दलित अपने उत्पीड़न का कारगर प्रतिकार नहीं कर सकते। जाति व्यवस्था को अन्तिम रूप से दफ़नाने का काम समाजवाद के कार्यक्रम पर अमल द्वारा ही सम्भव हो सकता है।
मज़दूर बिगुल, मई 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन