दिन-ब-दिन बिगड़ती लुधियाना के पावरलूम मज़दूरों की हालत
राजविन्दर
लुधियाना के बहुत बड़े इलाके में पावरलूम चलता है। हजारों कारीगर पावरलूम मशीनों पर 12-14 घण्टे काम कर रहे हैं। औसत कारीगर शॉल बनाने वाली 3-4 प्लेन और ढाबी मशीनें तथा 2 जैकेट बनाने वाली मशीने तक एक साथ चला रहे हैं। 12 घण्टे में बहुत अधिक काम करने के बाद भी 3,500 से 6,000 तक वेतन बन पाता है। लेकिन अब बिजली कमी के कारण लम्बे-लम्बे पावर कट लग रहे हैं। टेक्सटाइल कॉलोनी में तो हफ्ते में तीन दिन बिजली का कट लग रहा है। जिन कारख़ानों में जनरेटर नहीं है वहाँ के कारीगर महीने में 15-16 दिन ही काम कर रहे हैं। कुछ बड़े कारख़ानों को छोड़कर सभी जगह पीस रेट पर काम होता है। इनमें कोई श्रम क़ानून लागू नहीं है। पीस रेट पर काम होने की वजह से बिजली कट का सारा बोझ मज़दूरों पर आन पड़ा है। अब जब आटा 14-15 रु, दाल 90-100 रु. सरसों का तेल 80 रु, चीनी 34-35 रु, मिट्ट्टी का तेल 25-30 रु लीटर और कमरे का किराया 500-600 चल रहा है। तो देखा जा सकता है कि इस मँहगाई के जमाने में इतने कम वेतन में किस के घर का खर्च चल सकता है।
दूसरी तरफ़ जो कारख़ाना 15-16 साल पहले 1 शिफ्ट चलता था अब दिन-रात चल रहा है। कारीगर दिन-रात काम करने पर मजबूर हैं। लेकिन महँगाई बढ़ने के साथ-साथ आमदनी में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। जो बेहद मामूली बढ़ोत्तरी हुई है वह बढ़ी हुई क़ीमतों के मुकाबले बेहद कम है। घर की जरूरतें पूरी करने के लिए कारीगर अपने काम के घण्टे बढ़ा रहा है और एक साथ कई-कई मशीनों पर काम रहा है।
पावरलूम के हज़ारों कारीगर जिस रेट पर आज पीस बना रहे हैं वह आज से 16-17 साल पहले से भी कम है। पहले कारीगर एक मशीन चलाकर आठ घण्टे में 3500 रु तक आराम से बना लेता था अब वह दो मशीन पर 12 घण्टे में भी मुश्किल है। पहले महँगाई भी कम थी। आटा 6-7 रु किलो, दाल 12-15 रु, सरसों का तेल 15 रु लीटर, चीनी 6-7 रु किलो, मिट्ट्टी का तेल 2 रु लीटर और कमरा किराया 250 तक था। कारीगर पर्याप्त खर्च करके भी अच्छा पैसा बचा लेता था। उस समय पावरलूम का काम शाही काम माना जाता था। सरकारी नौकरी भी इस काम से पीछे थी। अब यह काम कारीगरों के लिए साँप के मुँह में छिपकली वाली बात बन गया है जो न छोड़ी जाती है न निगली जाती है। लूम कारीगर काम की लाइन भी बदलने से डरते हैं क्योंकि जो नया काम करेंगे उस में तो और भी कम पैसा मिलेगा। नये मज़दूर लूम का काम नहीं सीख रहे हैं। पुराने कारीगर बजुर्ग होने के चलते काम छोड़ते जा रहे हैं जिससे कारीगरों की काफ़ी कमी हो गई है। इससे निपटने के लिए मालिकों ने तरह-तरह के तरीकों से मज़दूरों को कारख़ानों में रोक रखा है। इसमें एक कारगर तरीका है-कुछ पैसा कारीगरों को एडवांस देकर। कमाई बहुत कम होने के चलते मज़दूर एडवांस जल्दी चुका नहीं पाता है। एक बार कोई कारीगर किसी मालिक से कर्ज ले लेता है तो पूरा सीजन उससे छूट नहीं पाता है। कई तो कई साल एक ही मालिक के पास काम करने पर मज़बूर हो जाते हैं। कारीगर मालिक से एडवांस लेते हैं तो वे पीस रेट बढ़ाने के लिए भी मालिक को कहने से बचते हैं। इस तरह मालिकों का तो दिन रात काम चल रह है, और मज़दूर की फ़िक्र किसी को है नहीं।
पुराने कारीगरों के अनुसार 1992 में सीटू के नेतृत्व में टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल हुई जो 20-25 दिन तक चली थी उस हड़ताल में मज़दूरों की हार हुई और इसके बाद में मालिकों ने हमला करना शुरू कर दिया। सबसे पहले मन्दी का बहाना बनाकर पीस रेट 2 रुपए कम कर दिया। तय किया गया 8.33 प्रतिशत बोनस भी धीरे-धीरे बन्द कर दिया। उस हड़ताल में 70 प्रतिशत पंजाबी कारीगर थे जिनमें से बहुतेरों को मालिकों ने निकाल दिया। कई ने काम की ख़राब स्थितियों के चलते काम छोड़ कर अन्य काम पकड़ लिया। अब बहुत कम स्थानीय मज़दूर इस लाइन में काम कर रहे हैं।
इस तरह पावरलूम मज़दूरों की हालत दिन-ब-दिन बद से बदतर होती जा रही है। उनमें एकता का अभाव चिन्ता पैदा करता है। पूँजीपति मज़दूरों में एकता न होने का पूरा-पूरा फ़ायदा उठा रहे हैं। पावरलूम मज़दूरों को अपनी परिस्थितियों को सुधारने के लिए एकता बनाने की तरफ़ क़दम उठाने ही होंगे। आज नहीं तो कल उन्हें इस बारे में सोचना ही होगा।
बिगुल, सितम्बर 2009
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