अमानवीय शोषण-उत्पीड़न के शिकार तमिलनाडु के भट्ठा मज़दूर
नमिता
पूरी मानव सभ्यता एक तरफ़ जहाँ उन्नति के शिखर पर पहुँच चुकी है, वहीं दूसरी तरफ़ इसे शिखर पर पहुँचाने वाली आबादी का जीवन लगातार रसातल की ओर जा रहा है। आपने बड़े-बड़े पाँच सितारा होटलों, जगमगाते मॉलों, अस्पतालों, गगनचुम्बी इमारतों को तो देखा होगा, लेकिन क्या आपने इन इमारतों में लगी ईंटों को बनाने वाले उन ईंट-भट्ठा मज़दूरों के बारे में कभी सोचा है कि वे किन हालात में रहते और काम करते हैं?
तमिलनाडु राज्य में लाखों ईंट-भट्ठा मज़दूर (जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं) भयंकर शोषण-उत्पीड़न के शिकार हैं। हर ईंट शोषण-उत्पीड़न की एक कहानी सुनाती है। निहायत एकरस, बोझिल लेकिन कठिन हालात में उन्हें 12 से 16 घण्टे रोज़ाना काम करना पड़ता है। उन्हें मज़दूरी भी कम ही दी जाती है और बँधुआ मज़दूरों की एक पूरी पीढ़ी तैयार कर दी जाती है।
एक ग़ैर सरकारी संस्था की रिपोर्ट के अनुसार केवल तमिलनाडु में लगभग 2000 ईंट-भट्ठे हैं। इनके अलावा छोटे-छोटे सेक्टरों में हज़ारों यूनिटें काम करती हैं। इन भट्ठों में काम करने वाले लगभग 90 प्रतिशत मज़दूर दलित और अनुसूचित जातियों-जनजातियों से आते हैं, बाक़ी 10 प्रतिशत पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों से आते हैं। सबसे अधिक मज़दूर तिरूवल्लूर और कांचीपुरम ज़िलों के हैं।
भट्ठा मज़दूरों को एडवांस पेमेण्ट देकर मालिक ठेकेदार निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं ताकि मज़दूर काम छोड़कर जा न सकें और ऑफ सीजन के बाद इन मज़दूरों को दोबारा उसी भट्ठे पर काम करना पड़े। ईंट बनाने की सात चरणों की प्रक्रिया में कुशल मज़दूरों को पीस रेट के हिसाब से मेहनताना नहीं दिया जाता। ईंट बनाने का काम सात चरणों से होकर गुजरता है जिसमें कूटना, इकट्ठा करना, मिट्टी के साथ मिलान, ईंट के आकार में ढालना उसे भट्ठे तक पहुँचाना और फिर उसे पकाना शामिल हैं। एडवांस पेमेण्ट देकर मालिक और ठेकेदार मज़दूरों की आज़ादी छीन लेते हैं ताकि वे कहीं बेहतर हालात वाली जगह न चले जायें।
ईंट-भट्ठा यूनिट बहुत अधिक मुनाफ़ा कमाने वाला क्षेत्र है, जिसका फ़ायदा सिर्फ़ मालिकों और ठेकेदारों को मिलता है। लेकिन यहाँ काम करने वाले मज़दूरों की हालत किसी नर्क से कम नहीं है। जानवरों से भी बदतर हालात में काम करने को वे मजबूर हैं।
कम मज़दूरी देकर तथा दूसरी जगह उनका प्रवास (मोबिलिटी) सीमित करने के अलावा और बहुत से तरीक़ों से स्त्री-पुरुष दोनों ही मज़दूरों का शोषण किया जाता है। लेकिन वे मालिकों और ठेकेदारों के डर से अपनी दुरुह जीवन स्थिति किसी को बताने से हिचकते हैं। उनकी दुरुह जीवन स्थिति का अन्दाज़ा इन बातों से लगाया जा सकता है।
पी. सेल्वी नाम की स्त्री मज़दूर ने बताया कि वह 2006 से भट्ठा मज़दूरी का काम कर रही है। उसका बेटा भी उसी के साथ रहकर काम करता है। लेकिन मालिकों ने उसे गाँव के एक घर में 29 दिनों तक बन्द करके रखा क्योंकि उसने काम छोड़ने की कोशिश की। घर में ताला लगा दिया गया और शौचालय तक जाने के लिए वाचमैन की दया पर निर्भर रहना पड़ता था जिसके पास चाबी रहती थी।
तिरुवल्लूर ज़िले के एक गाँव के के. गोपी को, जो फरवरी, 2008 से बँधुआ मज़दूर है, तब भट्ठा मालिकों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा, जब उसने एक मज़दूर की आठ वर्ष की गुमशुदा बच्ची को ढूँढने में मदद की। उत्पीड़न की भयंकर घटनाओं में एक और एन. रंगास्वामी की कहानी है जो 50 वर्षीय मज़दूर है। उसे भट्ठा मालिकों ने बुरी तरह पीटा और जंजीरों से बाँधे रखा, सिर्फ़ इसलिए कि उसकी बेटी और दामाद ने अचानक काम छोड़ दिया।
कुछ जगहों पर तो मज़दूरों को बेहद छोटी-छोटी ग़लतियों पर लाठियों-डण्डों से बुरी तरह पीटा जाता है। महिला मज़दूरों से भी अभद्र-अश्लील व्यवहार किया जाता है। दूसरे मज़दूरों को डराने के लिए अनुशासन के नियम तोड़ने वाले मज़दूरों को भयंकर सजाएँ दी जाती हैं। जिन मज़दूरों को एडवांस भुगतान दिया जाता है, उन्हें रात में ताले में बन्द कर दिया जाता है ताकि वे भाग न सकें।
ये तो सिर्फ़ चन्द एक उदाहरण हैं जिनका मज़दूरों ने डरते-डरते ज़िक्र किया।
भट्ठा मज़दूर भयंकर कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए अभिशप्त हैं। बिना आराम दिये लम्बे- लम्बे समय तक उनसे कठिन काम लिया जाता है। मज़दूरों ने बताया कि ज़्यादातर ईंट चैम्बरों में 3 बजे दोपहर से काम शुरू होता है जो 7 बजे शाम तक चलता है। उसके बाद 6 घण्टे का ब्रेक होता है और ब्रेक के बाद रात 1 बजे से दुबारा काम शुरू होता है जो 10-30 बजे सुबह तक चलता है। चूँकि ईंट को सुखाने के लिए ज़्यादा समय तक धूप में रखने की ज़रूरत होती है इसलिए मज़दूर केवल दिन में ही सो पाते हैं। ईंट ढुलाई करने वाले मज़दूरों का यही रुटीन है। दिन में उन्हें सिर्फ़ ग्यारह बजे से दो बजे तक का समय मिलता है, जिसमें वे खाना बना सकते हैं। तीन बजे से फिर काम पर लग जाना होता है।
भट्ठों में काम करने वाले बाल मज़दूरों की स्थिति तो और भी भयंकर है। एक रिपोर्ट के अनुसार भट्ठों में 6 से 8 साल की उम्र के लगभग एक लाख बच्चे काम करते हैं। इसके अलावा लगभग 60,000 बच्चे ऐसे हैं, जो अपने माँ-बाप के साथ, कार्यस्थल पर जाकर उनका हाथ बँटाते हैं। इसमें से 80 प्रतिशत प्रवासी मज़दूरों के बच्चे हैं, जो स्कूल नहीं जा पाते।
ज़्यादातर बच्चों को ईंट सुखाने के लिए घरोनो में लगाने, टूटे-फूटे ईंटों को इकट्ठा करने और ईंटों को साँचे में ढालने के काम में लगाया जाता है। लेकिन उन्हें बहुत ही कम मज़दूरी दी जाती है। बच्चों की देखभाल की व्यवस्था न होने के कारण छोटे बच्चों को महिलाएँ कार्यस्थल पर ही ले आती हैं, जिनकी देखभाल थोड़े बड़े बच्चे ख़ासकर लड़कियाँ करती हैं।
ये मज़दूर 6*8 फ़ुट के सीलनभरे, बदबूदार, बन्द दड़बेनुमा कमरों में रहते हैं, जहाँ शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं होती। ब्रिक चैम्बर के पास कोई अस्पताल न होने के कारण मज़दूरों को ख़ासकर स्त्री मज़दूरों को काफ़ी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं।
पूँजीवादी समाज में एक मज़दूर की कीमत मशीन के कल-पुर्जे से ज़्यादा नहीं होती है। पूँजीपति उन्हें सिर्फ़ उतना ही देता है जिससे वे ज़िन्दा रह सकें और काम कर सकें, तथा बच्चों के रूप में ग़ुलामों की नयी पीढ़ी तैयार कर सकें।
कितना घिनौना मज़ाक़ है कि जो दूसरों के लिए घर बनाने का सामान मुहैया कराते हैं वे गन्दी झोंपड़ियों या दड़बेनुमा कमरों में रहते हैं। दूसरों के बच्चों के लिए स्कूल बनाते हैं लेकिन उनके ख़ुद के बच्चों ने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा, दूसरों को स्वास्थ्य सुविधाएँ मिल सकें इसके लिए वे अस्पताल बनाते हैं लेकिन इन मज़दूरों के लिए कोई अस्पताल नहीं है। वे सड़कों पर दम तोड़ देते हैं। वे कारख़ाने बनाते हैं जिनमें हज़ारों लोगों को रोज़गार मिलता है लेकिन ख़ुद स्थाई रोज़गार से वंचित रहते हैं।
तमिलनाडु के स्वास्थ्य विभाग के प्रेसीडेण्ट ने बताया कि प्रवासी मज़दूरों के ज़्यादातर बच्चे घातक बिमारियों की चपेट में हैं। लगातार धूप और गर्मी में रहने से त्वचा की एलर्जी, एलर्जिक ब्रोंकाईटिस तो आम बात है। गन्दे दूषित पानी से पैदा होने वाली पेट की बीमारियाँ हर तीसरे-चौथे बच्चे को पकड़े हुए हैं। पेचिश, पीलिया, दमा, टी.बी. जैसी बीमारियाँ बड़े पैमाने पर फैली हुई हैं। ज़्यादातर बच्चे कुपोषण और ख़ून की कमी से पीड़ित हैं।
एक ध्यान देने लायक बात और है कि भट्ठा मालिक अलग-अलग मज़दूरों को काम देने के बजाय उन मज़दूरों को काम पर रखने या एडवांस देने को प्राथमिकता देते हैं जो शादीशुदा हैं। इसीलिए कुछ जगहों पर लड़कियों की जल्दी शादियाँ कर दी जाती हैं।
लगभग 12 वर्ष की लड़की और 16 वर्ष के लड़के की शादी करा दी जाती है। चूँकि विवाहित जोड़ों को काम का मौक़ा ज़्यादा मिलता है इसलिए ज़्यादातर परिवार जो स्थानीय साहूकार के ऋणी हैं और भट्ठा मालिकों से अग्रिम एडवांस ले चुके हैं, वे बीमार होने या काम न कर सकने की स्थिति में अपने बच्चों को काम पर लगा देते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी बँधुआ मज़दूरी के दुश्चक्र में फँस जाते हैं।
कहने के लिए तो बहुत से क़ानून मज़दूरों की रक्षा के लिऐ बनाये गये हैं, जिनकी मदद से वे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सकते हैं, लेकिन ये क़ानून सिर्फ़ काग़ज़ी हैं। हालाँकि ज़्यादातर मज़दूर इन क़ानूनों से अनजान हैं लेकिन अगर वे जानते भी तो उनके पास न तो इतना पैसा है और न ही इतना समय कि वे कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगा सकें।
दिल्ली, बम्बई, पंजाब, तमिलनाडु, बंगाल से लेकर तमाम छोटे-बड़े शहरों में भट्ठा मज़दूर ग़ुलामों जैसी ज़िन्दगी बसर कर रहें हैं। भले ही आज वे चुप बैठे हैं लेकिन उनकी ज़िन्दगी के हालात उन्हें बग़ावत की और धकेल रहे हैं। जब भी देश में कोई व्यापक, संगठित मज़दूर आन्दोलन होगा, तो ये मज़दूर उनके साथ जुड़कर बड़ी ताक़त बन जायेंगे क्योंकि जिन मज़दूरों में बड़े-बड़े निर्माण करने की क्षमता है, उनमें लूट और अन्याय पर टिकी इस बर्बर, मानवद्रोही व्यवस्था को धूल में मिलाने की ताक़त भी है।
बिगुल, अगस्त 2009
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