फ़ैक्ट्रियों का कुछ न बिगड़ा और मज़दूरों की बस्तियाँ भी उजाड़ दीं
आनन्द, बादली, दिल्ली
दिहाड़ी पर काम करने के लिए ठेकेदार क़रीब 20 मज़दूरों को समयपुर से बवाना औद्योगिक क्षेत्र ले गया था। इनमें मैं भी था। हम लोगों को बवाना औद्योगिक क्षेत्र में फ़ैक्टरी मालिकों द्वारा किये गये अवैध निर्माण को तोड़ना था। अधिकतर फ़ैक्टरी के मालिकों ने फ़ैक्टरी के आगे की ज़मीन क़ब्ज़ा कर रखी थी। दिल्ली विकास प्राधिकरण (डी.डी.ए.) की तरफ़ से पहले से मालिकों को नोटिस मिल चुका था। मगर कम्पनी मालिकों के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा। फिर दो महीने बाद डी.डी.ए. ने अवैध निर्माण को तोड़ने के लिए दस्ता भेज दिया। इसमें एक जूनियर इंजीनियर, एक वकील और क़रीब 7 पुलिस कांस्टेबल थे। एक इंस्पेक्टर मोटर साइकिल से था। तोड़ने के लिए ठेकेदार के साथ हम 20 मज़दूर थे। फिर 11 बजे से शुरू हुई नौटंकी। मज़दूरों ने एक फ़ैक्टरी की दीवार पर हथौड़े बरसाना शुरू किया। आधे घण्टे के अन्दर सारे कम्पनी के मालिक और उनके साथ वहाँ के छुटभैये नेता आ गये। हल्ला मचाने लगे क्यों तोड़ रहे हो। जे.ई. की तरफ़ से आदेश हुआ, कोई कुछ भी बोले तुम लोग तोड़ो। हथौड़े बजना शुरू हो गये। मालिक चिल्लाने लगे कि रुको-रुको तुम लोगों को इसे क्या फ़ायदा होगा, बस 5 मिनट के लिए हथौड़े रोक दो, अभी उनसे बात करके मना कराते हैं। सभी मज़दूर भी खूब मज़े ले रहे थे। ओए तोड़ ओए, किसी की नहीं सुननी है। मार दबाके!
इसके बाद जिसकी दीवार टूट रही थी वो जे.ई. के पास गया। कुछ बात किया फिर हज़ार-हज़ार के कई नोट उसको पकड़ाने लगा। जे.ई. इशारा करते हुए बोला, रखो-रखो। फिर उसने मज़दूरों को आदेश दिया, चलो यहाँ हो गया, अब आगे वाली फ़ैक्टरी तोड़ो। इस तरह शाम 5 बजे तक चली इस प्रक्रिया में कम से कम 40-50 फ़ैक्टरी में यही हुआ। हथौड़ा बजना शुरू हुआ। मालिक ने 10-20 हज़ार रुपये दिये। बस टूट गया। सारी फ़ाइल ओ-के- हो गयी।
एक जगह तो जे.ई. ने काफ़ी सख्ती दिखायी कि नहीं एक तो फ़ैक्टरी तुड़वानी ही पड़ेगी। एक तो टूटी दिखानी ही पड़ेगी। बहुत ही चिल्ल-पों मचने के बाद जे.ई. ने बड़ी ही कठोरता के साथ आगे का छज्जा तुड़वाकर लटकता हुआ दिखाकर उसके चारो तरफ़ मज़दूरों को हथौड़ा ताने हुए फ़ोटो खिंचवा लिये। वकील ने, जे.ई. ने, और इंस्पेक्टर ने अपने-अपने मोबाइल से फ़ोटो खींची। बाव़फ़ी सारे सिपाही बैठकर चाय-नाश्ता कर रहे थे। 6 घण्टे की इस नौटंकी में क़रीब 50 फ़ैक्टरी की फ़ाइलें ओ.के. हो गयीं। मालिक भी ख़ुश, प्रशासन भी ख़ुश।
मगर साथियो, इसी के उलट जब ग़रीबों-मज़दूरों की ज़िन्दगी भर की ख़ून-पसीने की कमाई से बनाये गये घरों-दुनिया को उजाड़ना होता है तब कोई दया नहीं बख्शी जाती है। एक दिसम्बर 2009 को कड़ाके की ठण्ड में सूरजपार्क (समयपुर बादली, दिल्ली) की झुग्गियों को तुड़वाने के लिए, उन निहत्थे मज़दूरों के वास्ते 1500 सौ पुलिस और सीआरपीएफ़ के जवान राइफ़ल, बुलेट प्रूफ़ जैकेट, आँसू गैस के साथ तैनात थे। चारों तरफ़ से बैरिकैड बनाकर डी.डी.ए. के आला अफ़सर, स्थानीय नेता, आस-पास के थानों की पुलिस पूरी बस्ती में परेड करते हुए मज़दूरों में दहशत पैदा कर रहे थे। सारे मज़दूर डरे-सहमे हुए, कोई किसी पुलिस वाले का पैर पकड़ रहा है, तो कोई किसी अफ़सर या नेता आगे हाथ जोड़ रहा है। कड़ाके की ठण्ड में उनका दुख देखकर किसी का भी दिल नहीं पसीजता और फिर शुरू होता है तबाही का मंज़र। पाँच इधर से पाँच उधर से बुलडोज़र धड़ाधड़-धड़ाधड़ झुग्गियाँ टूटना शुरू हो गयीं। उन डरे-सहमे मज़दूरों ने अपनी दुनिया को अपने सामने उजड़ते देखा। भगदड़ में कोई आटा घर से निकालकर ला रहा है, कोई चावल, कोई गैस— 3 घण्टे की इस तबाही ने क़रीब 5 हज़ार लोगों की दुनिया उजाड़ कर उनको सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया।
जबकि अपने घर बचाने के लिए क्या नहीं किया था इन लोगों ने? 15 दिन पहले नोटिस मिला तो स्थानीय नेताओं से गुहार लगायी। निगम पार्षद के पास गये, सांसद और विधायक के पास गये। डी.डी.ए. के अधिकारियों के पास गये मगर किसी ने कोई सुनवाई नहीं की। फिर एक ठग नेता को सबने 500-500 रुपये (यानी लगभग 5 लाख रुपये) जुटाकर दिये। वह कई सौ लोगों को ट्रकों में भरकर मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित के पास ले गया। उनसे मिन्नतें कीं, माता जी कुछ दिन की मोहलत दे दीजिये। ये ठण्ड निकल जाये, फिर हम लोग अपना इन्तज़ाम कर लेंगे। उन्होंने भरोसा दिलाया, जाओ हम कुछ सोचेंगे। मगर फिर 15 दिन में ही ये तबाही!
पाँच हज़ार ग़रीबों की दुनिया इसलिए उजाड़ दी गयी कि कॉमनवेल्थ गेम के लिए वहाँ एक अण्डरपास बनेगा। कामनवेल्थ गेम भी हो गया मगर वो अण्डरपास अभी भी नहीं बना। वो सिर्फ़ एक बहाना था ग़रीबों को उजाड़ने का। उसी साल दिसम्बर 2009 में ऐसी 44 झुग्गियाँ तोड़ी गयीं जिसमें क़रीब 2 लाख लोग सड़कों पर आ गये। इनमें से बहुत तो आज भी सड़कों पर ज़िन्दगी काट रहे होंगे।
ये दो तस्वीरें बहुत कुछ बता देती हैं कि हम किस तरह के समाज में रह रहे हैं। सारी व्यवस्था अमीरों के लिए है, वे जैसे चाहे क़ानून को तोड़-मरोड़कर अपनी जेब में रख सकते हैं। मगर ग़रीबों के लिए क़ानून का मतलब है पुलिस का डण्डा और गोली।
मज़दूर बिगुल, मई-जून 2011
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन