बेहिसाब बढ़ती महँगाई सरकार की लुटेरी नीतियों का नतीजा है
यह ग़रीबों के ख़िलाफ सरकार के लुटेरे युद्ध के समान है

सम्पादकीय अग्रलेख

पिछले कुछ वर्षों से खाने-पीने और बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों की महँगाई बेरोकटोक बढ़ रही है। इस महँगाई ने देश की तीन-चौथाई से भी अधिक आबादी के सामने जीने का संकट पैदा कर दिया है। सब्ज़ियों से लेकर अनाज और दूध तक के बेहिसाब बढ़ते दामों ने मेहनतकश जनता के साथ-साथ निम्न मध्यवर्गीय आबादी तक के लिए पेटभर पौष्टिक खाना खा पाना दूभर बना दिया है। पिछले 2-3 वर्षों के दौरान कई बार पेट्रोल-डीज़ल और रसोई गैस के दामों में की गयी बढ़ोत्तरी ने लोगों की कमर पूरी तरह तोड़कर रख दी है। सरकार ने अभी से कह दिया है कि दिसम्बर तक महँगाई से कोई राहत नहीं मिलने वाली है। दिसम्बर के बाद भी, महँगाई और मुद्रास्‍फीति के आँकड़े भले कम हो जायें, आम लोगों के लिए रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ों के दाम कम होने की ज़्यादा उम्मीद नहीं है।

food inflationइतनी बड़ी आबादी के लिए जीने का संकट पैदा करने वाली महँगाई अब अख़बारों और टीवी चैनलों की सुर्खियों से बाहर हो चुकी है। दरअसल उच्च मध्य और खाते-पीते मध्य वर्ग की आमदनी में पिछले कुछ समय से लगातार जो बढ़ोत्तरी हो रही है उसके कारण उन पर इस महँगाई का ज़्यादा असर नहीं होता। दूसरे, इस वर्ग की आमदनी का एक छोटा-सा हिस्सा ही खाने-पीने की चीज़ों पर खर्च होता है। इसकी आमदनी का बड़ा हिस्सा मनोरंजन, कपड़ों, टीवी-ओवन-फ्रिज़ जैसे सामानों आदि पर खर्च होता है। मगर इस महँगाई ने ग़रीबों के लिए तो जीना दूभर बना दिया है।

इस महँगाई ने देश की भारी आबादी के लिए हालात कितने मुश्किल कर दिये हैं इसका अन्दाज़ा लगाने के लिए बस इस तथ्य को याद कर लेना ज़रूरी है कि देश के लगभग 90 करोड़ लोग सिर्फ 20 रुपये रोज़ाना पर गुज़ारा करते हैं। इनमें से भी लगभग एक तिहाई आबादी तो महज़ 11 रुपये रोज़ पर जीती है। सरकार का योजना आयोग कहता है कि जो व्यक्ति शहर में 17 रुपये रोज़ और देहात में 12 रुपये रोज़ खर्च कर सकता है वह ग़रीब नहीं है। देश के 44 करोड़ असंगठित मज़दूरों पर महँगाई की मार सबसे बुरी तरह पड़ रही है। शहरों में करोड़ों मज़दूर उद्योगों में 10-10, 12-12 घण्टे काम करके 2000 से 3000 रुपये महीना कमा पाते हैं। इसमें से भी मालिक बात-बात पर पैसे काट लेता है। लगभग एक तिहाई से लेकर आधी मज़दूरी मकान के किराये, बिजली, बस भाड़े आदि में चली जाती है। बाकी लगभग सारी कमाई किसी तरह पेट भरने में चली जा रही है। दालें तो ग़रीबों के भोजन से पहले ही ग़ायब हो चुकी थीं अब आलू-प्याज़-टमाटर जैसी सब्ज़ियाँ भी खा पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है।

गुजरात के पाँच ज़िलों में ग़रीबों के परिवारों के बीच एक संस्था के सर्वेक्षण के अनुसार महँगाई के कारण आमदनी का 74 प्रतिशत खाने-पीने पर खर्च हो जाता है। पहले जो परिवार सुबह नाश्ता, फिर दिन और रात का खाना खाते थे उनमें से 60 प्रतिशत अब दिन में सिर्फ दो बार खाते हैं। 57 प्रतिशत लोग बहुत ज़रूरी होने पर ही डॉक्टर के पास जाते हैं। 40 प्रतिशत परिवारों में चाय के लिए दूध का इस्तेमाल बन्द हो गया है। महँगाई के कारण बहुत से लोग बस आदि के बजाय कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर काम पर जाते हैं।

mahangai 1ऐसी भीषण महँगाई के पहले ही हालत यह थी कि देश की तीन-चौथाई आबादी के भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे ज़रूरी पौष्टिक तत्व लगातार कम होते जा रहे थे। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वज़न वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने एक अध्ययन में बताया है कि आज देश में प्रति व्यक्ति औसत खाद्य उपलब्‍धता बंगाल में 1942-43 में आये भीषण अकाल के दिनों के बराबर पहुँच चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुतेरे परिवारों को दोनों वक्त या सप्ताह के सातों दिन भरपेट खाना नहीं मिलता। आज भी रोज़ लगभग दस हज़ार बच्चे कुपोषण और उससे होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं।

दरअसल कीमतें बढ़ने के लिए पूँजीवादी नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं। महँगाई की असली वजह यह है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का कब्ज़ा है। ये ही जिन्सों (चीज़ों) के दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज और खुदरा कारोबार के क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के लिए खोल देने के सरकार के फैसले से स्थिति और बिगड़ गयी है। अपनी भारी पूँजी और ताक़त के बल पर ये कम्पनियाँ बाज़ार पर पूरा नियन्‍त्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं। पूँजीवादी नीतियों के कारण अनाजों के उत्पादन में कमी आती जा रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफे का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। साम्राज्यवादी देशों की एग्रीबिज़नेस कम्पनियों और देशी उद्योगपतियों की मुनाफाखोरी से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं और बहुत बड़ी किसान आबादी के लिए खेती करके जी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।

सबसे बड़ा कारण यह है कि मेहनतकश जनता की मज़दूरी में लगातार आ रही गिरावट के कारण उसकी खरीदने की शक्ति कम होती जा रही है। दिहाड़ी पर काम करने वाली 44 करोड़ आबादी आज से 10 साल पहले जितना कमाती थी आज भी बमुश्किल उतना ही कमा पाती है जबकि कीमतें दोगुनी-तीन गुनी हो चुकी हैं। पूँजीपतियों को लाखों करोड़ की सब्सिडी देनी वाली सरकार ग़रीबों के लिए भोजन का अधिकार विधेयक लाने का कई साल से शोर मचा रही है लेकिन इसके मसौदे से साफ़ है कि यह तो ग़रीबों को मिलने वाली बची-खुची खाद्य सुरक्षा भी छीन लेने वाला क़ानून होगा। इससे ज़्यादा मानवद्रोही बात और क्या हो सकती है कि जिस देश में आज भी करोड़ों बच्चे रोज़ रात को भूखे सोते हैं वहाँ 35 से 40 प्रतिशत अनाज गोदामों और रखरखाव की कमी के कारण सड़ जाता है। एक्सप्रेस-वे, अत्याधुनिक हवाईअड्डों, स्टेडियमों आदि पर लाखों करोड़ रुपये खर्च करने वाली सरकार आज़ादी के बाद 60 साल में इतने गोदाम नहीं बनवा सकी कि लोगों का पेट भरने के लिए अनाज को सड़ने से बचाया जा सके।

महँगाई पूँजीवादी समाज में खत्म हो ही नहीं सकती। जब तक चीज़ों का उत्पादन और वितरण मुनाफा कमाने के लिए होता रहेगा तब तक महँगाई दूर नहीं हो सकती। कामगारों की मज़दूरी और चीज़ों के दामों में हमेशा दूरी बनी रहेगी। मज़दूर वर्ग सिर्फ अपनी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए लड़कर कुछ नहीं हासिल कर सकता। वह लड़ाई लड़कर पूँजीपति से थोड़ी मज़दूरी बढ़वाने में कामयाब भी हो जाता है तो पूँजीपति चीज़ों के दाम बढ़ाकर फिर उसे लूट लेता है। यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। मज़दूर की हालत वहीं की वहीं बनी रहती है। इसलिए मज़दूरों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए लड़ने के साथ-साथ मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए भी लड़ना होगा।

मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011

 


 

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