जंगल की आग की तरह फैलती विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी करोड़ों मेहनतकशों के रोज़गार निगल चुकी है
पूँजीवाद के पास इस संकट से निकलने का कोई उपाय नहीं
सम्पादकीय
विश्व पूँजीवाद के तमाम सरगनाओं की हरचंद कोशिशों के बावजूद विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट गहराता ही चला जा रहा है। जंगल की आग की तरह फैलती मन्दी ने सच्चाई से मुँह चुराने और नकारने की उनकी तमाम कोशिशों को नाकाम कर दिया है और अब बड़े पूँजीवादी अर्थशास्त्री भी कहने लगे हैं कि यह 1930 के दशक से भी ज्यादा विकराल मन्दी हो सकती है। लेकिन इस मन्दी से उबरने की कोई भी राह उन्हें नहीं सूझ रही है। टैक्सों के रूप में जनता से उगाहे गये अरबों डालर की रकम पूँजीपतियों को बचाने के लिए खर्च करने के सिवा उनके पास और कोई नुस्खा नहीं है।
मसीहाई अन्दाज में सत्ता में आये अमेरिका के नये राष्ट्रपति बराक ओबामा का मीडिया द्वारा खड़ा किया गया जादू भी पहले दो हफ्तों में ही टाँय-टाँय फिस्स हो चुका है। 820 अरब डालर के उनके पैकेज की घोषणा को अभी से नाकाफी घोषित कर दिया गया है। गुजरे साल की आखिरी तिमाही में अमेरिकी अर्थव्यवस्था 3.8% प्रतिशत सिकुड़ गयी। पिछले 27 साल में अमेरिका का यह सबसे खराब आर्थिक प्रदर्शन था। इस साल इसकी हालत और भी खराब होने का अनुमान है। पिछले एक साल में अमेरिका में करीब 40 लाख लोगों की नौकरियाँ सिर्फ पिछले तीन महीने में चली गयीं। रोजगार छिनने की यह रफ़्तार इस साल और तेज होने का अनुमान है।। अनुमान के अनुसार अगले दो वर्षों में अमेरिका में करीब एक करोड़ 40 लाख लोगों के रोजगार छिन जायेंगे।
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि वर्ष 2009 के अन्त तक दुनिया भर में करीब 5 करोड़ 10 लाख लोगों की छँटनी कर दी जायेगी। जाहिर है वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक होगी क्योंकि दिहाड़ी पर, ठेके पर या अस्थायी कामगारों के रूप में काम करने वाली भारी आबादी के तो ठीक-ठीक आँकड़े ही नहीं रखे जाते हैं। छँटनी और बेरोजगारी का यह तूफान पूरी दुनिया में तबाही मचा रहा है। यूरोप से लेकर जापान तक, चीन से लेकर भारत तक – हर जगह रोज कम्पनियाँ छँटनी कर रही हैं, उत्पादन में कटौती कर रही हैं, ऑर्डर कैंसिल किये जा रहे हैं। चीन में बेरोजगारी की दर 30 प्रतिशत तक पहुँच गयी है।
भारत में सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद छँटनी का सिलसिला तेज होता जा रहा है। पिछले चार महीनों में 5 लाख नौकरियाँ खत्म होने की तो घोषणा की गयी है। लेकिन बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति इससे कहीं ज्यादा गम्भीर है। भारत में करीब 15 करोड़ आबादी को निर्यात क्षेत्र में रोजगार मिला हुआ है। विदेशों से माल के ऑर्डरों में लगातार कमी को देखते हुए अनुमान किया जा रहा है कि इस वर्ष के अन्त तक इसमें से एक करोड़ लोग बेरोजगार हो जायेंगे। जनवरी 2009 में निर्यात में लगभग 20 प्रतिशत की गिरावट आ गयी है। दूसरे औद्योगिक क्षेत्रों की हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं है। श्रम और रोजगार मंत्रलय के सर्वेक्षण के मुताबिक हाल के महीनों में आटोमोबाइल, परिवहन और खनन जैसे क्षेत्रों में ‘‘दसियों हजार’’ नौकरियाँ छिन गयी हैं। फिक्की के वरिष्ठ उपाध्याक्ष हरीश पति सिंघानिया का कहना है कि भारत में गम्भीर औद्योगिक संकट है और अभी इससे भी ज्यादा रोजगार खत्म हो सकते हैं।
हर पूँजीवादी संकट का सबसे सीधा असर छँटनी और बेरोजगारी बढ़ने के रूप में सामने आता है। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा ही बेरोजगारों की एक स्थायी ‘‘रिजर्व आर्मी’’ बनाये रखी जाती है ताकि पूँजीपति अपनी मर्जी से मजदूरी की दर तय कर सकें। लेकिन आर्थिक संकटों के दौर में यह सिलसिला और तेज हो जाता है। अपना मुनाफा बचाने के लिए पूँजीपति बेमुरौव्वती से मजदूरों की छँटनी कर देते हैं और बचे हुए मजदूरों को बुरी तरह निचोड़ते हैं। ऐसी स्थिति में जो आबादी बेरोजगारी से बची रह जायेगी उसे भी पहले से ज्यादा लूटा-खसोटा जायेगा, मजदूरों के रहे-सहे अधिकार भी छीन लिये जायेंगे। भारत और चीन जैसे देशों में तो पहले से ही तीन चौथाई से अधिक कामगार अस्थायी, ठेके या दिहाड़ी पर काम करते हैं जिन्हें किसी तरह की रोजगार सुरक्षा या बीमा, स्वास्थ्य सहायता जैसी न्यूनतम सुविधाएँ जो दूर, सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। बढ़ती मन्दी के दौर में इस भारी मेहनतकश की ही पीठ पर सबसे अधिक कोड़े बरसाये जायेंगे। निम्न मध्यवर्ग की भारी आबादी पर भी मन्दी का भारी असर होगा। पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ग के एक हिस्से को सेवा क्षेत्र में, सेल्स आदि में, निजी कम्पनियों के दफ़्तरों में जो छोटी-मोटी नौकरियां मिल जा रही थीं, उनमें तेजी से कमी आयेगी। खाते-पीते मध्य वर्ग के एक अच्छे-खासे हिस्से पर भी मन्दी की मार पड़ी रही है। आईटी सेक्टर की 50,000 नौकरियाँ आने वाले महीनों में चली जायेंगी। एक वर्ष के भीतर आईटी क्षेत्र में दस लाख रोजगार पैदा करने के दावे तो कबके हवा हो चुके हैं। मध्य वर्ग के जिस हिस्से को 21वीं सदी के सपने की अफीम चाटकर गुलाबी सपनों की दुनिया में ले जाया गया था उसे भी सच्चाई की कड़वी गोली जमीन पर ले आयेगी। इन गगनविहारियों की अक्ल भी जल्द ही ठिकाने आ जायेगी और उन्हें पता चल जायेगा कि उनकी नियति भी उन करोड़ों उजरती गुलामों की नियति से जुड़ी हुई है जिन्हें वे अब तक हिकारत की नज़र से देखा करते थे।
बढ़ती बेरोजगारी के साथ ही बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों की आसमान छूती महँगाई ने आम जनता की बदहाली और बढ़ा दी है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक क़ीमतों में कमी आ रही है लेकिन सच्चाई यह है कि खाने-पीने की चीज़ों से लेकर आम आदमी की जरूरत की हर चीज और महँगी हो गयी है। चुनाव को सामने देख, अभी तो सरकार ने पूरा ज़ोर लगाकर कुछ लगाम लगायी है, लेकिन आने वाले महीनों में ये हालात और भी भयावह होने वाले हैं। दूसरी ओर, जनता की यह बदहाली किसी भी पार्टी के लिए कोई मुद्दा नहीं है। सारी चुनावबाज़ पार्टियाँ जानती हैं कि सत्ता में आने पर उनके पास भी कोई और विकल्प नहीं होगा, उन्हें भी यही सबकुछ करना है। इसलिए, महँगाई, बेरोज़गारी, छँटनी कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। जनता को लुभाने-भरमाने के लिए इन पार्टियों के पास कोई नया नारा नहीं है।
आने वाले समय में जनता का असन्तोष आन्दोलनों के रूप में फूटेगा यह तय है, और ऐसे में सत्ता का और भी दमनकारी स्वरूप सामने आयेगा। नागरिक अधिकारों में और अधिक कटौती की जायेगी। आतंकवाद के नाम पर दो नये काले कानूनों से सरकार पहले ही खुद को लैस कर चुकी है। जनता के असन्तोष से ध्यान भटकाने के लिए अन्धराष्ट्रवाद की लहर और उभाड़ने की पूरी कोशिश की जायेगी। यह देशी शासकों के लिए भी मददगार होगी और पाकिस्तान के ज़रदारी-गिलानी के लिए भी।
चौतरफ़ा संकट के हालात में देश के भीतर जनता के आपसी संघर्ष भी तरह-तरह के मुद्दों पर फूटकर सामने आयेंगे। जब समाज के वास्तविक मुद्देों पर सही संघर्ष नहीं खड़े होते हैं तो जनता का असन्तोष और गुस्सा अनेक ग़ैर-मुद्दों पर फूट-फूटकर सामने आता ही है। शासक वर्ग अपने संकटों से ध्यान बँटाने के लिए जाति-धर्म-क्षेत्रीयता-भाषा जैसे सवालों पर लोगों की भावनाएँ भड़काने की पुरजोर कोशिश करते हैं।
ये हालात सच्चे क्रान्तिकारियों के सामने भी चुनौती पेश कर रहे हैं। उन्हें पूँजी की लूट से तबाह व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी प्रचार और भी तेज़ कर देना होगा, उन्हें यह समझाना होगा कि उनकी तमाम समस्याओं का कारण यह लुटेरी पूँजीवादी व्यवस्था है और अपने हक़ों के लिए कदम-ब-कदम लड़ते हुए समूची व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की तैयारी ही इस ग़ुलामी से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है। एक ओर “वामपंथी” आतंकवाद और दूसरी ओर चुनावी दलदल में धँसने का विरोध करते हुए उन्हें आम जनता को क्रान्तिकारी ढंग से संगठित करने की राह पर आगे बढ़ना होगा। साथ ही उन्हें दशकों से चली आ रही लकीर की फकीरी छोड़कर देश-दुनिया की परिस्थितियों में आये नये बदलावों को समझना होगा, और सही ढंग से सर्वहारा का क्रान्तिकारी हरावल दस्ता बनना होगा तथा पूँजीवादी-साम्राज्यवाद विरोधी नयी समाजवादी क्रान्ति का परचम थामकर आगे बढ़ना होगा।
बिगुल, फरवरी 2009
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