पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म किये बिना भ्रष्टाचार मिट नहीं सकता!
अण्णा हज़ारे का आन्दोलन झूठी उम्मीद जगाता है
लूट-अन्याय-भ्रष्टाचार के वृक्ष की फुनगियाँ कतरना “दूसरी आज़ादी” की लड़ाई नहीं
सम्पादकीय अग्रलेख
पिछली 17 अगस्त से शुरू हुआ अण्णा हज़ारे का अनशन 28 अगस्त को समाप्त हो गया। 27 अगस्त को संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करके उनकी 3 माँगों को लोकपाल विधेयक पर विचार कर रही संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया। संसद में सभी दलों के सांसदों ने अण्णा हज़ारे के आन्दोलन की सराहना की और रामलीला मैदान के मंच पर “टीम अण्णा” के प्रवक्ताओं ने संसद और सांसदों को बार-बार धन्यवाद दिया। अण्णा का गाँव रालेगण सिद्धि मीडिया का नया ठिकाना बन गया है। अण्णा हज़ारे भारतीय जनता, खासकर मध्यर्वीय जनता के बीच एक नयी हस्ती बनकर उभरे हैं। टीवी चैनलों पर बहसों का सिलसिला जारी है कि किस तरह फिल्मी या खेलों की दुनिया के सितारों के बजाय एक बूढ़ा सन्त टाइप आदमी देश के युवाओं का नया “आइकन” बनकर उभरा है।
पब्लिक का मूड देखकर अण्णा हज़ारे ने भी अपने माँगपत्रक को थोड़ा विस्तारित कर दिया है। अब वे चुनाव सुधार की माँगों पर भी आन्दोलन की बात करने लगे हैं। वैसे जनलोकपाल की अपनी माँगों को भी उन्होंने आन्दोलन के दौरान ही विस्तारित कर दिया था। राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति, निचले स्तरों पर भ्रष्टाचार को लोकपाल के दायरे में लाने और सिटीज़न्स चार्टर की माँगों पर ज़ोर बढ़ा दिया था।
कहने की ज़रूरत नहीं कि निचले स्तर का भ्रष्टाचार जनता की रोज़मर्रा की समस्या है। गाँवों में नरेगा की मज़दूरी से लेकर लेखपालों, बीडीओ के दफ़्तर आदि में फैला भ्रष्टाचार हो, या शहरों में हर सरकारी दफ़्तर में चलने वाली घूसखोरी हो, आम ग़रीब आबादी ही उससे सबसे ज़्यादा प्रभावित होती है। राशन कार्ड, मतदाता पहचानपत्र, अस्पताल से लेकर पुलिस थाने तक हर काम के लिए अपनी गाढ़ी कमाई से जो रकम चुकानी पड़ती है वह उस पर बहुत भारी पड़ती है। श्रम विभाग से लेकर ईएसआई के दफ़्तर तक में फैले भ्रष्टाचार से सभी मज़दूर वाकिफ़ होते हैं। आम ग़रीब और निम्नमध्यवर्गीय आबादी को वाकई यह महसूस होता है कि भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ी समस्या है जिसके चलते ही उसे अपने अधिकार नहीं मिल पाते है। बहुत से मज़दूरों को यह भ्रम है कि अगर श्रम विभाग के दफ़्तरों में, डीएलसी और लेबर इंस्पक्टरों की घूसखोरी बन्द हो जाये तो श्रम क़ानून लागू हो जायेंगे और उन्हें न्यूनतम मज़दूरी से लेकर तमाम अन्य अधिकार और सुविधाएँ मिलने लगेंगी। आम नागरिकों को लगता है कि सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगते ही जमाख़ोरी- कालाबाज़ारी रुक जायेगी और महँगाई काबू में आ जायेगी। यह सच है कि आम आबादी का जहाँ भी सरकारी दफ़्तरों से, नौकरशाही से पाला पड़ता है वहाँ भ्रष्टाचार से उसका साबका होता है। निचले स्तर पर जनता जब अपनी बुनियादी माँगों के लिए लड़ती है तो उसके साथ भ्रष्टाचार का सवाल नत्थी होता ही है। फैक्ट्री मज़दूरों के आन्दोलन में श्रम विभाग के भ्रष्टाचार या नरेगा के मसले पर आन्दोलन में ग्राम प्रधान और बीडीओ दफ़्तर के भ्रष्टाचार या पुलिस में नीचे से ऊपर तक फैले भ्रष्टाचार का मुद्दा जुड़ ही जाता है। इस रूप में भ्रष्टाचार का सवाल जनवादी अधिकार का एक सवाल बनता है। लेकिन पूँजीवादी जनवाद के दायरे में जनता के जनवादी अधिकारों की लड़ाई का यह एक बहुत छोटा हिस्सा ही होता है। आगे हम इस बात पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे कि क्या जनता यह लड़ाई लड़ते हुए भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद हासिल कर सकती है और यदि भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद बन भी जाये तो क्या इससे जनता की समस्याओं का समाधान हो जायेगा?
अभी अण्णा हज़ारे के आन्दोलन पर लौटते हैं। मीडिया ने अपना पूरा ज़ोर लगाकर जनता की पहलकदमी और भागीदारी को जितना उभारा, उतनी जन पहलकदमी तो वास्तव में नहीं थी, लेकिन यह सच है कि मध्यवर्ग की एक अच्छी-ख़ासी आबादी को इसने आकर्षित किया और एक हद तक वह सड़कों पर भी निकली। जनता की भागीदारी चाहे जितनी भी हुई, मगर असल सवाल तो यह है कि “टीम अण्णा” उसे ले कहाँ जाना चाहती है, उसके पास समाधान क्या है? लोकपाल विधेयक के कुल नौ मसौदे संसद की स्थायी समिति के पास हैं। इसमें सरकारी विधेयक, टीम अण्णा का जन लोकपाल, अरुणा राय का मसौदा, लोकसत्ता पार्टी के जयप्रकाश नारायण का मसौदा, टी-एन-शेषन का मसौदा आदि शामिल हैं। कई सौ और सुझाव भी उसे मिल चुके हैं। थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ इन सभी में एक बात सामान्य है – ये सभी भ्रष्टाचार दूर करने के लिए किसी न किसी तरह का प्रशासनिक ढाँचा खड़ा करने की ही बात करते हैं।
हमारा स्पष्ट मानना है कि किसी भी तरह की नौकरशाही संरचना, चाहे वह जितनी भी “स्वायत्त या स्वतन्त्र” हो, पूँजीवादी व्यवस्था में ईमानदारी और भ्रष्टाचार मुक्ति की गारण्टी नहीं दे सकती। कहने को तो, उच्चतम न्यायालय बहुत स्वायत्त है मगर उसमें भी भ्रष्टाचार है। चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है मगर उसी के द्वारा कराये जाने वाले चुनावों में सारे भ्रष्ट और अपराधी जीतकर संसद में पहुँचते हैं। अण्णा हज़ारे का लोकपाल भी कोई स्वर्गलोक से अवतरित व्यक्ति नहीं होगा और न ही उसके अफ़सर तथा कर्मचारी देवदूत या फरिश्ते होंगे। वे भी इसी समाज से भरती किये जायेंगे। इस बात की कोई भी गारण्टी नहीं हो सकती कि वे भी भ्रष्टाचार न करने लगें। टीम अण्णा के विधेयक के अनुसार बनने वाले लोकपाल कार्यालय का स्वरूप एक भारी-भरकम नौकरशाहाना ढाँचे का होगा, जिसमें हज़ारों कर्मचारी और सैकड़ों अफसर होंगे। इसके पास जाँच करने और कई मामलों में सज़ा देने का भी अधिकार होगा। यह एक भीषण निरंकुश किस्म का ढाँचा होगा। अकसर कुछ पढ़े-लिखे मगर ग़ैर-जनवादी प्रवृत्ति के लोग कहा करते हैं कि भारत जैसे देश में एक प्रबुद्ध निरंकुश सत्ता की ज़रूरत है जो डण्डे मार-मारकर सब ठीक कर देगी। (ज़ाहिर है कि ऐसे लोग इस खुशफ़हमी के शिकार होते हैं कि जब यह डण्डा चलेगा, तो उनका सिर बच जायेगा!) वैसे यह निरंकुशता तो अण्णा हज़ारे की प्रवृत्ति का भी हिस्सा है। अण्णा खुद को गाँधीवादी कहते हैं लेकिन उनकी उक्तियाँ कतई गाँधीवादी नहीं हैं। रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने वाले लोगों को वे चौराहे पर फाँसी देने की बात करते हैं और अपनी आलोचना होने पर भड़क उठते हैं।
बहरहाल, मूल बात यह है कि जन लोकपाल का कोई भी मसौदा हो, एक लोकपाल हो या तीन हों, हर राज्य में लोकायुक्त हो या न्यायिक उत्तरदायित्व आयोग की बात हो – अन्ततः ये सभी थोड़े हेर-फेर के साथ एक प्रशासकीय तन्त्र खड़ा करके भ्रष्टाचार ख़त्म करने की बात करते हैं। मगर हम फिर दोहरायेंगे कि किसी भी तरह का नौकरशाही तन्त्र जन हितों की चौकसी नहीं कर सकता। एकमात्र विकल्प यह है कि जनता की सामूहिक चौकसी की विभिन्न संस्थाएँ और निकाय विकसित किये जायें जो सरकार द्वारा गठन करने से नहीं बल्कि जन आन्दोलनों के गर्भ से पैदा होते हैं। कुछ लोग दलील दे रहे हैं कि अण्णा के आन्दोलन ने भी जन-चौकसी की ऐसी ही भावना पैदा की है। सच तो यह है कि इस मुहिम का जिस हद तक भी जनान्दोलन का चरित्र था, उसे अन्ततः एक नया नौकरशाहाना ढाँचा प्राप्त करने तक सिमटा दिया गया। होना तो यह चाहिए कि जनान्दोलनों के गर्भ से ऐसी संस्थाएँ उभरकर सामने आयें जो नौकरशाही पर लगातार चौकसी रखें। समाज के हर स्तर पर जनता की चुनी हुई कमेटियों की व्यवस्था हो जो सरकार और प्रशासन के कामों पर चौकसी और निगरानी का काम करें। इन कमेटियों में कुछ “गणमान्य” और “प्रबुद्ध” लोगों के बजाय जनता के विभिन्न वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। जैसे मज़दूर-माँगपत्रक 2011 में माँग की गयी है कि श्रम एवं उद्योग से सम्बन्धित सभी विभागों में नौकरशाही और लालफ़ीताशाही पर लगाम लगाने के लिए ऊपर से नीचे तक हर स्तर पर ऐसी अधिकारसम्पन्न नागरिक समितियाँ गठित की जायें जिनमें मज़दूरों के प्रतिनिधि, नियोक्ताओं के प्रतिनिधि, श्रम क़ानूनों के विशेषज्ञ, मज़दूर संगठनों और जनवादी अधिकार आन्दोलन के प्रतिनिधि शामिल हों। अगर ‘टीम अण्णा’ के लोग सच्चे अर्थों में जनता की लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो उन्हें ऐेसे निकायों और संस्थाओं की बात उठानी चाहिए जिन पर किसी भी प्रकार से नौकरशाहाना तन्त्र का अंकुश न हो।
पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर भ्रष्टाचार ख़त्म हो ही नहीं सकता
हो सकता है कि अण्णा हज़ारे के आन्दोलन के कारण लोकपाल क़ानून बन जाये और कुछ हद तक जनता को रोज़मर्रा के जीवन में भ्रष्टाचार से थोड़ी राहत भी मिल लाये। लेकिन इसे “दूसरी आज़ादी की लड़ाई” या “एक नयी क्रान्ति की शुरुआत” आदि-आदि कहना एक छोटी-सी बात का अतिशय महिमामण्डन करना है। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर भ्रष्टाचार ख़त्म हो ही नहीं सकता। इसकी मात्रा कम या ज़्यादा हो सकती है। भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद एक आदर्शवादी कल्पना है जो मध्यवर्ग के लोगों को बहुत लुभाती है मगर कभी भी अमल में नहीं आ सकती। यदि मान लिया जाये कि कोई सदाचारी किस्म का पूँजीवाद अस्तित्व में आ जायेगा, तो वह भी आम मेहनतकश जनता के लिए अत्याचारी, शोषक और भ्रष्टाचारी ही होगा। पूँजीवाद का अस्तित्व ही बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की श्रमशक्ति की लूट पर टिका होता है। अगर पूँजीपति एकदम ईमानदारी से ठेके आदि लें और सरकार द्वारा तय मज़दूरी का भुगतान करें तब भी मज़दूर की मेहनत जितना उत्पादन करती है उसका एक छोटा-सा ही हिस्सा मज़दूर को मिलता है। कच्चे माल, मशीनरी- मेन्टेनेंस आदि का ख़र्च निकालने के बाद भी भारी रकम मुनाफ़े के तौर पर पूँजीपति की जेब में चली जाती है। मज़दूर जो पैदा करता है उस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। उसे उतना ही मिलता है जिससे वह ज़िन्दा रह सके, अपनी न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करके काम करता रह सके। पूँजीवादी समाज में लगातार होड़ चलती रहती है। होड़ पूँजीवादी समाज का मूलमंत्र है। मुनाफ़ा बढ़ाने की इसी होड़ में पूँजीपति मज़दूरों से ज़्यादा से ज़्यादा काम कराने की तरकीबें निकाले हुए मज़दूरों द्वारा हासिल क़ानूनी हक़ों को भी हड़प जाते हैं। न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं देते, जबरन ओवरटाइम कराते हैं, बच्चों से आधी मज़दूरी पर काम कराते हैं, सुरक्षा, स्वास्थ्य, ईएसआई आदि मदों के खर्चों को मार लेते हैं। बिजली, टैक्स आदि की चोरी करते हैं, इंस्पेक्टरों की जेब गरम करते हैं और नेताओं तथा अफ़सरों को घूस खिलाते हैं। यानी जब पूँजीवादी लूट-खसोट क़ानूनी दायरे में होती है तब भी वह आम मेहनतकशों के हक़ों को मारती है और फिर यह होड़ क़ानून की सीमा को भी लाँघ जाती है और रिश्वतख़ोरी- कमीशनख़ोरी-जमाख़ोरी के रूप में काले धन का अम्बार पैदा करने लगती है। ऐसे में भ्रष्ट नेताओं-अफसरों और दलालों का बहुत बड़ा बिचौलिया तबका भी मलाई चाटने लगता है।
इसे और अच्छी तरह समझ लें। मुनाफ़े की रफ़्तार बढ़ाने के लिए पूँजीपति बेहतर मशीनें और नयी तकनीकें लाता है, कम मज़दूरों से ज़्यादा उत्पादन कराता है और बाकी मज़दूरों को निकाल देता है। बेरोजगारी बढ़ने से मज़दूरों की मोलतोल की ताक़त घट जाती है और वे पहले से भी कम मज़दूरी पर काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह सरासर ब्लैकमेलिंग एकदम क़ानूनी तरीके से होती है। सारे पूँजीपति अपना कारोबार बढ़ाने के लिए बैंकों में जमा जनता की बचत का पैसा उधार लेते हैं, एक से दस बनाते हैं और उसका एक बहुत छोटा-सा हिस्सा ब्याज के रूप में वापस करते हैं। यह धोखाधड़ी भी एकदम क़ानूनी तरीके से होती है। फिर पूँजीपति शेयर बाज़ार से पूँजी बटोरने उतरते हैं। पहले शेयरों का खेल क़ानूनी तरीके से चलता है लेकिन होड़ का वही तर्क जल्दी ही इसे नियंत्रण से बाहर कर देता है और बहुत बड़े पैमाने पर गैरक़ानूनी सट्टेबाज़ी शुरू हो जाती है। पूँजी बढ़ाने की यही होड़ हवाला करोबार, अवैध कारख़ानों और तमाम तरह के गैरक़ानूनी करोबारों को जन्म देती है और फिर अपराध को भी एक संगठित कारोबार बना देती है।
संक्षेप में कहें, तो पूँजीवाद में अगर सबकुछ क़ानूनी तरीके से हो तब भी वह एक भ्रष्टाचार और अनाचार है। जिस समाज व्यवस्था में अमीर-ग़रीब की खाई लगातार बढ़ती रहती है और समस्त सम्पदा पैदा करने वाली बहुसंख्यक आबादी की न्यूनतम ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं, वह अपने आप में एक भ्रष्टाचार है।
अगर मान लिया जाये कि विदेशों में जमा सारा काला धन देश में आ जाये, और देश के भीतर उससे कई गुना अधिक जो काला धन जमा है, वह भी अगर सफेद हो जाये तो क्या आम मेहनतकश जनता की हालत बेहतर हो जायेगी? इस सारे धन का निवेश “विकास” के कामों में होगा जिनकी प्राथमिकताएँ समाज के ताक़तवर तबकों के हिसाब से तय की जायेंगी। देश में आज भी पूँजी की कोई कमी नहीं है। सवाल इस बात का है कि उसे कहाँ लगाया जाये और कहाँ नहीं। गाँव-गाँव में और शहरी ग़रीबों के इलाक़ों में स्कूल, डिस्पेंसरी, अस्पताल खोलना, लाखों टन अनाज को सड़ने से बचाने के लिए गोदाम बनवाना, ग़रीबों के इलाकों में कीचड़ से बजबजाती सड़कों की मरम्मत कराना ज़्यादा ज़रूरी है या पूँजीपतियों की सुविधा के लिए बड़े-बड़े बन्दरगाह, एक्सप्रेस हाइवे, अत्याधुनिक हवाईअड्डे, होटल और एस.ई.ज़ेड. बनवाना – यह इस बात से तय होता है कि सत्ता पर किन वर्गों का वर्चस्व है। अगर कुछ देर के लिए मान लिया जाये कि सारा काला धन जनकल्याण और सार्वजनिक निर्माण के कामों में ही लगा दिया जायेगा, तो वह सारा काम भी अफ़सरशाहों और देशी-विदेशी कम्पनियों के मार्फ़त ही होगा। यह सारा काला धन फिर पूँजी बनकर मज़दूरों को और निचोड़ने के काम आयेगा, ठेकों में कमीशनख़ोरी होगी, कामों में घपला होगा। थोड़ा-बहुत पूँजीवाद विकास हो भी जायेगा पर शोषण और असमानता को बढ़ाने की प्रक्रिया पहले की तरह जारी रहेगी। कमीशनख़ोरी-रिश्वतख़ोरी की नीचे से लेकर ऊपर तक बनी शृंखला चलती रहेगी और कालेधन का अम्बार फिर इकट्ठा होने लगेगा।
भारत सिंगापुर या स्वीडन नहीं बन सकता!
भ्रष्टाचार-विरोध की बात करने वाले लोग अकसर दुनिया के कई देशों का उदाहरण देते हैं जहाँ भ्रष्टाचार बहुत कम है और ओम्बुड्समैन जैसी संस्थाएँ मौजूद हैं। “टीम अण्णा” के कई प्रवक्ता और उनके मंच से बोलने वाले अरिन्दम चौधरी जैसे वक्ता भी स्वीडन, हालैण्ड, सिंगापुर, हांगकांग आदि का नाम गिनाते रहते हैं जहाँ भ्रष्टाचार बहुत कम है और इसके ख़िलाफ़ बड़े सख्त क़ानून लागू हैं। मगर इन देशों की असलियत क्या है? ये देश सारी दुनिया में लूटमार करने वाली कम्पनियों और परजीवी पूँजी का स्वर्ग हैं। स्वीडन और हालैण्ड जैसे देशों की हथियार कम्पनियाँ और दवा कम्पनियाँ पूरी दुनिया में लाखों लोगों को मौत और ग़रीबी में धकेलकर खरबों का मुनाफ़ा बटोरती हैं जिसका एक हिस्सा वहाँ के नागरिकों को बेहतर जीवनस्तर के रूप में मिल जाता है। सिंगापुर-हांगकांग जैसी जगहें ख़ुद ही तमाम किस्म के काले धन्धों और दुनियाभर से सूदख़ोरी के ज़रिये खरबों बटोरने वाली वित्तीय कम्पनियों का गढ़ हैं। इन छोटे-छोटे देशों में फ़ासिस्ट किस्म के सख़्त क़ानूनों के जरिये रोज़मर्रा के जीवन में भ्रष्टाचार कम किया जा सकता है मगर उन्हें “मॉडल” के रूप में पेश करना भी बताता है कि ऐसे लोग किस किस्म का समाज बनाना चाहते हैं। इन देशों को अगर पूरी दुनिया से काटकर देखें तो लगेगा कि वहाँ कितना सदाचारी पूँजीवाद है। लेकिन इनके सदाचार का लबादा पूरी दुनिया की जनता के ख़ून से लथपथ है। अमेरिका में तो ख़ैर भ्रष्टाचार बहुत खुले रूप में मौजूद है जिसे हॉलीवुड की फिल्मों तक में देखा जा सकता है, लेकिन यूरोप के कई मुल्कों में वाकई भ्रष्टाचार काफ़ी कम है। पर ये वे देश हैं जो भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक सम्पदा और मेहनत को डकैतों की तरह लूटकर उसके एक हिस्से से अपने देश में लोगों को कुछ सुविधाएँ दे देते हैं। लेकिन इन सभी देशों में भी अमीर-ग़रीब की खाई मौजूद है और बढ़ती जा रही है। ब्रिटेन में यूँ तो भ्रष्टाचार बहुत कम है, लेकिन उसकी राजधानी सहित कई शहरों मे पिछले दिनों दंगे क्यों भड़क उठे थे?
कुछ लोग कहेंगे कि चलिये, अण्णा के आन्दोलन से अगर इतना भी हो जाये तो बहुत है। ऐसे लोग यह नहीं समझते कि उन देशों में जो हो गया वह यहाँ सम्भव नहीं है। इसे इतिहास से काटकर नहीं देखा जा सकता। शताब्दियों से ग़रीब और पिछड़े मुल्कों की लूट की बदौलत उन देशों में जो समृद्धि आयी है उसके चलते वहाँ मौजूद भ्रष्टाचार से आम नागरिकों का रोज़-रोज़ पाला नहीं पड़ता। वैसे, इसका एक कारण यह भी है कि इन देशों में हुई जनवादी क्रान्तियों के चलते वहाँ के सामाजिक ताने-बाने में जो जनवादी मूल्य और चेतना मौजूद है, तथा शिक्षा और जागरूकता का जो स्तर है, वह भी शासक वर्गों को मजबूर कर देता है कि वे अन्धेरगर्दी वाला भ्रष्टाचार न करें। लेकिन यह तो गौण कारण है। मुख्य कारण वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है।
भ्रष्टाचारियों के मैनेजर, रक्षक और चाकर भी भ्रष्ट क्यों न होंगे?
पूँजीवाद अनेक स्तरों पर तरह-तरह के अन्तरविरोधों से ग्रस्त व्यवस्था है। पूँजीपति वर्ग की चाहत होती है कि उसकी ‘मैनेजिंग कमेटी’, यानी सरकार भ्रष्टाचार से मुक्त हो। संसद उनके हितों के अनुरूप नीतियाँ बनाये, अफ़सरशाही उन्हें चुस्ती से लागू करे, पुलिस और सशस्त्र बल क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए मुस्तैद रहें। उत्पादन, बाज़ार, मुनाफ़े का खेल बिना किसी अड़चन-रुकावट के चलता रहे। लेकिन पूँजीवाद अपने आप में कोई एकाश्मी व्यवस्था नहीं है। उसमें पूँजीपतियों के अलग-अलग धड़ों, कार्टेलों, घरानों के बीच टकराव होते रहते हैं। आपसी प्रतिस्पर्द्धा में ठेका लेने के लिए कमीशन खिलाने (राडिया टेप काण्ड, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला!) और तरह-तरह के काले धन्धे करने से वे बाज़ नहीं आ सकते। पूँजीवादी जनवाद के भीतर अलग-अलग पार्टियाँ भी पूँजीपतियों के अलग-अलग धड़ों और हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। बुर्जुआ चुनावी पार्टियों के आपसी अन्तरविरोधों में भी पूँजीवादी व्यवस्था के विभिन्न अन्तरविरोध प्रकट होते रहते हैं। इस व्यवस्था को चलाने वाली नेताशाही और नौकरशाही पूँजीपति वर्ग की सेविका होती है लेकिन उसकी घरेलू ग़ुलाम नहीं होती। वे जानते हैं कि उनके बिना पूँजीपति वर्ग का काम नहीं चल सकता।
इसलिए, उनकी भी एक ताक़त बन जाती है। पूँजीपति वर्ग यदि चाहे भी कि नेताशाही- नौकरशाही को केवल क़ानूनी वेतन-भत्तों पर काम करने के लिए राज़ी कर ले तो नहीं कर सकता। फिर भी विदेशी पूँजी के थिंकटैंक और देशी पूँजी के थिंकटैंक लगातार भ्रष्टाचार और एकदम अन्धेरगर्दी वाली लूट पर अंकुश लगाने के लिए उपाय सुझाते रहते हैं। दरअसल उनकी चिन्ता इस बात को लेकर होती है कि इस व्यवस्था की उम्र लम्बी कैसे की जाये। तरह-तरह के च्यवनप्राश और विटामिन खिलाकर वे उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का जतन करते रहते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दरूनी अन्तरविरोधों को उग्र होने से बचाने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। अनायास नहीं है कि विश्व बैंक ने भी इसी समय विभिन्न देशों में सरकारी कामकाज में भ्रष्टाचार कम करने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए नयी रणनीति पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है। ‘ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनल’ नामक संस्था करोड़ों डालर के खर्च से हर साल दुनियाभर में भ्रष्टाचार पर रिपोर्टें निकालकर सरकारों को आगाह करती रहती है। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, जिनमें जापानी कम्पनियाँ प्रमुख हैं, भारत जैसे देशों में निवेश करने से पहले दो ही शर्तं लगाती हैं – पहली, यह कि श्रम क़ानूनों को “लचीला” बनाया जाये और दूसरी यह कि सरकार अपने यहाँ कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार कम करे।
पूँजीवादी व्यवस्था का दूरगामी हित सोचने वाले चाहते हैं कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार और लूट-खसोट इतना न बढ़ जाये कि जनता इस व्यवस्था से ही निजात पाने के बारे में सोचने लगे। इसलिए कभी सुप्रीम कोर्ट सलवा जुडुम बन्द करने का आदेश देते हुए सरकार की आर्थिक नीतियों को “देश के साथ बलात्कार” की संज्ञा देता है तो कभी कोई सरकारी आयोग मज़दूरों की बदहाली और ग़रीबी की ओर ध्यान दिलाता है। देश के सबसे बड़े पूँजीपति घरानों में गिने जाने वाले किर्लोस्कर और बजाज भी अण्णा के आन्दोलन का समर्थन करते हैं और देश के दूसरे सबसे बड़े प्राइवेट बैंक एचडीएफसी बैंक के अध्यक्ष दीपक पारिख भी इसके पक्ष में बयान देते हैं। सभी पूँजीपतियों के कारख़ानों में श्रम क़ानूनों का खुला उल्लंघन होता है, हर साल वे करोड़ों रुपये की टैक्स चोरी करते हैं। क़ानूनी दाँवपेंचों के सहारे तमाम बड़े पूँजीपतियों ने राष्ट्रीय बैंकों के हज़ारों करोड़ रुपये मार लिये हैं, मगर ये सब भ्रष्टाचार ख़त्म करना चाहते हैं। तमाम तरह की बीमा और बचत योजनाओं के सहारे जनता का पैसा मारने के लिए कुख्यात और क़ानूनों को ठेंगा दिखाकर ठेका कर्मचारियों और एजेण्टों का शोषण करने वाले निजी बैंक और फाइनेंस कम्पनियाँ भी भ्रष्टाचार-विरोध के समर्थन में हैं। और नीचे आते-आते तो समर्थन का यह तमाशा एक हास्यास्पद प्रहसन में तब्दील हो जाता है। सभी जानते हैं कि फिल्मी सितारों की कमाई का 90 प्रतिशत तक काला धन होता है। पर वे भी बड़ी शान से अण्णा के पक्ष में भाषण दे रहे हैं और “ट्वीट” कर रहे हैं। ऊपर से नीचे तक काले धन के सभी छोटे-बड़े सरदार इस आन्दोलन के पक्ष में नज़र आ रहे हैं। बिल्कुल निचले स्तर पर प्रॉपर्टी डीलर, व्यापारी और गली के डण्डीमार दुकानदार तक वे तमाम लोग अण्णा की टोपी पहने नज़र आ रहे थे जो सुबह से रात तक भ्रष्टाचार ही करते रहते हैं।
लोकतंत्र के नये पहरुओं का चाल-चेहरा-चरित्र क्या है
अब ज़रा ‘टीम अण्णा’ के सदस्यों पर भी एक नज़र मार ली जाये। अण्णा हज़ारे भ्रष्टाचार को देश की सबसे बड़ी समस्या बताते हैं और इस आन्दोलन को आज़ादी की दूसरी लड़ाई घोषित कर देते हैं। वे और उनकी टीम के सदस्य लोकतन्त्र को लेकर काफ़ी चिन्ता प्रकट करते हैं मगर देश के कई इलाक़ों में जनता के अधिकारों को पुलिस और सेना के बूटों तले रौंदे जाने पर वे एक शब्द भी नहीं बोलते। किसानों की आत्महत्या पर, ऑपरेशन ग्रीनहण्ट पर, उत्तर-पूर्व और कश्मीर में सेना के बर्बर दमन पर, करोड़ों मज़दूरों के शोषण पर वे चुप रहते हैं। मीडिया में बार-बार सवाल उठने पर अब वे चलते-चलाते किसानों और मज़दूरों की समस्याओं की चर्चाभर कर देते हैं। मध्य भारत के जंगलों में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे आदिवासियों के ख़िलाफ़ सेना तैनात करने की सरकारी योजना पर भी उनके कोई उद्गार प्रकट नहीं होते। मगर वे गैर-मराठियों के विरुद्ध राज ठाकरे के अभियान का समर्थन कर चुके हैं और मुसलमानों का क़त्लेआम कराने वाले नरेन्द्र मोदी के “विकास के मॉडल” की सराहना भी करते हैं। अण्णा के गाँव रालेगण सिद्धि में पिछले पच्चीस वर्ष से ग्राम पंचायत या सहकारी समिति के चुनाव नहीं हुए हैं। जाति व्यवस्था पर उनका सोचना यह है कि “हर गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक कुम्हार आदि होना चाहिए। उन सबको अपनी-अपनी भूमिका और पेशे के अनुसार काम करना चाहिए।”
टीम अण्णा के प्रमुख सदस्य अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसौदिया, किरण बेदी, मयंक गाँधी आदि बड़े-बड़े एनजीओ चलाते हैं जिन्हें कोका कोला, लेहमान ब्रदर्स और फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन जैसी संस्थाओं से करोड़ों रुपये की फण्डिंग मिलती है। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के अभियान को अंशदान देने वालों में कई बड़ी-बड़ी देशी कम्पनियाँ और संस्थाएँ हैं जिनमें से कुछ हज़ारों करोड़ के वित्तीय साम्राज्य चलाने वाले राजनीतिज्ञों से भी जुड़ी हुई हैं। केजरीवाल सफ़ाई देते हैं कि उन लोगों के एनजीओ का सारा हिसाब-किताब इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की वेबसाइट पर उपलब्ध है। यहाँ मुद्दा यह है ही नहीं कि केजरीवाल या किसी अन्य ने एनजीओ का पैसा खा लिया या उससे कितनी कमाई की। ये स्वयंसेवी संस्थाएँ जहाँ से वित्तपोषण लेती हैं, ये वे पूँजीवादी घराने और कम्पनियाँ हैं जिन्होंने कई देशों में रक्तरंजित तख्तापलट कराये हैं, चुनी हुई सरकारों को गिराकर सैनिक जुन्ताओं को सत्ता पर कब्ज़ा करने में मदद की है, महाभ्रष्ट तानाशाहों और सैनिक जुन्ताओं का काला धन अपने यहाँ निवेश कराया है – इनके मानवता-विरोधी अपराधों की फ़ेहरिस्त इतनी लम्बी है कि यहाँ गिनायी नहीं जा सकती। ये लोग पूरी दुनिया के देशों में एनजीओ की फण्डिंग क्यों करते हैं, इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। मगर भ्रष्टाचार-विरोधी इस “जंग” के सिपहसालारों को भ्रष्टाचार के कीचड़ और करोड़ों इंसानों के ख़ून से सनी यह फण्डिंग स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं।
प्रश्न केवल अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसौदिया या किरण बेदी का नहीं है। ऊपर से नीचे तक एनजीओ पन्थी इस आन्दोलन में सक्रिय हैं। टीम के दो अन्य प्रमुख सदस्यों शान्तिभूषण और प्रशान्त भूषण को ले लें। शान्तिभूषण एक-एक पेशी के लिए 25 लाख रुपये फीस लेते हैं। प्रशान्तभूषण की फीस भी लाखों में है। न्याय जनता का बुनियादी अधिकार है। मगर इतने महँगे वकील क्या जनता को न्याय दिला सकते हैं? कुछ जनहित याचिकाओं और कुछ राजनीतिक बन्दियों को ज़मानत दिलाने आदि को प्रशान्त भूषण मोरपंखी की तरह सिर पर टाँक लेते हैं, लेकिन जिन बड़े-बड़े घरानों की ये पैरवी करते हैं वे लाखों मज़दूरों के निर्मम शोषण, पर्यावरण की तबाही और तमाम क़ानूनों के उल्लंघन के दोषी हैं। कहीं न कहीं उनके अपराधों में ये भी भागीदार हैं।
बुर्जुआ जनवाद के चिथड़ा लबादे पर सुधारों की पैबन्दसाज़ी
इधर अण्णा हज़ारे के चतुर सलाहकारों ने उम्मीदवारों को नापसन्द करने के अधिकार (‘राइट टू रिजेक्ट’), जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार (‘राइट टू रिकॉल’), सरकारी खर्चे पर चुनाव कराने जैसी माँगों की चर्चा तेज़ कर दी है। अव्वलन तो भारत के पूँजीवादी जनवाद में इनका लागू होना सम्भव ही नहीं है। यह विशुद्ध लोकलुभावन बातें हैं। और मान लें कि अगर ये लागू हो भी जायें तो इनसे जनता के हाथों में सत्ता नहीं आ जायेगी। ये महज़ कुछ सजावटी किस्म के सुधार होंगे। छोटे स्तर पर ग्राम सभाओं के चुनाव के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है, जहाँ पैसे का खेल इस तरह नहीं चलता। फिर भी अधिकांश जगहों पर कोई अमीर, मानिन्द व्यक्ति ही क्यों चुनाव जीतता है? आरक्षित सीटों पर भी प्रायः गैर-दलित जातियों के प्रभुत्वशाली लोगों का कोई लग्गू-भग्गू ही जीत जाता है। स्त्रियों के लिए आरक्षित सीटों पर अधिकांश जगहों पर उनके परिवार के मर्द ही वास्तव में जीतते हैं। अगर शोषण और ग़ैर-बराबरी पर आधारित आर्थिक सम्बन्ध क़ायम रहेंगे तो ऊपरी ढाँचे में किसी भी प्रकार की पैबन्दसाज़ी एक मज़ाक बनकर ही रह जायेगी। उससे किसी वास्तविक बदलाव की उम्मीद करना भोलापन होगा।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पूँजीवादी जनवाद के भीतर जनवादी अधिकारों के लिए लड़ते हुए ही जनता समाजवाद के लिए लड़ना सीखती है। लेकिन समाजवाद के लिए संघर्ष केवल राजनीतिक चौहद्दी में नहीं चलता। वह आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तीनों चौहद्दियों में चलाना होता है। महज़ राजनीतिक क्षेत्र में कुछ सुधार कर देने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
इस व्यवस्था के भीतर होने वाले चुनाव अगर सरकारी खर्च से होने लगेंगे और बहुसंख्यक आबादी ग़रीब और वंचित रहेगी, तथा उत्पादन के साधनों की मालिक नहीं होगी तो सम्पन्न वर्गों के नुमाइन्दे ही चुनकर संसद और विधानसभाओं में पहुँचेंगे। सरकारी खर्च पर पूरा चुनावी प्रचार सम्भव नहीं होगा, और सभी उम्मीदवार अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक जमकर खर्च करेंगे। काले धन का पहले की तरह जमकर उपयोग होगा। पूँजीवादी व्यवस्था में निर्वाचक मण्डल (एमपी-एमएलए का चुनाव क्षेत्र) इतना बड़ा होता है कि खर्चों और अवैध तौर-तरीकों की सटीक पड़ताल की ही नहीं जा सकती। आज भी तो उम्मीदवारों के खर्च की अधिकतम सीमा तय है और चुनाव आयोग इसकी जाँच करता ही रहता है। लेकिन हर पूँजीवादी पार्टी के उम्मीदवार करोड़ों रुपये खर्च करते हैं। सारे मतदाताओं तक पहुँचने के लिए उनमें ज़बर्दस्त होड़ मची रहती है। इसके लिए कारपोरेट घरानों, जमाख़ोर व्यापारियों, अपराधियों आदि से छिपे तौर पर करोड़ों-करोड़ का चन्दा लिया जाता है, और बहुत-से सम्पन्न उम्मीदवार खुद अपनी जेब से करोड़ों खर्च करते हैं। पैसे लगाने वालों के लिए यह भी एक निवेश होता है, और चुनाव जीतते ही एक के बदले दस बनाने के लिए वे जमकर भ्रष्टाचार करते हैं। 1960-67 में इन्दिरा गाँधी ने कारपोरेट घरानों से राजनीतिक दलों के पैसे लेने पर रोक लगा दी, लेकिन इससे रंचमात्र भी फ़र्क नहीं पड़ा। पूँजीवादी पार्टियाँ कारपोरेट घरानों से चन्दा लिये बिना चुनाव लड़ ही नहीं सकतीं।
इसी तरह जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार इस व्यवस्था में लागू ही नहीं हो सकता। जनता का बहुमत किसी सांसद या विधायक को वापस बुलाना चाहता है यह तय करने के लिए भी तो फिर से मतदान ही कराना पड़ेगा जिसमें वोट खरीदने के लिए फिर उसी किस्म का भ्रष्टाचार होने लगेगा जो चुनाव में होता है।
पूँजीवादी जनवाद के दायरे के भीतर जनता अगर जागृत, संगठित और गोलबन्द होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ती है और संघर्षों के दौरान उसकी सामूहिक चेतना विकसित होती है तो सामूहिक चौकसी के द्वारा एक हद तक रोज़मर्रा के भ्रष्टाचार को सीमित किया जा सकता है। मगर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सट्टेबाज़ी, वायदा क़ारोबार, जमाख़ोरी, रिश्वतख़ोरी और काले धन का जो विराट समानान्तर तन्त्र पैदा होता है उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता। इस समस्या का आमूलगामी समाधान पूँजीवाद की समाप्ति के साथ ही हो सकता है। जो मेहनतकश जनसमुदाय समाज की समस्त सम्पदा का उत्पादन करता है जब तक वह उत्पादन के अधिशेष का हस्तगतकर्ता भी न हो जाए, जब तक उत्पादन-राजकाज और समाज पर उत्पादन करने वाले लोग इस तरह क़ाबिज़ न हो जाएं कि फ़ैसले की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में हो तब तक भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। वास्तविक लोकतन्त्र वही हो सकता है कि जिसमें बुनियादी स्तर की आर्थिक इकाइयों में आम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि निर्णय और प्रबन्धन के कामों को सीधे अपने हाथों में ले लें। उत्पादन कर्म में भागीदारी के साथ-साथ उत्पादन और वितरण की पूरी प्रक्रिया का संचालन भी वही करें। इसी बुनियाद से क्रमशः ऊपर उठते हुए प्रशासनिक और राजनीतिक संरचना के लिए भी प्रतिनिधि चुने जायें। यह एक पिरामिड जैसा ढाँचा होगा। ऐसे ढाँचे में प्रबन्धन या तकनीक के विशेषज्ञ स्वतन्त्र नौकरशाह या टेक्नोक्रेट के रूप में नहीं काम करेंगे बल्कि हर स्तर पर चुने हुए जन प्रतिनिधियों की कमेटियों में उनका स्थान होगा और वे जनता की चौकसी और निर्देशन में काम करेंगे। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसमें नीतियाँ बनाने वाले (विधायिका) और उन्हें लागू करने वाले (कार्यपालिका) के बीच अन्तर नहीं होगा। ऊपर से नीचे तक इस पिरामिडीय संरचना में विकेन्द्रीकरण और केन्द्रीकरण दोनों के तत्व मौजूद होंगे। ऐसी व्यवस्था के भीतर छोटे-छोटे निर्वाचक मण्डलों में चुने हुए प्रतिनिधि भी लगातार जन-चौकसी के दायरे में होंगे। बड़े निर्वाचक मण्डलों में आम आदमी के चुने जाने का अधिकार समाप्त हो जाता है और चुनावों में पूँजी और ताक़त की भूमिका प्रधान हो जाती है। इस व्यवस्था में ऐसा नहीं होगा। एक ऐसी व्यवस्था के भीतर ही वापस बुलाने का अधिकार लागू हो सकता है।
अगर व्यावहारिक होकर सोचा जाए तो निश्चित ही ऐसी किसी व्यवस्था के भीतर भी नौकरशाहाना प्रवृत्तियाँ और भ्रष्टाचार पैदा होते रहेंगे लेकिन इस व्यवस्था के दायरे में जनता की सतत् क्रान्तिकारी चौकसी उनकी झाड़-पोंछ करती रहेगी। दूसरे, ऐसी व्यवस्था में जनता की सामूहिक चेतना लगातार विकसित होती जाती है जिसके चलते सहस्राब्दियों से चला आ रहा श्रम विभाजन (शारीरिक और मानसिक श्रम का अन्तर) क्रमशः मिटता चला जाता है और सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के भीतर पूँजीवादी विशेषाधिकारों की जमीन क्रमशः कमज़ोर होती चली जाती है।
इस चर्चा को समेटते हुए कहा जा सकता है कि यदि कोई सामाजिक क्रान्ति आर्थिक सम्बन्धों में आमूलगामी बदलाव की बात नहीं करती, यदि मुट्ठीभर लोगों का उत्पादन के सभी साधनों पर एकाधिकार बना रहता है और समाज की बहुसंख्यक आबादी महज़ उनके लिए मुनाफ़ा पैदा करने के लिए जीती रहती है तो किसी भी तरह की ऊपरी पैबन्दसाज़ी से भ्रष्टाचार जैसी समस्या दूर नहीं हो सकती। यदि कोई आमूलगामी क्रान्ति उत्पादन के साधनों को मुट्ठीभर मुनाफ़ाख़ोरों के हाथों से छीनकर जनता के हाथों में नहीं देती, परजीवी पूँजी के तमाम गढ़ों, शेयर बाज़ारों आदि पर ताले नहीं लटका देती, भारत जैसे देशों में होने वाली कोई क्रान्ति अगर सारे विदेशी कर्ज़ों को मंसूख़ नहीं करती, सारी विदेशी पूँजी को ज़ब्त करके जनता के हाथों में नहीं सौंप देती, नीचे से ऊपर तक सारे प्रशासकीय ढाँचे को ध्वस्त कर उसका नये सिरे से पुनर्गठन नहीं करती तो न सिर्फ़ समाज में असमानता, अन्याय और अत्याचार बने रहेंगे बल्कि हर स्तर पर वह भ्रष्टाचार भी बना रहेगा जिसे अण्णा हज़ारे और उनकी टीम महज़ एक क़ानून बनाकर दूर करने के दावे कर रही है।
अण्णा हज़ारे जिन चीज़ों की बात कर रहे हैं वे सब अगर अमल में भी आ जायें तो भी ये सीमित जनवादी अधिकार की कुछ माँगें बनती हैं। इन्हें दूसरी आज़ादी की लड़ाई के रूप में पेश करना हास्यास्पद है और यह जनता में विभ्रम पैदा करता है। कुल-मिलाकर, उनकी नीयत चाहे जो भी हो, उनका आन्दोलन लोगों के ग़ुस्से और असन्तोष को बाहर निकलने का ज़रिया देकर व्यवस्था के लिए एक सेफ़्टीवॉल्व और शॉक एब्ज़ार्बर का काम कर रहा है।
[stextbox id=”black” caption=”मैं भी अन्ना”]
गलियाँ बोलीं, मैं भी अन्ना, कूचा बोला, मैं भी अन्ना!
सचमुच देश समूचा बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
भ्रष्ट तन्त्र का मारा बोला, महँगाई से हारा बोला!
बेबस और बेचारा बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
जोश बोला मैं भी अन्ना, होश बोला मैं भी अन्ना!
युवा शक्ति का रोष बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
साधु बोला मैं भी अन्ना, योगी बोला मैं भी अन्ना!
रोगी बोला, भोगी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
गायक बोला, मैं भी अन्ना, नायक बोला, मैं भी अन्ना!
दंगों का खलनायक बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
कर्मनिष्ठ कर्मचारी बोला, लेखपाल पटवारी बोला!
घूसख़ोर अधिकारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
मुम्बई बोली मैं भी अन्ना, दिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
नौ सौ चूहे खाने वाली, बिल्ली बोली, मैं भी अन्ना!
डमरू बजा मदारी बोला, नेता खद्दरधारी बोला!
जमाख़ोर व्यापारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
हइया बोला मैं भी अन्ना, हइशा बोला मैं भी अन्ना!
एनजीओ का पइसा बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
दायां बोला, मैं भी अन्ना, बायां बोला, मैं भी अन्ना!
खाया, पिया, अघाया बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
निर्धन जन की तंगी बोली, जनता भूखी नंगी बोली
हीरोइन अधनंगी बोली, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
नफ़रत बोली मैं भी अन्ना, प्यार बोला मैं भी अन्ना!
हँसकर भ्रष्टाचार बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
-अरुण आदित्य
(साभार: अमर उजाला, 28 अगस्त, 2011)
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