पूँजीवादी संकट और मज़दूर वर्ग
योगेन्द्र कुमार,आगरा
सन् 2008 में अमेरिकी पूँजी बाज़ार से शुरू हुई आर्थिक संकट की ‘सुनामी’ थमने का नाम नहीं ले रही है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था व उसका पूँजी बाज़ार पूरी तरह दिवालिया हो चुके हैं और वहाँ की लेहमन ब्रदर्स जैसी दिग्गज वित्तीय संस्थाओं के चारों खाने चित्त हो जाने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की चूलें हिल गयी हैं। लेकिन हमारे देश के वर्तमान डॉ. मनमोहन सिंह सरकार व देश के वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम तथा आर्थिक मामलों में महारत हासिल इनके आर्थिक सलाहकार और कारपोरेट हितों की पुरज़ोर हिमायत करने वाला समूचा मीडिया इतने बड़े सच संकट को सिरे से झुठलाते हुए इस बात का दम भर रहे हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था इस ‘आर्थिक सुनामी’ से प्रभावित नहीं होगी और हम इससे साफ़ बच जाएँगे। सरकार की इस कपोत वृत्ति का कोई इलाज नहीं है। पी. चिदम्बरम् भी पता नहीं किस आधार पर ‘ऐसोचम’ की इस बात से इंकार करते हैं कि विमानन, आई.टी., बी.पी.ओ., रीयल एस्टेट, सीमेण्ट आदि प्रमुख क्षेत्रों में 25 प्रतिशत छँटनी होगी। वे भी हवाई फतवे देते फिर रहे थे कि आर्थिक संकट के कारण नौकरियाँ कम नहीं होंगी बल्कि और बढ़ेंगी। इसी तर्ज़ पर देश के रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव चालू वित्त वर्ष (2008.09) में जी.डी.पी. वृद्धि दर 7.5 से 8.0 प्रतिशत के बीच रहने का अनुमान कर रहे हैं और कह रहे हैं कि देश वर्तमान वैश्विक संकट से कम प्रभावित होगा। जबकि आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण का विश्वव्यापी एजेण्डा ही ‘पूँजी का विश्वव्यापी निवेश’ करना है। मार्क्स बहुत पहले ही कह चुके हैं कि पूँजी का स्वरूप अन्तरराष्ट्रीय है। इसलिए अमेरीकी आर्थिक संकट से हम बच रहेंगे, कोरा झूठ है। पूँजीवादी प्रेस व समूचा दृश्य मीडिया, उसके आर्थिक विशेषज्ञ और शासक वर्ग के पेशेवर झाँसेबाज-पत्रकारों की फौज़ भी ‘अर्थव्यवस्था को स्वस्थ-दुरुस्त’ बताने की प्रतिस्पर्धा में एक दूसरे को मात देने की होड़़ में जमीन-आसमान एक किये दे रहे थे जबकि सच्चाई यह है कि निजी क्षेत्र की विमानन कम्पनियाँ जेट एयरवेज ने इसी आर्थिक मन्दी के चलते अपने पायलटों की छुट्टी कर डाली। किंगफिशर भी इसके नक्शेक़दम रही और सरकारी क्षेत्र की इण्डियन एयरलाइंस ने भी अपने 15 हज़ार कर्मचारियों को बिना वेतन के तीन से पाँच साल तक अवकाश पर भेजने या फिर वेतन कटौती जैसे छँटनी प्रोग्राम का एलान किया है। अमरीकी वित्तीय संस्था ‘सिटीग्रुप’ ने एक ही झटके में 50 हज़ार कर्मचारियों को निकाल बाहर कर डाला है। टाटा मोटर्स ने भी अपनी पश्चिम बंगाल स्थित औद्योगिक इकाई में उत्पादन बन्द करने का फ़ैसला कर लिया है और मज़दूरों को रोज़गार से हाथ धेना पड़ा है। इस सम्बन्ध में क़ाबिलेग़ौर तथ्य यह भी है कि अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सम्बन्धी अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुमानों पर आधरित अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के निदेशक जुआन सोमाविया का तो यहाँ तक कहना है कि सन 2009 के अन्त तक दुनिया के तक़रीबन दो करोड़ दस लाख लोग अपनी नौकरी से हाथ धो बैठेंगे।
आर्थिक संकट की इस स्थिति में वर्तमान सरकार आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र साफ़-साफ़ यह कैसे कहे कि आर्थिक संकट और गहरा होगा। सरकार की तरफ से आने वाले बयानों में ज़बरदस्त विरोधाभास साफ़ नज़र आता है। 21 नवम्बर 2008 को वाणिज्य सचिव, भारत सरकार का कहना है कि आगामी 5 महीने में टैक्सटाइल इंजीनियरिंग उद्योग की 5 लाख नौकरियाँ चली जायेंगी। ख़ुद श्रममंत्री की दिसम्बर 2008 की ‘सी.एन.बी.सी. आवाज़’ टी.वी. चैनल पर चलने वाली ख़बर यह कहती है कि अगस्त से अक्तूबर 08 तक देश में 65,500 लोगों की नौकरियाँ खत्म हुईं हैं। वाणिज्य सचिव आर्थिक मन्दी के कारण नौकरियाँ खत्म होने की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत सरकार के केबिनेट सचिव के.एम. चन्द्रशेखर छँटनी से साफ इन्कार करते हुए कहते हैं कि आर्थिक संकट से निबटने के लिए भारतीय कम्पनियों का मनोबल विदेशी कम्पनियों से ऊँचा है – “घबराइये मत, भारत में छँटनी नहीं होगीः कैबिनेट सचिव” (अमर उजाला, 2 दिसम्बर 2008)।
देश की अर्थव्यवस्था पर आये इस संकट की घड़ी में जब हमारा ख़ुद का रुख़ इतना ग़ैरज़िम्मेदार, बेग़ैरतभरा और आत्मघाती होगा, तब हम इस आर्थिक ‘सुनामी’ से बच कैसे सकते हैं! संकट को देखते हुए उसकी अनदेखी करना तो वैसी ही बात हुई कि जो सोया है उसे तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो सोने का बहाना किये है उसे कौन जगा सकता है? यह देश के बहुसंख्यक मेहनतकश वर्किंग क्लास को गुमराह कर उसे बेरोज़गारी की हालत में मरने के लिए छोड़ देना है। संकट की इस बुरी घड़ी में दुनिया के मज़दूर वर्ग को अपने असली दुश्मन-वर्तमान सरकारों व पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ एकजुट होकर प्रतिरोध खड़ा करते हुए उचित क़दम उठाना चाहिए। शासक वर्ग के इस ‘वर्किंग क्लास विरोधी’ विश्वव्यापी प्रपंच के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीय मुहिम छेड़ना समय का तकाज़ा है। इस नाजु़क समय में अपनी ऐतिहासिक भूमिका और महाशक्ति को एक बार फिर याद करें और पहचाने। पूँजीवाद का नाश ही दुनिया को बचा सकता है अन्यथा पूँजीवाद फिर एक बार पूरी दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध में झोंकने के सरंजाम जुटा रहा है। यह आर्थिक ‘सुनामी’ ख़तरे की घण्टी है।
सन 2008 का आर्थिक संकट सन् 1929 के संकट से भी गहरा, व्यापक और भयावह है। पूँजीवाद, दुनिया में आर्थिक विकास, तरक्की, ख़ुशहाली और समृद्धि के बड़े लम्बे चौड़े दावे करते नहीं थक रहा है। पूरी दुनिया का कायापलट यानी अमेरिकीकरण करने का दम ठोक रहा था पर आज इस पूँजीवाद के गुब्बारे की हवा फिर एक बार निकल गयी है। पूँजीवाद दुनिया के किसी मर्ज़ की दवा नहीं है, चूंकि शोषण, लूट, आत्महत्याएँ और युद्ध इसकी सौगात हैं जो मज़दूर वर्ग के हिस्से ही आती हैं।
वस्तुतः इस आर्थिक ‘सुनामी’ की जड़ शोषण, मुनाफ़ा और बाज़ार के लिए उत्पादन है, मानवीय ज़रूरतों के लिए नहीं। सन 1913 से पूँजीवाद अपनी पतनशीलता में दाख़िल हो चुका है। उसने दो-दो विश्व युद्ध झेले हैं। आई.एम.एफ ने अपनी रिपोर्ट में घोषणा की है कि सन 2009 के आरम्भ तक दुनिया के 50 देश ‘भुखमरी के शिकार’ देशों की सूची में शामिल हो जाएँगे। जिसमें अफ़्रीका, लातिन अमेरिका, कैरिबियन और एशिया के देश भी शामिल हैं।
बिगुल, जनवरी 2009
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