आतंकवाद से लड़ने के नाम पर दो नये काले क़ानून
आतंकवाद के बहाने जनता के अधिकारों पर हमला
जय पुष्प
मुम्बई में आतंकी हमले के बाद यह तय हो गया था कि यूपीए सरकार आतंकवाद विरोधी कठोर क़ानून बनाने के लिए जिस बहाने की तलाश कर रही थी वह उसके हाथ लग गया है। हिन्दूवादी संगठनों के आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने का खुलासा होने के बाद दूसरा कोई मुद्दा न होने के कारण यह भी तय था कि आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा आतंकवाद और राष्ट्रवाद के मुद्दे को जोरशोर से उभारेगी। गृहमंत्री शिवराज पाटिल की लचर कार्यशैली और वैश्विक आर्थिक मन्दी के हालात में बढ़ती महँगाई के कारण बैकफुट पर आ गयी कांग्रेस को वोटबैंक की राजनीति में नरम हिन्दू कार्ड खेलने का सुनहरा मौका हाथ लग गया। आनन-फ़ानन में सरकार ने आन्तरिक सुरक्षा सम्बन्धी दो क़ानून लोकसभा में पेश कर दिये और निठल्ली बहसबाजी के लिए मशहूर राष्ट्रीय संसद में तमाम जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी में आम नागरिक अधिकारों का गला घोंटने वाले दोनों क़ानून बिना किसी खास बहस-मुबाहसे के एकमत से पारित कर दिये गये।
पहला क़ानून गैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून, 1967 में संशोधन से सम्बन्धित है, जो आतंकवाद के आरोपियों पर मुकदमा चलाने की अबतक की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन करता है, आरोपियों को पुलिस हिरासत में रखने की अधिकतम अवधि 90 दिनों से बढ़ाकर 180 दिन कर देता है और कोई आरोप लगाये बिना सन्देह के आधार पर गिरफ़्तारी करने का अधिकार देता है। इसके अलावा यह क़ानून ज़मानत की प्रक्रिया को बहुत अधिक कठिन बनाता है और विदेशी नागरिकों को ज़मानत पाने के अधिकार से लगभग पूरी तरह वंचित करता है। दुनिया भर में मौजूद और सदियों से चली आ रही क़ानूनी परम्परा को धता बताकर कई मामलों में यह क़ानून किसी आरोपी को तबतक गुनाहगार मानता है जबतक कि वह अपनी बेगुनाही ख़ुद ही साबित न कर दे। इसके अलावा इस क़ानून ने जाँच एजेंसियों और पुलिस अधिकारियों के हाथ में ऐसे अधिकार दे दिये हैं जिनके दुरुपयोग की पूरी आशंका है। दूसरा क़ानून भी इसी से जुड़ा हुआ है और वह आतंकवाद और अन्य वैधानिक आरोपों की जाँच के लिए एक जाँच एजेंसी बनाने से सम्बन्धित राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) क़ानून है।
बेशक आतंकवादी गतिविधियों की निन्दा की जानी चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि क्या ऊपर से किये जाने वाले किसी प्रयास, जैसे कि कोई नया कानून बना देने से आतंकवाद को ख़त्म किया जा सकता है? आतंकवाद है क्या और इसके मूल कारण क्या हैं? क्या इन कारणों का हल किये बग़ैर किसी कानून, सेना, पुलिस आदि से आतंकवाद से निपटा जा सकता है?
टाडा और पोटा जैसे क़ानूनों का कहर झेल चुकी देश की जनता के सिर पर अब एक ऐसा क़ानून मढ़ दिया गया है जो कई मामलों में उनसे भी ज़्यादा ख़तरनाक़ है। उल्लेखनीय बात यह है कि इस भयानक क़ानून को अमली जामा पहनाने वाली पार्टी वही कांग्रेस पार्टी है जिसने दुरुपयोग का आरोप लगाकर पोटा को वापस लिया था। संसदीय वामपन्थियों, तथाकथित समाजवादियों और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों को भी इस पर कोई ऐतराज नहीं है।
ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून (यू.ए.पी.ए.) न सिर्फ़ पोटा जैसा ही है बल्कि वह पोटा के दायरे और प्रभाव को और व्यापक और गहरा बनाता है। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि पुलिस हिरासत में दिया गया इकबालिया बयान इस क़ानून में मान्य नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं को बेगुनाह सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी आरोपी की ही होगी। आतंकवादी गतिविधियों की परिभाषा अस्पष्ट है और यह सरकार की मर्ज़ी पर होगा कि वह किसे आतंकवादी गतिविधि मानती है और किसे नहीं। आतंकवादी संगठन का सदस्य किसे कहा जा सकता है यह भी स्पष्टतः परिभाषित नहीं है। इसके साथ ही यह क़ानून सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारियों को अनेक व्यापक अधिकार देता है। बिना किसी आरोप के किसी संदिग्ध व्यक्ति को न्यायालय में पेश करने से पहले हिरासत में रखने की न्यूनतम अवधि को 15 से बढ़ाकर 30 दिन और अधिकतम अवधि को 90 से बढ़ाकर 180 दिन कर दिया गया है, जो अन्तरराष्ट्रीय मानकों से भी बहुत अधिक है। इसके अलावा किसी दस्तावेज़, फ़ोन पर की गई बातचीत, मोबाइल संदेश, या किसी अन्य चीज़ के आधार पर किसी सन्दिग्ध व्यक्ति को गिरफ़्तार किया जा सकता है, लम्बे समय तक हिरासत में रखा जा सकता है और अन्य मानवाधिकारों से वंचित किया जा सकता है। समझा ही जा सकता है कि पुलिस द्वारा झूठे साक्ष्य गढ़ने और झूठी कहानी बनाने में ये प्रावधान कितने मददगार साबित होंगे।
दूसरी ओर, नवगठित राष्ट्रीय जाँच एजेंसी सीधे केन्द्रीय सरकार के नियन्त्रण में रहेगी और राज्य स्तर के क़ानून इसके समक्ष प्रभावी नहीं होंगे। महत्वपूर्ण और अजीब बात यह है कि राष्ट्रीय जाँच एजेंसी “वामपंथी आतंक” से सम्बन्धित मामलों की जाँच विशेष तौर पर करेगी लेकिन मालेगाँव धमाकों के अतिरिक्त गुजरात, उड़ीसा, कर्नाटक जैसे राज्यों में दक्षिणपंथी आतंक के पुख्ता प्रमाण मिलने के बाद भी इसे जाँच एजेंसी के दायरे में नहीं रखा गया है। गवाहों, सुराग़ों और सबूतों आदि के बारे में भी सरकारी एजेंसियों को मनमाने अधिकारों से लैस कर दिया गया है।
आज तक के आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के उपयोग (असलियत में दुरुपयोग) का इतिहास देखें तो पता चल जाएगा कि इन क़ानूनों का असली मकसद राजनीतिक विरोधियों, जागरूक और सक्रिय नागरिकों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों से निपटना और उन्हें आतंकित करना रहा है। इसके अलावा समुदाय-विशेष के लोगों के ख़िलाफ़ इनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया है। आम जनता के लिए आतंक का पर्याय बन चुकी पुलिस को ये क़ानून और भी पैने दाँत और नाखूनों से लैस करते हैं। पुलिसिया व्यवस्था द्वारा नियम-क़ानूनों को ताक पर रख देने से आजिज आकर सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने उसे एक संगठित गुण्डा गिरोह के विशेषण से नवाज़ा था। झूठे आरोपों में बेगुनाहों को फँसाना, गैरक़ानूनी ढंग से हिरासत में रखना और टॉर्चर करना और फर्जी मुठभेड़ में लोगों और मामलों को निपटा देने में सभी राज्यों की पुलिस एक दूसरे से होड़ करती रहती हैं और तथाकथित सभ्य समाज एनकाउण्टर विशेषज्ञों को हीरो मानता रहता है।
आतंकवाद का हौवा खड़ा करने के पीछे की मानसिकता और इसकी सच्चाई पर भी गौर करना जरूरी है। आँकड़ों की मानें तो पिछले वर्षों में देश में आतंकवादी गतिविधियों में प्रतिदिन औसतन 2 लोगों की मौत हुई और अखबार से लेकर टी.वी. तक और संसद से लेकर सड़क तक यह मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण बना रहा। जबकि इससे कहीं अधिक गम्भीर और ख़तरनाक तथ्य यह है कि इस दौरान पुलिस हिरासत में प्रतिदिन औसतन चार लोगों की मौत हुई और इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। मतलब यह कि हमारे देश के लोगों की जान को आतंकवादियों से अधिक पुलिस से ख़तरा है। देश के सामने मौजूद अन्य गम्भीर समस्याओं जैसे कि भूख और कुपोषण से प्रतिवर्ष होने वाली हजारों बच्चों की मौत, काम के दौरान दुर्घटना और बीमारी से प्रतिवर्ष 4 लाख मज़दूरों की मौत और बाढ़, सूखा, पाला, बीमारी से हजारों-लाखों की तादाद में होने वाली मौतें, ऐसी अनेकों समस्याओं पर मीडिया, सरकार या सभ्य नागरिक समाज में उतनी सक्रियता नहीं दिखायी पड़ती जितनी की आतंकवाद पर।
सबसे कुख्यात आतंकवाद विरोधी क़ानून टाडा के तहत लगभग 67,000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था जिसमें से सिर्फ 8,000 पर मुकदमा चलाया गया और उसमें भी सिर्फ 725 को दण्डित किया गया। टाडा मामलों की समीक्षा के लिए बनायी गयी सरकारी समितियों ने ही स्वीकार किया कि इन सभी मामलों में सिर्फ 5,000 मामले ही ऐसे थे जिनमें टाडा का प्रयोग किया जाना चाहिए था। 1993 में, गुजरात में आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई लेकिन वहाँ 19,000 लोगों को टाडा के तहत गिरफ़्तार किया गया। धर्म के आधार पर टाडा का दुरुपयोग कितने बड़े पैमाने पर हुआ इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि राजस्थान में टाडा के 115 आरोपियों में से 112 मुसलमान थे और 3 सिख। इसी तरह गुजरात में पोटा के तहत गिरफ़्तार 200 से अधिक लोगों में एक व्यक्ति को छोड़कर बाकी सभी मुसलमान थे।
छत्तीसगढ़ जैसे नक्सली समस्या से जूझ रहे राज्यों, उत्तर-पूर्व तथा जम्मू और कश्मीर में पहले से ही उग्रवाद से लड़ने के नाम पर सेना-पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों, और जाँच एजेंसियों को तमाम ऐसे अधिकार मिले हुए हैं जिनके द्वारा वहाँ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, जनपक्षधर पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों के मानवाधिकार हनन और उत्पीड़न की घटनाओं का सिलसिला लगातार चलता रहता है। डॉ. विनायक सेन और टी. राजू जैसे बेगुनाह लोगों को लम्बे समय तक हिरासत में रखा जाता है और उत्पीड़न किया जाता है। ऐसे अनेक मामले हैं जो उजागर ही नहीं हो पाते हैं। किसी भी प्रकार की ज़्यादती का विरोध करने वालों को झूठे मुकदमों में फँसा देना भारत की पुलिस व्यवस्था के बाएँ हाथ का खेल है। प्रतिक्रियावदी ताकतों के उग्र अल्पसंख्यक विरोध ने पहले ही उनके भीतर असुरक्षा की भावना भर दी थी, पर अब सभी राजनीतिक दलों द्वारा एकमत होकर नये आतंकवाद विरोधी क़ानूनों का समर्थन करने से अल्पसंख्यक समुदाय का अलगाव और असुरक्षा की भावना और बढ़ गयी है। और साथ ही इससे यह भी साबित हो गया है कि नागरिक अधिकारों के दमन के मामले में सभी राजनीतिक पार्टियों का रुख एकसमान जनविरोधी है।
यहाँ पर एक बार फिर हम यह याद दिला देना चाहते हैं कि हर प्रकार का आतंकवाद राज्य के दमन और शोषण का नतीजा होता है। राज्य के आतंकवाद के प्रतिरोध के विरुद्ध यदि जनता के पास सार्थक प्रतिरोध का कोई मंच नहीं होगा तो वह हताशा और निराशा में आतंकवादी रास्तों की तरफ़ आकर्षित होती है। भारत में राज्य के दमन के शिकार मेहनतकश जनसमुदाय और अल्पसंख्यक समुदायों में हम यह रुझान देख सकते हैं। एक ओर तो मेहनतकश जनसमुदायों के कुछ नौजवान बग़ावती जज़्बे के चलते क्रान्तिकारी आतंकवाद की धारा की ओर आकर्षित होते हैं, वहीं अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ नौजवान धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद की ओर। कहने की ज़रूरत नहीं है कि धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद एक प्रतिक्रियावादी आतंकवाद है और जनता की वर्ग चेतना को कुन्द करते हुए उन्हें कूपमण्डूकता और पुनरुत्थानवाद के गड्ढे में धकेलता है। क्रान्तिकारी आतंकवादी संगठन भी अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद जनता के संघर्षों को नुकसान ही पहुँचाते हैं। इतिहास जनता बनाती है, कुछ बहादुर लोग अपने हथियारों से इतिहास निर्माण नहीं कर सकते।
इस कानून के निशाने पर नक्सली संगठन भी हैं। प्रणब मुखर्जी ने साफ़ कहा है कि इस कानून के दो लक्ष्य हैं। विदेशी भूमि से चलने वाले इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद का ख़ात्मा और देश की भूमि से चलने वाले नक्सली आतंकवाद का ख़ात्मा। लेकिन यह भी समझना ज़रूरी है कि नक्सली संगठनों की रोकथाम के नाम पर तमाम जनपक्षधर और क्रान्तिकारी संगठनों को निशाना बनाया जाएगा जो जनता को गोलबन्द और संगठित करके व्यवस्था और समाज में परिवर्तन की सोच रखते हैं। पहले के कानूनों के मामले में भी यह बात साबित हुई है जब अल्पसंख्यक समुदायों, वामपंथी दुस्साहसवाद, राष्ट्रीय अलगाववादियों आदि के साथ तमाम क्रान्तिकारी संगठनों को भी जमकर निशाना बनाया गया।
मेहनतकश जनता आज ग़रीबी, बदहाली और बेरोज़गारी से तंग आकर सड़कों पर उतर रही है। किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में जनता चुपचाप नहीं बैठी हुई है। जनअसन्तोष का लावा समय-समय पर फूटकर सड़कों पर आ जा रहा है। इसे कुचलना भी इस कानून का लक्ष्य है। यानी, एक तीर से कई शिकार। आतंकवाद के नाम पर व्यवस्था का विरोध करने वाली और क्रान्तिकारी सम्भावना से सम्पन्न हर ताक़त का सफ़ाया। यही असली निशाना है। यह बात समझ लेने की ज़रूरत है कि जब तक किसी भी प्रकार के आतंकवाद के मूल कारणों का निवारण नहीं किया जाता तब तक किसी भी सख्त कानून, किसी विशेष सशस्त्र बल, सेना या पुलिस या किसी भी दमनात्मक कार्रवाई से या ऊपर से लिए गए किसी कार्यकारी निर्णय से इसे ख़त्म नहीं किया जा सकता। इतिहास गवाह है कि ऐसे दमन से आतंकवाद और बढ़ा ही है। आज पूरी दुनिया में आतंकवाद का बढ़ना इसी बात की ताईद करता है।
बिगुल, जनवरी 2009
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