केजरीवाल की आर्थिक नीति: जनता के नेता की बौद्धिक कंगाली या जोंकों के सेवक की चालाकी
पिछले कुछ समय से भारत के राजनीतिक तमाशे में एक नया मदारी हाज़िर हुआ है और काफ़ी चर्चा में है। मज़दूर बिगुल के पिछले अंकों में पाठक उसके उभार, उसके सामाजिक आधार, उसकी विचारधारा के तत्व और उसके सम्भावित भविष्य की चर्चा पढ़ चुके हैं, लेकिन तब से लेकर इस तमाशे में काफ़ी कुछ घट चुका है, कई नाटकीय मोड़ आ चुके हैं जैसेकि ठेकाप्रथा बन्द करने के वायदे को पूरा करवाने के लिए इकट्ठा हुए अध्यापकों को धमकी देना, डी.टी.सी. के हड़ताल पर बैठे ड्राइवरों, कण्डक्टरों की तरफ़ से केजरीवाल को भगाया जाना, 6 फ़रवरी को दिल्ली सचिवालय पर इकट्ठा हुए मज़दूरों को यह कहकर साफ़ मना करना कि “हमें मालिकों, ठेकेदारों के हितों का भी ख़्याल रखना है”, अन्य पार्टियों की तरह वोट बटोरने के लिए धर्म और जाति का इस्तेमाल करना, खाप पंचायतों की सरेआम तरफ़दारी करना, 700 लीटर पानी और 50 फ़ीसदी बिजली बिल कटौती के “पूरे” किये वायदों की पोल खुलना, दिल्ली में भ्रष्टाचार कम होने का झूठ बोलना और फिर सच्चाई सामने आने पर माफ़ी माँगना आदि।
यहाँ हम इन घटनाओं के विस्तार में न जाते हुए सिर्फ़ केजरीवाल के आर्थिक एजंडे पर ही केन्द्रित करेंगे। कारण यह है कि आर्थिक पहलू (उत्पादन प्रक्रिया और वितरण) ही समाज की बुनियाद होती है जो राजनीति समेत अन्य प्रचलनों को तय या प्रभावित करती है। केजरीवाल का मुख्य गुण ईमानदारी बताया जाता है लेकिन यह कथित ईमानदारी किसके प्रति है? सही-ग़लत का फ़ैसला सिर्फ़ ईमानदारी से नहीं बल्कि इस बात से होगा कि यह ईमानदारी समाज के किन लोगों के हित में है। यहाँ हम इसी बात की पड़ताल करेंगे कि उनका आर्थिक एजेंडा समाज के किन लोगों के हित में है। केजरीवाल और ‘आप’ पार्टी के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझते हुए हम उनके केन्द्रीय नुक़्ते भ्रष्टाचार की चर्चा भी करेंगे।
केजरीवाल की आर्थिक नीति “पंजाबी ट्रिब्यून” में छपे उनके इंटरव्यू, दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़े के बाद कुछ टीवी चैनलों पर आये इंटरव्यू और भारतीय पूँजीपतियों के संगठन सी.आई.आई. में दिये गये भाषण से पता चलती है। ‘ट्रिब्यून’ अख़बार में छपी बातचीत में केजरीवाल कहते हैं, “हमें निजी व्यापार को बढ़ावा देना होगा।… सरकार का व्यापारिक क्षेत्र में कोई काम नहीं।… हम व्यापार से नियमों की बन्दिशें हटायेंगे।… हम व्यापार के लिए ज़रूरी सारी सहूलियतें मुहैया करायंगे।” (पंजाबी ट्रिब्यून, 10 फ़रवरी, 2014)। इसी तरह सी.एन.एन.-आई.बी.एन. चैनल पर आयी बातचीत में उन्होंने कहा, “हम ईमानदार कम्पनी लायेंगे, ईमानदारी से काम करो, जायज़ मुनाफ़ा कमाओ। हम तुम्हारे साथ हैं।” 17 फ़रवरी को पूँजीपतियों के राष्ट्रीय संगठन सी.आई.आई. में दिये गये भाषण में तो वह और भी खुलकर पूँजीपतियों के पक्ष में खड़े दिखायी दिये। यहाँ उन्होंने कहा, “आप देश के लिए धन-दौलत पैदा कर रहे हैं। आप देश के लिए रोज़गार पैदा कर रहे हैं।… हम आपके साथ हैं।… सरकार का काम व्यापार के लिए सुरक्षित माहौल देना है।… हम पूँजीवाद के खि़लाफ़ नहीं, ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ (भ्रष्ट पूँजीवाद) के खि़लाफ़ हैं।… इंस्पेक्टर राज ख़त्म करना पड़ेगा। एक छोटा-सा इंस्पेक्टर पूँजीपति को डराकर चला जाता है। एक छोटी-सी दूकान पर भी 31 इंस्पेक्टर आते हैं।”
केजरीवाल के बयानों का असली मतलब समझने के लिए हमें समाज के विज्ञान, उत्पादन के विज्ञान, राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना पड़ेगा। यहाँ हम इसकी संक्षिप्त चर्चा करेंगे। अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए मनुष्य प्रकृति में मौजूद संसाधनों पर श्रम करके ज़रूरी चीज़ों का उत्पादन करता है। यही समाज की बुनियाद बनता है। श्रम करने के दौरान मनुष्य एक-दूसरे के साथ उत्पादन सम्बन्धों (या श्रम सम्बन्धों) में बँधते हैं। अगर सभी व्यक्ति श्रम करते हैं तो श्रम सम्बन्धों में बराबरी होगी। लेकिन अगर सिर्फ़ कुछ व्यक्ति श्रम करते हैं और अन्य कोई श्रम नहीं करते तो श्रम सम्बन्ध श्रम की लूट पर टिके होंगे। जो वर्ग श्रम नहीं करता वह ज़मीन और उत्पादन के अन्य सभी संसाधनों (जैसे कारख़ाने, खदानें आदि) पर अपना निजी मालिकाना क़ायम करता है। मेहनतकश वर्ग उत्पादन के साधनों से वंचित रहता है। इस तरह इतिहास में पहले वर्ग ग़ुलाम और ग़ुलाम-मालिकों के थे और आज ये वर्ग पूँजीपति और मज़दूर हैं। मुख्यतः पूँजीपति और मज़दूर वर्ग में बँटे इस सामाजिक ढाँचे को पूँजीवादी ढाँचा कहते हैं। पूँजीवाद में उत्पादन के साधन जैसे ज़मीन, फैक्ट्रियाँ, खदानें आदि पूँजीपति के कब्ज़े में होती हैं और मज़दूर उन पर अपने श्रम से उत्पादन करता है। निजी मालिकाने के कारण सारा उत्पादन पूँजीपति हड़प जाता है और बदले में मज़दूर को सिर्फ़ ज़िन्दा रहने लायक मज़दूरी मिलती है। मज़दूर के उत्पादन को पूँजीपति द्वारा हड़प लेना ही बुनियादी लूट है, यही बुनियादी भ्रष्टाचार है। मगर इस व्यवस्था में यह लूट पूरी तरह क़ानूनी मानी जाती है। इसी को केजरीवाल “ईमानदारी से जायज़ मुनाफ़ा कमाना” कहते हैं। वास्तव में पूँजीवाद अपनेआप में ही भ्रष्टाचार है।
अब जरा राज्य सत्ता को समझने की कोशिश करते हैं। सत्ता असल में समाज में मौजूद दो वर्गों के टकराव की ही उपज है। यह एक वर्ग की तरफ़ से दूसरे वर्ग का दमन करने और लूट के तन्त्र को सुरक्षित रखने का ही एक औज़ार है। सरकार, पुलिस, सेना, क़ानून, जेलें और अदालतें राज्य सत्ता का ही अंग हैं। राज्य सत्ता पर भी उसी वर्ग का नियन्त्रण होता है जो उत्पादन के संसाधनों पर काबिज़ है – यानी पूँजीपति वर्ग का। पूँजीवाद में सत्ता मुट्ठीभर पूँजीपति वर्ग की तरफ़ से विशाल संख्या वाले मज़दूर वर्ग को लूटने और दबाने का हथियार होती है। लेकिन यह सत्ता सिर्फ़ दमन के हथियारों से टिकी नहीं रह सकती। इसके लिए सत्ता को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि यह दोनों वर्गों के टकराव से ऊपर और निष्पक्ष हो। तरह-तरह के क़ानूनों, काग़ज़ी संविधान, संसद और न्यायपालिका आदि के ज़रिये जनतन्त्र का दिखावा खड़ा किया जाता है। लोगों को विश्वास दिलाया जाता है कि सरकार का जनता के द्वारा “चुनाव” हो रहा है। इस तरह राज्यसत्ता जनता को भ्रम में डालकर उनकी “सहमति” हासिल करके अपनेआप को क़ायम रखती है और इस तरह वर्गों के टकराव को शान्त करने की कोशिश करती है। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिण्ट मीडिया और शिक्षा-संस्कृति आदि के ज़रिये शासक वर्ग अपने विचारों को जनता के दिलो-दिमाग़ में बैठाने में लगे रहते हैं। वास्तव में, राज्य सत्ता (या सरकार) कत्तई निष्पक्ष नहीं, बल्कि पक्षपाती होती है। सरकार असल में पूँजीपतियों की ही प्रबन्धक कमेटी होती है जो पूँजीपतियों के हितों के अनुसार क़ानून बनाती है, उनकी लूट को जायज़ ठहराती है और शोषित लोगों के आक्रोश से उसे सुरक्षित रखती है। अपने राज्य के प्रबन्ध को चलाने के लिए यह अलग-अलग प्रशासनिक ढाँचे खड़े करती है जिनको चलाने के लिए नौकरशाही की ज़रूरत पड़ती है।
उत्पादन की प्रक्रिया और राज्य सत्ता को समझने के बाद अब हम भ्रष्टाचार के मुद्दे को भी समझ सकते हैं जिसकी केजरीवाल हमेशा तोते की तरह रट लगाये रहते हैं। पूँजीपति (मालिक) की तरफ़ से मज़दूर द्वारा पैदा की गयी चीज़ों (दौलत) पर कब्ज़ा कर लेना बुनियादी भ्रष्टाचार है लेकिन इस पर तरह-तरह से पर्दे डाल दिये जाते हैं। सिर्फ़ नौकरशाही ढाँचे में होने वाले हेराफेरी को ही भ्रष्टाचार कह दिया जाता है। केजरीवाल (या अन्ना हजारे, रामदेव जैसा कोई और “समाज सुधारक”) जब भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो वह सिर्फ़ नौकरशाही की तरफ़ से किये जा रहे इस भ्रष्टाचार की ही बात करते हैं, बुनियादी भ्रष्टाचार की नहीं। नौकरशाही में हो रहा भ्रष्टाचार असल में पूँजीपति द्वारा की गयी लूट का उसके हिस्सेदारों, हिमायतियों में बाँटने का झगड़ा है। यह ठगों की तरफ़ से लूटे गये माल की आपसी बाँट का झगड़ा है। नौकरशाही एक ऐसी बुराई है जो पूँजीवादी व्यवस्था की मजबूरी है, इसको अपना प्रबन्ध चलाने के लिए इनको रिश्वत के रूप में मोटी तनख़्वाहें देनी पड़ती हैं। लेकिन यह नौकरशाही हर समय उनके इशारों पर नहीं चलती बल्कि अपने निजी स्वार्थ के मुताबिक़ भी चलती है, क्योंकि पूँजीवाद में निजी हित प्रधान होते हैं न कि समूह; मुनाफा प्रधान होता है न कि जनता की ज़रूरत। इसलिए नेताओं और अफ़सरों को जहाँ भी मौक़ा मिलता है, ये रिश्वत और कमीशन झपटने से नहीं रुकते। नौकरशाही के भ्रष्टाचार से जनता ही नहीं, ख़ुद पूँजीवादी सत्ता भी परेशान होती है, क्योंकि यह ढाँचे को उस तरह नहीं चलने देते जैसे वे चाहते हैं। उन्हें लूट के माल में से एक हिस्सा मंत्रियों-संत्रियों-अफ़सरों को देना पड़ता है। दूसरे, जनता का असन्तोष शान्त रखने के लिए यह व्यवस्था भीख के टुकड़ों के तौर पर जो कुछ “कल्याणकारी योजनाएँ” बनाती है उसका लाभ भी नेताशाही-नौकरशाही जनता तक पहुँचने ही नहीं देती। इससे पूरी व्यवस्था के प्रति जनता में आक्रोश और नफ़रत भड़कती है। इस लिए नौकरशाही पूँजीवाद के लिए अटल बुराई है और इसलिए नौकरशाही में भ्रष्टाचार भी अटल है, इसको तब तक ख़त्म नहीं किया जा सकता जबतक नौकरशाही रहेगी या अधिक सटीक शब्दों में कहा जाये, जब तक पूँजीवाद रहेगा। अगर पूँजीवादी व्यवस्था में इस बुराई (नौकरशाही के भ्रष्टाचार) से छुटकारा पाना सम्भव होता तो पूँजीवादी सत्ता केजरीवाल जैसे मदारियों और लोकपाल बिल जैसे ढकोसलों के बिना ही बहुत पहले ऐसा कर चुकी होती ।
असल में पूँजीवाद के बौद्धिक चाकर अक्सर ही इधर-उधर की चीज़ों को मुद्दा बनाकर सामाजिक समस्याओं और लूट के असली कारणों पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं। वे उन मुद्दों को लेते हैं जिनसे जनता परेशान हो लेकिन जिनसे समस्त पूँजीवादी ढाँचे पर चोट न पड़ती हो, और फिर उन मुद्दों को ही सारी समस्याओं की जड़ बताकर जनता का पूरा ध्यान तथा गुस्सा उन पर मोड़ देते हैं। बढ़ती आबादी को सारी समस्याओं का कारण बताना, या एक धर्म, संप्रदाय, देश, क़ौम या जाति के लोगों को समस्याओं का कारण बताने का फासीवादी ढंग भी इसी साज़िश का ही हिस्सा है। इसी तरह भ्रष्टाचार (जिससे लोग परेशान भी हैं) को ही सभी समस्याओं का कारण बताया जाता है। भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाना और उसके खि़लाफ़ “आन्दोलन” खड़ा करने का काम ख़ास तौर पर 1990 के दशक से ही सचेत रूप में शुरू हुआ। नौकरशाही के अन्दर के भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से ‘पारदर्शिता कोष’ बनाया गया जिसमें कई देशों की सरकारों ने धन डाला है। यह मामला तब और स्पष्ट हो जाता है जब पता लगता है कि इस कोष को विश्व बैंक के अलावा फोर्ड फाउंडेशन और राकफेलर जैसे कई पूँजीवादी घराने भारी आर्थिक सहायता देते हैं। अरबों डॉलर की इस राशि की मदद से भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाने वाली फ्ग़ैर-सरकारी संस्थाएं” (एन.जी.ओ.) खड़ी की गयीं। इसी के तहत भारत में ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मुहिम शुरू हुई जिसको विश्व बैंक समेत कई बड़े पूँजीपति घरानों की तरफ़ से मदद हासिल थी। इसी संस्था के माध्यम से केजरीवाल ने राजनीति के मंच पर छलाँग मारने की शुरुआत की थी। वैसे यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि जब यह पारदर्शिता कोष क़ायम किया गया तब केजरीवाल भी अमेरिका में थे।
इस पृष्ठभूमि में केजरीवाल के विचारों को समझा जा सकता है। जब केजरीवाल कहते हैं कि “हमें निजी व्यापार को बढ़ावा देना होगा” तो इसका मतलब होता है कि हमें पूँजीपतियों की लूट को बढ़ावा देना होगा, उनको और खुली छूट देनी पड़ेगी। जब वह कहते हैं कि “सरकार का काम व्यापार के लिए सुरक्षित माहौल देना है” तो वह किन लोगों से सुरक्षा की बात करते हैं? उनका मतलब है इस कारोबार में लूटे जा रहे मेहनतकश लोगों की तरफ़ से इस लूट के खि़लाफ़ और अपने अधिकारों के लिए लड़े जा रहे संघर्षों से सुरक्षा, “कारोबार” शुरू करने के लिए ज़मीनों से बेदखल किये जा रहे किसानों के विद्रोहों से सुरक्षा। केजरीवाल का कहना है कि पूँजीपति ही दौलत और रोज़गार पैदा करते हैं। लेकिन अगर समाज के विज्ञान को समझें तो पूँजीपति नहीं बल्कि श्रम करने वाले लोग हैं जो दौलत पैदा करते हैं, पूँजीपति तो उनकी पैदा की हुई दौलत को हड़प जाते हैं। इसी तरह पूँजीपति रोज़गार देकर लोगों को नहीं पाल रहे, बल्कि वास्तव में मज़दूर वर्ग इन परजीवियों को जिला रहा है। इसी तरह जब केजरीवाल अपने बयानों में “ईमानदारी” का रोना रोते हैं (“ईमानदारी से काम करो, जायज़ मुनाफ़ा कमाओ”) या भ्रष्टाचार का शोर मचाते हैं तो उसका साफ़ मतलब है कि मेहनतकश लोगों की लूट के माल को ईमानदारी से आपस में बाँट लो, जिसका जितना हक़ बनता है वह उतना ही ले, उससे अधिक लेने के लिए आपस में न झगड़ो। एक तरफ़ वह निजी व्यापार को प्रोत्साहित करने, पूँजीवाद का विकास करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ़ भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की बात करते हैं। ये दोनों अन्तरविरोधी बातें हैं, क्योंकि पूँजीवाद अपनेआप में भ्रष्टाचार है, पूँजीवाद के अन्त के बिना भ्रष्टाचार का अन्त असम्भव है।
अलग-अलग मंचों से सामने आयी केजरीवाल की आर्थिक नीति का असल तत्व यह है कि देशी-विदेशी पूँजी द्वारा मेहनतकश लोगों की लूट के रास्ते में से हर तरह की रुकावटें हटा दी जायें। मज़दूरों के ख़ून-पसीने की एक-एक बूँद निचोड़ने के लिए आतुर लुटेरे, मुनाफ़ाख़ोर परजीवी पूँजीपतियों को केजरीवाल की बातें ऐसी लग रहीं हैं – “ओ मेरे साथियो! अब कांग्रेस, भाजपा या कोई अन्य पार्टी तुम्हारी बढिया ढंग से सेवा नहीं कर सकती! और पार्टियाँ तुम्हारी सेवा करते-करते लोगों में बहुत बदनाम हो चुकी हैं, इसलिए हमारी सेवाओं का लाभ उठाओ। हम पूरे मुस्तैदी, ईमानदारी और जोश से तुम्हारी सेवा करेंगे।”
व्यापार को प्रोत्साहित करना, कारोबार में सरकारी दखल बन्द करना, “इंस्पेक्टर राज” ख़त्म करना आदि वही बातें हैं जिनके लिए विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि और भारत के तमाम पूँजीपति लम्बे समय से शोर मचाते रहे हैं। इसका मतलब नवउदारवादी नीतियों (निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण) को पूरे ज़ोर-शोर से लागू करना है, क्योंकि यही नीतियाँ आज भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत है। केजरीवाल के ये बयान असल में पूँजीपति वर्ग को “पटाने”, अपनेआप को उनका वफ़ादार साबित करने की कोशिशों का हिस्सा है। वह बताना चाहता है कि वह इक्का-दुक्का पूँजीपतियों (जैसे कि अंबानी) का ज़ुबानी विरोध करने के बावजूद पूरे पूँजीपति वर्ग के विरोध में नहीं है बल्कि उनका सच्चा सेवक है। आज नवउदारवादी नीतियों को ज़ोर-शोर से लागू करना भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत है। इसीलिए पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से ने नरेन्द्र मोदी पर दाँव लगा रखा है क्योंकि वह वादा कर रहा है कि डण्डे के ज़ोर पर, मेहनतकशों को दबा-कुचलकर जनता को निचोड़ डालने के रास्ते की हर बाधा को वह दूर कर देगा। उसका तथाकथित “गुजरात मॉडल” वास्तव में और कुछ भी नहीं है। लेकिन इस विकल्प के अपने ख़तरे भी हैं। शासक वर्ग भी जानते हैं कि अन्धाधुन्ध लूट और दमन मेहनतकशों के ग़ुस्से के विस्फोट के हालात पैदा कर सकता है। दुनिया के कई देशों में जनता के उग्र आन्दोलनों को देखकर भी वे आशंकित हैं। इसीलिए पूँजीपतियों का एक हिस्सा केजरीवाल के विकल्प को भी खुला रखने के पक्ष में है। केजरीवाल ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह नवउदारवादी नीतियों को लागू करने में कांग्रेस या भाजपा से पीछे नहीं रहने वाला, बशर्ते भारतीय पूँजीपति उसे इस “सेवा” का मौक़ा दें।
भारत में विदेशी निवेश के मसले पर भी केजरीवाल ने अपना स्टैंड बदल लिया है। दिल्ली में सरकार बनाने के समय दिल्ली में खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर रोक लगाने की बात करने वाले केजरीवाल का आजकल कहना है कि वह “किसी भी तरह की देशी या विदेशी पूँजी के ख़िलाफ़ नहीं है” और “परचून के क्षेत्र में विदेशी निवेश के मामले पर हम गहराई में विचार कर रहे हैं।” पिछले ढाई दशक से मेहनतकशों के अधिकारों में कटौती तथा श्रम क़ानूनों को पूँजी के पक्ष में बदलने का सिलसिला जारी है। केजरीवाल भी यही कह रहा है कि “इन्स्पेक्टर राज ख़त्म होना चाहिए जो कारख़ाना मालिकों को डराते हैं। एक छोटी-सी दुकान पर भी 31 इन्स्पेक्टर आते हैं।” ध्यान देने वाली बात यह है कि श्रम विभाग में कर्मचारियों की संख्या तो पहले ही कम की जा रही है। अकेले लुधियाना में ही जहाँ पर हज़ारों छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ हैं जिनमें दसियों लाख मज़दूर काम करते हैं, श्रम विभाग में केवल 25-30 मुलाज़िम बचे हैं। 2002 के सरकारी आँकड़े के हिसाब से ही अगर इन्स्पेक्टर ईमानदारी से निरीक्षण करने लगें तो हर फ़ैक्टरी की बारी पाँच साल में एक बार आयेगी! आज तो यह आँकड़ा दस साल में एक बार तक पहुँच गया होगा। इस तरह साफ़ है कि एक छोटी दुकान पर 31 इन्स्पेक्टर आने का कितना बड़ा झूठ बोला जा रहा है। यह भी सब जानते हैं कि ये इन्स्पेक्टर उद्योगपतियों को कितना “डराते” हैं! वैसे “आप” सरकार को अगर मौक़ा मिला तो वह इन नीतियों को कैसी “ईमानदारी” से लागू करेगी, इसकी एक झलक दिल्ली में उनके श्रम मन्त्री गिरीश सोनी दिखा ही चुके हैं, जिसकी ख़ुद की चमड़े की फ़ैक्टरी में न्यूनतम वेतन, आठ घण्टे काम सहित कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं हो रहे थे।
केजरीवाल किन लोगों के पक्ष में खड़े हैं, यह बात इसी से साफ़ हो जाती है कि अपने बयानों में उन्होंने भारत के मेहनतकश लोगों के पक्ष में एक शब्द नहीं बोला है, मेहनतकशों को लूटने वाले उद्योगपतियों को एक भी फटकार नहीं लगायी है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक देश के उद्योगों में काम करने वाले 93 प्रतिशत मज़दूर बुनियादी अधिकारों से भी वंचित हैं। न्यूनतम वेतन, आठ घण्टे काम, बोनस, ई.एस.आई., डबल रेट से ओवरटाइम, दुर्घटनाओं एवं बीमारियों से सुरक्षा के प्रबन्ध तथा मुआवज़ा, साप्ताहिक तथा अन्य छुट्टियाँ, पहचान पत्र जैसे मूल अधिकार भी छोटे-बड़े पूँजीपति लागू नहीं करते। मज़दूर 12-12, 14-14 घण्टे हाड़तोड़ मेहनत करने के लिए मजबूर हैं। मगर बेशर्मी की सभी हदें पार करते हुए इन कामचोर पूँजीपतियों के बारे में केजरीवाल फ़रमाते हैं कि वे 24-24 घण्टे काम करते हैं और ईमानदार लोग हैं! भारतीय पूँजीपतियों की मण्डली के आगे अपने भाषण में भावुक होकर वह बोल गया कि “दिल्ली में एक ऐसा औद्योगिक क्षेत्र भी है जहाँ पर न बिजली है, न पानी है, न सड़कें हैं, पता नहीं वहाँ उद्योगपति कैसे काम चला रहे हैं?” मगर दिल्ली सहित पूरे भारत में बिन बिजली, पानी, सड़कों के रहने वाले करोड़ों लोगों की बात करते हुए उसे मोतियाबिन्द उतर आता है। “आम आदमी” का पक्षधर कहलाने वाले केजरीवाल की आर्थिक नीति में इसका भी कोई ज़िक्र नहीं आता कि भारत के करोड़ों मेहनतकश लोगों को स्वास्थ्य सुविधा देना, हर बच्चे की शिक्षा का प्रबन्ध करना तथा हर काम करने योग्य आदमी के लिए रोज़गार का प्रबन्ध करना सरकार का काम है और उसके पास इसके लिए क्या नीति है। उसका सिर्फ़ यही कहना है कि सरकार को व्यापार नहीं करना चाहिए, उसका काम निजी व्यापार को सुरक्षा का माहौल देना है और पूँजीपति ही रोज़गार देने का काम करेंगे। मतलब कि शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र का भी पूर्ण निजीकरण हो जाना चाहिए।
मगर सवाल उठता है कि विकल्प क्या है? भाजपा तथा कांग्रेस जैसी पार्टियों से लोग तंग आ चुके हैं और उनकी असलियत अब सबको पता है। इसलिए बहुत से लोग “आप” को एक विकल्प के रूप में देख रहे हैं। लोगों में इस बात को लेकर जाना ज़रूरी है कि खोखली नारेबाज़ी के बावजूद केजरीवाल वास्तव में भाजपा तथा कांग्रेस जैसे राजनीतिक मदारियों से अलग नहीं है। इससे आगे यह बताने की ज़रूरत है कि “आप,” भाजपा, कांग्रेस या फिर लाल चोंच वाले संसदमार्गी वामपन्थी तोते ही नहीं, बल्कि यह समूची चुनावी व्यवस्था लोगों को कुछ नहीं दे सकती, लोग चाहे किसी को भी वोट दें, उनकी हालत सुधरने वाली नहीं है। नंगी लूट, शोषण, दमन, अत्याचार और भ्रष्टाचार से सच्ची मुक्ति तभी होगी जब मेहनतकश अवाम संगठित होकर अपनी पूरी ताकत इस पूँजीवादी ढाँचे को तबाह करने में लगाये और एक समाजवादी व्यवस्था खड़ी करे। ऐसी व्यवस्था में उत्पादन के संसाधनों के मालिक मुट्ठीभर लोग नहीं होंगे बल्कि उन पर पूरे समाज का नियन्त्रण होगा और उत्पादन का वितरण भी समाज के हाथों में होगा। उत्पादन मुट्ठीभर लोगों के मुनाफ़े को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि समाज की ज़रूरतों के हिसाब से होगा। राज्य सत्ता थोड़े-से मालिकों द्वारा बहुसंख्यक जनता को दबाने का साधन नहीं होगी, बल्कि यह ताक़त बहुसंख्या के हाथों में हो जिससे वह अपने खोये हुए “स्वर्ग” को वापस पाने के लिए नयी सामाजिक व्यवस्था को तबाह करने के पूँजीपति वर्ग के मंसूबों को नाकाम कर सके। इस बुनियाद से मानवता ऐसे समाज की दिशा में आगे क़दम बढ़ायेगी जहाँ वर्गों का अस्तित्व ख़त्म हो जायेगा, मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण ख़त्म हो जायेगा तथा दमन के एक साधन के रूप में राज्य की ज़रूरत ही नहीं रहेगी। आज मेहनतकश लोगों की मुक्ति ऐसा समाज निर्मित करने की कोशिशों से ही सम्भव है जिसके बारे में केजरीवाल भी अच्छी तरह से जानते हैं और इसीलिए बड़े स्पष्ट शब्दों यह बोलते हुए भाग खड़े होते हैं – “यह कुत्सा प्रचार है कि हम समाजवादी हैं और हर चीज़ का राष्ट्रीकरण कर देंगे।”
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2014
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन